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रविवार, 23 नवