ad

गुरुवार, 31 मार्च 2011

माँसाहार अर्थात वैश्विक अशान्ति का घर

माँसाहार को अगर "अशान्ति का घर" कहा जाये, तो शायद कुछ गलत नहीं होगा. डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें एक बार कहा था कि "अगर संसार में शान्ति कायम करनी है तो उसके लिए दुनिया से माँसाहार को समाप्त करना होगा. बिना माँसाहार पर अंकुश लगाये ये संसार सदैव अशान्ति का घर ही बना रहेगा".

डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें कितनी सही बात कही है. ये कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि माँसाहार के चलते दुनिया में शान्ति कायम नहीं रह सकती. शाकाहारी नीति का अनुसरण करने से ही पृथ्वी पर शान्ति, प्रेम, और आनन्द को चिरकाल तक बनाये रखा जा सकता है, अन्यथा नहीं.
पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किघली का भी कुछ ऎसा ही मानना है. उनके शब्दों में कहा जाए, तो " यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिँसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है".

आज जहाँ शाकाहार की महत्ता को स्वीकार करते हुए माँसाहार के जनक पश्चिमी राष्ट्रों तक में शाकाहार को अंगीकार किया जाने लगा है, उसके पक्ष में आन्दोलन छेडे जा रहे हैं, जिसके लिए न जाने कितनी संस्थायें कार्यरत हैं. पर अफसोस! भगवान राम और कृष्ण के भक्त, शाकाहारी हनुमान जी के आराधक, भगवान महावीर के 'जितेन्द्रिय', गुरू नानक जी के निर्मल चित्त के चित्तेरे, कबीर के 'अविनाशी' पद को प्राप्त करने की परीक्षा में लगे हुए साधक, महर्षि दयानन्द जी के अहिँसक आर्य समाजी और रामकृष्ण परमहँस के 'चित्त परिष्कार रेखे' देखने वाले इस देश भारत की पावन भूमी पर "पूर्णत: शुद्ध शाकाहारी होटलों" को खोजने तक की आवश्यकता आन पडी है. आज से सैकडों वर्ष पहले महान दार्शनिक सुकरात नें बिल्कुल ठीक ही कहा था, कि-----"इन्सान द्वारा जैसे ही अपनी आवश्यकताओं की सीमाओं का उल्लंघन किया जाता है, वो सबसे पहले माँस को पथ्य बनाता है.". लगता है जैसे सीमाओं का उल्लंघन कर मनुष्य 'विवेक' को नोटों की तिजोरी में बन्द कर, दूसरों के माँस के जरिये अपना माँस बढाने के चक्कर में लक्ष्यहीन हो, किसी अंजान दिशा में घूम रहा हो.......

आईये हम माँसाहार का परिहार करें-----"जीवो जीवस्य भोजनं" अर्थात जीव ही जीव का भोजन है जैसे फालतू के कपोलकल्पित विचार का परित्याग कर "मा हिँसात सर्व भूतानि" अर्थात किसी भी जीव के प्रति हिँसा न करें----इस विचार को अपनायें.

माँस एक प्रतीक है---क्रूरता का, क्योंकि हिँसा की वेदी पर ही तो निर्मित होता है माँस. माँस एक परिणाम है "हत्या" का, क्योंकि सिसकते प्राणियों के प्रति निर्मम होने से ही तो प्राप्त होता है--माँस. माँस एक पिंड है तोडे हुए श्वासों का, क्योंकि प्राण घोटकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस. माँस एक प्रदर्शन है विचारहीन पतन का, क्योंकि जीवों के प्रति आदर( Reverence of Life) गँवाकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस.
इसके विपरीत शाकाहार निर्ममता के विपरीत दयालुता, गन्दगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, कष्ट देने के विपरीत क्षमादान, जीने का तर्क एवं मानसिक शान्ति का मूलाधार है. 

अब ये आप को सोचना है कि क्या आप अब भी माँस जैसे इस जड युगीन अवशेष से अपनी क्षुधा एवं जिव्हा लोलुपता को शान्त करते रहना चाहेंगें....................

रविवार, 20 मार्च 2011

माँस खायें और रोगों की सौगात मुफ्त पायें

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि " एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इसके सिवा हमें अच्छे स्वास्थ्य की अनुभूति ही नहीं हो पाती.
आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---अर्थात मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere  का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास:-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व  उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. (Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heart valves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु":-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए  टोलस्टाय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-----Meat eating encourages animal passions as well as sexual desire. 

गुरुवार, 17 मार्च 2011

कृत्रिम परिपक्वता

शिक्षा प्रणाली और बाजार व्यवस्था दोनों नें मिलकर आज बच्चों से उनका बचपन पूरी तरह से छीन लिया है. दोनों ही बच्चों को उम्र से कहीं पहले बढा कर देना चाहते हैं. आज की पीढी में बारह-तेरह साल के बच्चे जिन्हे हम किशोर समझने की भूल कर बैठते हैं, जब कि वे मानसिक रूप से युवा हो चुके होते हैं.
कितनी हैरानी की बात है कि आजादी के 65 वर्षों बाद भी आजतक हम लोग ऎसी शिक्षा प्रणाली को विकसित नहीं कर पाये हैं---जिसे कि हम भारतीय कह सकें, अपनी खुद की कह सकें. हमारे पास जो कुछ भी है, उधार का है----पश्चिम से लिया हुआ उधार. उस देश के लिए यह ओर भी दु:ख की बात है, जिसनें नालंदा--तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय तब बनाये थे, जब दुनिया विश्वविद्यालय जैसी किसी धारणा से भी परिचित नहीं थी. यह वही समय था, जब इस देश को विश्वगुरू बनने का गौरव मिला था. लेकिन आज वही देश उधार की शिक्षा प्रणाली पर जी रहा है और वो भी दिनप्रतिदिन इतनी महंगी होती जा रही है कि गरीब आदमी की तो बात ही न करें, एक मध्यमवर्गीय परिवार के बस से भी बाहर की बात होने लगी है.
इधर माँ-बाप भी कुछ कम दोषी नहीं हैं, जिन्हे बच्चों को कम उम्र में स्कूल में दाखिल कराने की होड मची रहती है, ताकि उनका बच्चा दुनिया में स्पर्धा करने के लिए जल्द से जल्द तैयार हो सके. बच्चों को छोटी से छोटी उम्र में स्कूल में दाखिल करने की जिस तरह आज होड लगी है, उसे देख तो लगता है कि वो दिन भी बहुत दूर नहीं है---जब गर्भ में आये शिशु का भी स्कूल में पंजीकरण किया जाने लगेगा.

प्ले-वे वगैरह के नाम पर बच्चे को बेहद कम उम्र में स्कूल में दाखिल करना तो एक तरह से उनके बचपन पर कुल्हाडी चलाने का ही काम हुआ, जो कि माँ-बाप चला ही रहे हैं. बाकी रही सही कसर स्कूल में अध्यापक-अध्यापिकायें पूरी किये दे रही हैं. अब नर्सरी क्लास को ही लीजिए, नर्सरी का मतलब जहाँ पौधों की देखरेख की जाती है, उन्हे विकसित किया जाता है. लेकिन इन नर्सरियों में पौधे विकसित नहीं किए जाते, बल्कि उनके विकास को खंडित किया जाता है. उनकी कटाई-छँटाई करके उन्हे बोनजाई बनाया जा रहा है. वे जीवन भर बौने ही बने रहते हैं, कभी पूर्ण विकसित नहीं बन पाते.
हो सकता है कि कुछ लोग इन विचारों से सहमति न रखें, क्योंकि शायद उन लोगों को बच्चों के बौद्धिक विकास की दृष्टि से इस प्ले-वे संस्कृति में कुछ खूबियाँ दिखाई पडती हों. लेकिन ऎसा सिर्फ वही सोच सकता है, जो कि मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली से पूर्णत: अनभिज्ञ हो.

इस बात को पूर्ण रूप से समझने के लिए हमें सर्वप्रथम मानव मस्तिष्क की बनावट को समझना होगा.
मस्तिष्क के दो हिस्से होते हैं------दायाँ भाग और बायाँ भाग. मस्तिष्क का दायाँ हिस्सा शरीर के बायें हिस्से को नियन्त्रित करता है और बायाँ भाग दायें हिस्से को संचालित करता है. अगर किसी के शरीर के बायें भाग में लकवा मार गया हो तो उसका कारण मस्तिष्क के दाहिने हिस्से में होगा.
डा. रोजर स्पेरी नाम के एक वैज्ञानिक हुए हैं, जिन्होने मस्तिष्क के दोनों हिस्सों की कार्यप्रणालियों पर काफी शोध किया है. उस शोध के आधार पर ये सिद्ध हुआ है कि मस्तिष्क का दायाँ हिस्सा भावप्रधान तथा कलात्मक (sentimental & artistic) होता है, जब कि बायाँ हिस्सा तर्कप्रधान और गणितीय (Logical & mathematical) होता है. दायाँ भाग रंगों के प्रति, ध्वनियों एवं गंध आदि के प्रति संवेदनशील होता है. साथ ही अतीन्द्रीय अनुभूतियाँ भी इसी हिस्से में होती हैं. मस्तिष्क का केवल यही भाग ही जन्म से सक्रिय होता है.
दिमाग का बायाँ भाग तार्किक और गणितीय होता है. भाषा, व्याकरण, सूत्र, गणित, व्यापार आदि का कार्य इसी भाग से होता है. अब जो बताना चाह रहा हूँ, वो यह कि मस्तिष्क का बायाँ हिस्सा लगभग दस-बारह वर्ष की आयु से अपने स्वाभाविक रूप में कार्य करना आरम्भ करता है. इससे पहले उससे काम लेना शुरू किया जाये, तो उसका विकास अस्वाभाविक होता है, स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता. छोटे बच्चों को गणित एवं कम्पयूटर जैसे विषयों की शिक्षा देना उनके मस्तिष्क के बायें भाग को अस्वाभाविक रूप से विकसित करना है. इसका सबसे बुरा परिणाम यह होता है कि उनके व्यक्तित्व में भाव पक्ष---इमोशनल पार्ट तो दबने लगता है और तर्क पक्ष सक्रिय हो जाता है. यक तर्क पक्ष उसे समय से कहीं पहले समझदार बना देता है-----उन अर्थों में समझदार, जो समझदारी उनमें बीस-बाईस साल की उम्र में आनी चाहिए थी. समय से पहले आई इस तथाकथित कृत्रिम समझदारी का नतीजा यह होता है कि उनसे उनका बचपन छिन जाता है. यह अपरिपक्व परिक्वत्ता बहुत ही खतरनाक साबित हो रही है. दुनिया के लगभग सभी कथित आधुनिक स्कूलों में आज हिँसा और अपराध बढ रहे हैं. नैतिकता, सदाचार, संस्कार, संस्कृति, धर्माचरण जैसे विषयों से वो दूर होते चले जा रहे हैं. ये सब उसी कृत्रिम परिपक्वता का नतीजा है.
होना तो ये चाहिए कि बच्चों की संवेदनायें, उनकी आन्तरिक शक्ति कुंठित न होने पाये. उनका पूर्ण रुप से संतुलित विकास हो अर्थात उनके मस्तिष्क का दायाँ और बायाँ दोनों भाग समान रूप से संतुलन में विकसित हो सकें, जबकि आज की हमारी ये शिक्षा प्रणाली सिर्फ दिमाग के बायें हिस्से को विकसित करने पर जोर दे रही है. दाहिना भाग बिल्कुल पूरी तरह से उपेक्षित छोड दिया गया है. किसी के स्वप्रयासों या स्वरूचि से ही विकसित हो जायें तो और बात है, वर्ना तो इस शिक्षा नें बच्चों को मानसिक रूप से पंगु बनाने में कोई कसर नहीं छोड रखी.
अब आप स्वयं ही विचार करें कि क्या ये उचित है कि छोटी कक्षाओं में बच्चों को तार्किक एवं गणितीय विषय पढाये जायें ?

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

इनमें भी जाँ समझ कर, इनको जकात दे दो

हालाँकि इस समय मुझे उनका नाम तो स्मरण नहीं हो पा रहा. उर्दू के एक मुसलमान कवि थे, जिन्होने अपने भावों को निम्न प्रकार से प्रकट करते हुए निर्दोष, मूक प्राणियो पर दया करने की ये अपील की है :---

पशुओं की हडियों को अब न तबर से तोडो
चिडियों को देख उडती, छर्रे न इन पे छोडो !!
मजलूम जिसको देखो, उसकी मदद को दोडो
जख्मी के जख्म सीदो और टूटे उज्व जोडो !!
बागों में बुलबुलों को फूलों को चूमने दो
चिडियों को आसमाँ में आजाद घूमने दो !!
तुम्ही को यह दिया है, इक हौंसला खुदा नें
जो रस्म अच्छी देखो, उसको लगो चलाने !!
लाखों नें माँस छोडा, सब्जी लगे हैं खाने
और प्रेम रस जल से, हरजा लगे रचाने !!
इनमें भी जाँ समझ कर, इनको जकात दे दो
यह काम धर्म का है, तुम इसमें साथ दे दो !!

बुधवार, 2 मार्च 2011

माँस मनुष्य का भोजन नहीं

पशु,पक्षी,कीट, पतंगे आदि संसार में जितने भी प्रकार के प्राणी हैं, सब के सब अपने-अपने स्वाभाविक भोजन को भलीभाँती जानते तथा पहचानते हैं. अपने भोजन को छोडकर दूसरे पदार्थों को सर्वदा अभक्ष्य समझते हैं, उनको देखते, सूँघते तक नहीं. अत: अपने आपको सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले इस इन्सान से तो अन्य सभी प्राणी कहीं अच्छे हैं. जैसे जो पशु घास खाते हैं, वे माँस की ओर देखते तक भी नहीं और जो माँसाहारी पशु हैं, वे घासफूस की ओर खाने के लिए दृष्टिपात तक नहीं करते. उसी प्रकार कन्द-मूल और फल-फूल भक्षी प्राणी इन पदार्थों को छोडकर घासफूस नहीं खाते. परन्तु यह अभिमानी मनुष्य संसार का एक विचित्र प्राणी है, जिसे भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं, पेय-अपेय की कोई मर्यादा नहीं----खानपान में सर्वदा उच्छ्रंखल, कोई नियम-बंधन नहीं. यह सर्वभक्षी बना हुआ है. पशु-पक्षी-कीट-पतंगें इत्यादि सबको चट कर जाता है. उसने पेट को सभी प्राणियों का कब्रिस्तान बना छोडा है. निरपराध निर्बल प्राणियों को मारकर खाने में इसनें न जाने कौन सी वीरता समझ रखी है. यहाँ मुझे राष्ट्रीय कवि मैथली शरण गुप्त जी की लिखी चार पंक्तियाँ स्मरण हो रही हैं, जिसमें उन्होने इसका अच्छा चित्र खींचा है------
" वीरत्व हिँसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का
   कुछ भी विचार उन्हे नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का !
  केवल पतंग विहंगमों में जलचरों में नाव ही,
  बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही !! "
अर्थात जो अपने शत्रुओं का वध(हिँसा) युद्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे, आज वे भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिए अपनी वीरता दिखा रहे हैं. पापी मनुष्य नें सब प्राणी खा लिए, केवल नभचरों में आसमान में उडने वाली पतंग, जल में रहने वालों में लकडी की नाव और चौपायों में केवल एक चारपाई बची है, जिसे वो खा न सका. इन तीनों को छोडकर शेष सबको इसनें अपने पेट में पहुँचा दिया. इसी के फलस्वरूप मनुष्य सभी प्राणियों की अपेक्षा कहीं अधिक रोगी व दु:खी रहता है.
पुरातन काल की बात है, एक बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी नें अपनी जिज्ञासा रखी ओर तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है ?
प्रश्न:---- कोरूक्, कोरूक्, कोरूक्
कौन निरोग रहता है ? कौन निरोग रहता है? कौन निरोग रहता है?
उत्तर:--- ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्
(1) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (2) जो हितकारी भोजन करता है, (3) और जो मितभोजन अर्थात भूख से कुछ कम भोजन (अल्पाहार) करता है---वाह सर्वथा रोगरहित और पूर्णत: स्वस्थ व सुखी रहता है.
माँसाहार कभी धर्मानुसार इन्सान का भोजन नहीं हो सकता. माँसाहारी ऋतभुक नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिए माँस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिँसा है और हिँसा से प्रप्त हुई कोई सामग्री भक्ष्य नहीं होती.
हितभुक् जो हितकारी पदार्थों का सेवन करता है, वह हितभुक् सदा स्वस्थ रहता है.
मितभुक् जो भूख रखकर थोडा मिताहार करता है, ऎसा व्यक्ति पूर्णत: स्वस्थ रहता है.
जो लोग ईश्वर नाम की किसी सत्ता पर विश्वास करने वाले हैं, उन्हे भी ये समझना चाहिए कि ईश्वर सभी प्राणियों का पिता है. संसार का हर जीव उसके पुत्र तुल्य है, वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को अपनी अन्य संतानों पशु, पक्षी आदि की हिँसा करके खाने की आज्ञा भला कैसे दे सकता है तथा अपनी संतानों के प्रति की गई हिँसा से कैसे प्रसन्न हो सकात है ? उन लोगों को ये समझना चाहिए कि जो पदार्थ हिँसा से किसी को सताकर, मारकर, छल-कपट, अधर्म से प्राप्त हों, उनका सेवन करना किसी भी प्रकार से इन्सान के लिए हितकारी नहीं हो सकता.
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी!
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातका: !!
सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारनेवाला, खरीदनेवाला, बेचनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला ये आठ प्रकार के पातक अर्थात कसाई कहे गये हैं. ऎसे हिँसक कसाई अधर्मियों के लोक-परलोक दोनों बिगड जाते हैं. इसलिए हिँसा से बचिए और न केवल अपने अपितु अपनी आने वाली पीढियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए भी माँसाहार का परित्याग कर शाकाहार को अपनाईये.
आप इस आलेख को यहाँ निरामिष ब्लाग पर भी पढ सकते हैं.

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हिन्दू धर्म, संस्कृति और क्यों ?

भारतीय संस्कृति, जिसके विभिन्न स्वरूपों के साथ देश,काल आदि भौगोलिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन जुडा हुआ है. जिसके प्रत्येक आचार-विचार के मूल में विज्ञान विराजमान रहा है.
भारतीय सदाचार शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए वैज्ञानिक उपयोगिता पर आधारित है. 'आचार प्रभवो धर्म:' अर्थात आचार से ही धर्म उत्पन्न होता है. 'आचार ग्राहयति इति आचार्य'--ऎसा कहकर निरूक्तकार यास्क नें स्पष्ट कर दिया है कि श्रेष्ठ तथा आचार्यों का कार्य आचार का पालन कराना है. मनुस्मृति भी यही कहती है कि 'आचारहीन न पुनन्ति वेदा'---अर्थात आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. दरअसल भारतीय संस्कृति ओर उसके प्रत्येक आचार-विचार में वैज्ञानिक चिन्तन विद्यमान रहा है. लेकिन अब इसे युग का प्रभाव कहा जाए या कुछ ओर, आज का समाज विज्ञान की चकाचौंध से प्रभावित होकर प्राचीन आचार-विचार पर कुछ अधिक ही तर्क करने लगा है. इस विषय में आधुनिक शिक्षा एवं संस्कारों नें इन्सान के मन-मस्तिष्क में ओर अधिक भ्रम उत्पन किया है.
परन्तु बेशक धीरे-धीरे ही सही, जहाँ आज आधुनिक विज्ञान इसका वैज्ञानिक स्वरूप प्रतिपादित करने लगा है, वहीं आज का सभ्य समाज भी इसके महत्व को स्वीकार करता जा रहा है. किन्तु फिर भी इस देश की प्राचीन संस्कृति को लेकर सभ्य समाज में मन में कुछ ऎसे प्रश्न शेष रह जाते हैं, जिनका समाधान होना बहुत आवश्यक हो जाता है. यूँ तो समय-समय पर अनेक योग्य विद्वानों द्वारा इस विषय पर भरपूर प्रकाश डाला जाता रहा है. किन्तु इस सनातन संस्कृति की वैज्ञानिकता को समग्र रूप से समझने के इच्छुक जिज्ञासुजनों को इस विषय पर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी माधवाचार्य द्वारा लिखित 'क्यों' शीर्षक ग्रन्थ को एक बार अवश्य देखना चाहिए. हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित यह ग्रन्थ आपके मन में उठने वाले प्रत्येक 'क्यों' का संतुष्टिपरक जवाब दे पाने में पूर्णरूपेण सक्षम है. न केवल जिज्ञासुजनों अपितु अनर्गल प्रलाप करने वाले कुतर्कियों को भी एकबार इसे अवश्य पढना चाहिए.
पुस्तक नाम:- 'क्यों' ( दो खंडों में)
लेखक:- शास्त्र महारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री
प्रकाशक:- माधव विद्या भवन, दिल्ली
भाषा:- हिन्दी तथा अंग्रेजी
मूल्य:- 180/-(प्रत्येक खंड)

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

कुतर्कियों के सिर पर चढा प्रोटीन का भूत (एक वैज्ञानिक अन्धविश्वास)

इन्सान पर हावी होने वाले भूत-प्रेतों को उतारने के लिए तो ओझाओं-गुनियों, तान्त्रिक, पीर-फकीरों, बाबाओं वगैरह को बुलाना पडता है. लेकिन आज के इस वैज्ञानिक युग में कईं भूत ऎसे भी हैं जिनका किसी के पास कोई इलाज नजर नहीं आ रहा. इन्ही में एक भूत है---प्रोटीन का, जिसने सारे डाक्टरों, आहार वैज्ञानिकों और इन्सान को तन्दरूस्त रखने के नए नए तरीके इजाद करने वाले लोगों को इस तरह जकड लिया है कि इससे छुटकारा पाना निहायत ही मुश्किल है. अब आदमी बीमार हो तो वो डाक्टर से इलाज करा ले, पर वो बेचारा डाक्टर ही किसी भूत से जकडा जाए तो फिर उसका इलाज भला कौन करे? अब ऎसे ही एक प्रेत ग्रसित डाक्टर हैं--जनाब अनवर जमाल साहब. अब ये बात दूसरी है कि वो सिर्फ नाम के डाक्टर हों. कहीं साल छ: महीनें किसी डाक्टर के यहाँ कम्पाऊंडरी करते करते डाक्टर बन गए हों. खैर अल्लाह बेहतर जानता है :)
बहरहाल हम मूल विषय पर आते हैं. प्रोटीन-----जिसकी होड नें आज अनेक समस्याएं पैदा कर दी है. प्रोटीन पाने के लिए सरकारें तक कमर कसे बैठी हैं. देश भर में जगह-जगह कसाईघर खुलवा रखे हैं, जहाँ से माँस डिब्बों में बन्द कर बेचा जाता है. टेलीवीजन, समाचार पत्र जैसे संचार माध्यमों नें भी शोर मचा रखा है कि अंडे खाओ ताकि शरीर में जान पडे. प्राण चाहते हो तो प्रोटीन खाओ. बेचारे पशु-पक्षियों की शामत आन पडी है. अनेक सदबुद्धि वालों नें उनकी पैरवी की, पर कुतर्क यह दिया जाता है कि वैज्ञानिक खोजों के आधार पर ऎसा करना उचित है. हमारे जैसा आदमी यह कहे कि हमारे बाप-दादाओं नें तो कभी इन सब चीजों को छुआ तक नहीं...तो क्या उन लोगों नें स्वस्थ जीवन व्यतीत नहीं किया. वे दूध, दही, फल-फ्रूट खाते थे और उन्हे रोग भी कम होते थे. पर दुर्बुद्धि लोग अपने विचार बदलने को तैयार ही नहीं है......बदलें भी कैसे, उन पर प्रोटीन का भूत जो सवार है.

बीसवीं सदी के शुरू में आहार का मसला बकायदा एक विज्ञान के तौर पर सामने आया. भोजन में उर्जा के स्रोतों जैसे कार्बोहाईड्रेट, चर्बी और प्रोटीन की खोज हुई. प्रोटीन को माँसपेशियों और बच्चों के विकास के लिए जरूरी समझा गया. चर्बी और कार्बोहाईड्रेट को उर्जा का प्रमुख स्रोत माना गया. मैक कालम और डेविस नाम के वैज्ञानिकों नें विटामिन "ए" खोजा, फिर दूसरे विटामिन खोजे गये. आज विटामिन ए, बी, सी, डी, ई इत्यादि न जाने कितने प्रकार के विटामिन्स का विस्तृत ज्ञान मैडिकल साईन्स को है.
प्रचलित भ्रान्तियाँ:-
प्रोटीन को लेकर भ्रान्तियाँ कब शुरू हुई, यह कहना तो कठिन है, पर वे बहुप्रचलित हैं. यह एक आम धारणा है कि प्रोटीन अधिक मात्रा में लेना चाहिए. नतीजतन डिब्बों में बन्द बहुत से प्रोटीनमय पदार्थों की बिक्री बहुत होने लगी. इन चीजों को दूध या पानी में घोलकर पिया जाने लगा. माओं नें बच्चों को जबरिया पिलाना शुरू कर दिया. मायें भी बडे लाड से कहती हैं कि हारलिक पिओगे तो जल्दी से बडे हो जाओगे.
सूरदास का पद याद करें तो कृष्ण भी यही कहते थे-----"मैया कबहूँ बडेगी चोटी! कित्ती बार मोहि दूध पियावत, है अजहू छोटी की छोटी!!" लगभग यही बात प्रोटीन वाले भोजन को घोल-घोलकर पिलाने के लिए कही जा रही है. टीवी पर विज्ञापनों के जरिए मानो 'प्रोटीन ही जीवन है" का सन्देश हमारे गले उतरवाने की कौशिशें जारी हैं.
दरअसल प्रोटीन की मात्रा भोजन में सन्तुलित होनी चाहिए. उर्जा देने वाले तत्व के रुप में प्रोटीन की विशेष जरूरत नहीं होती. उर्जा के अच्छे स्रोत तो वसा और कार्बोहाईड्रेट हैं. आहार वैज्ञानिक इस पर एकराय हैं कि प्रति एक किलो वजन पर एक ग्राम प्रोटीन एक आम इन्सान के लिए काफी है. बच्चों को अधिक से अधिक 2 ग्राम प्रति किलो प्रोटीन पर्याप्त होगी. साधारण भोजन में तो प्रोटीन की इतनी मात्रा अपने आप ही मिल जाती है. आमतौर पर एक औसत व्यक्ति 250 ग्राम अनाज और 50-100 ग्राम दाल या दाल से बनी चीजें जरूर खाता है. 250ग्राम अन्न से लगभग 30 ग्राम प्रोटीन, दाल में 20 ग्राम से अधिक प्रोटीन और दूध,दही, पनीर आदि में 10-20 ग्राम प्रोटीन मिल जाती है. इस तरह आदमी 60-70 ग्राम प्रोटीन रोजाना उदरस्थ कर लेता है. तब बताईये फिर प्रोटीन की कमी कहाँ?
प्रोटीन के स्रोत:-
यह बात काफी प्रचारित हुई है कि माँसाहार और अंडे उच्च कोटि के प्रोटीन के स्रोत है. यह विचार सबसे पहले कहाँ से आया, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता. डाक्टरों से पूछिए कि प्रोटीन का ऎसा वर्गीकरण किसने किया और इसका कहाँ उल्लेख है, तो मैं आपको गारंटी देता हूँ कि उनसे जवाब देते नहीं बनेगा. दरअसल ये सब एक दूसरे से सुनी-सुनाई बातें हैं और इन सुनी सुनाई बातों को ही किताबों में लिख-लिखकर दुनिया में ये भ्रमजाल फैलाया जा रहा है कि पशुओं के माँस और अंडों में उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं और वनस्पतियों में दोयम दर्जे के. प्रसिद्ध वैज्ञानिक Dr.Semsan Wright के अनुसार ऎसा विभाजन निहायत ही अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक हैं. उनका कहना था कि पशुओं की माँसपेशियाँ तो घास खाने से बनती हैं. जिस प्रोटीन को हम उच्च स्तर का कहते हैं---वह घास से बनती है.
अचरज की बात यह है कि सभी जगह मेडिकल के छात्रों को डा. सैमसन राईट की किताब पढाई जाती है, पर इस वैज्ञानिक की इस बात को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर दिया जाता है. जनाब अनवर जमाल साहब जैसे स्वनामधन्य डाक्टरों को तो यह भी नहीं पता होगा कि किताब में इस बात का उल्लेख भी है.
प्रोटीन आवश्यकता से अधिक ले लिए जायें तो क्या हो ? 
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि प्रोटीन के मेटाबोलिज्म के बाद इनकी तोडफोड से कईं विषैले पदार्थ पैदा होते हैं-----यूरिया, यूरिक एसिड क्रीटीन, क्रोटीनीन आदि. ये सीधे इन्सान के गुर्दों पर असर करते हैं. अधिक मात्रा में इनकी उत्पति होने से इनका गुर्दों से निकलना कठिन हो जाता है और गुर्दे समय से पहले जवाब भी दे सकते हैं. देश में गुर्दे की बीमारी की बढोतरी का एक कारण यह भी समझा जा रहा है. लंदन के मेडिकल जनरल "Lancet" के अनुसार गठिया की बीमारी का कारण भी भोजन में प्रोटीन की अधिकता ही है.
दालें और दूध:-
प्रोटीन सबको मिले, इसके लिए जरूरी है कि इसकी कीमत कम हो. पर क्या अंडे या माँस सस्ते पडते हैं. एक अंडा 4-5 रूपये का आता है जिसका वजन लगभग 50-60 ग्राम होता है. उसमें प्रोटीन की मात्रा लगभग 6 ग्राम होती है. इस तरह 100 ग्राम अंडे में लगभग 12-13 ग्राम प्रोटीन. कीमत 8-9 रूपये के लगभग. इसके विपरीत 100 ग्राम सोयाबीन में 83 ग्राम प्रोटीन होता है, जिसकी कीमत पडती है महज अढाई रूपये. यानि अंकों की तुलना में लगभग 8 गुणा.
प्रोटीन के अच्छे स्रोत दालें, अन्न और दूध हैं. सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा 43 ग्राम प्रतिशत है. दालों में भी यह पर्याप्त मात्रा में होता है. माँस, अंडे में प्रोटीन की मात्रा क्रमश: 18 और 13 ग्राम होती है. फिर भी माँसाहार से प्रोटीन पाने का भूत इन लोगों के सिर से नहीं उतर रहा. प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बिगडने की एक प्रमुख वजह आज यह भी है.
इसलिए आज इस युग की ये सब से बडी जरूरत है कि अपने दुराग्रहों का परित्याग कर खुले मस्तिष्क से इस विषय पर विचार किया जाए और खोखली वैज्ञानिकता के नाम पर फैलाये जा रहे इन भ्रमों को दूर कर निज, समाज और प्रकृति के प्रति अपने उतरदायित्व को समझते हुए शाकाहार को अपनाया जाए. 
आप इस आलेख को "निरामिष" ब्लाग पर भी पढ सकते हैं.
ज्योतिष की सार्थकता
www.hamarivani.com
रफ़्तार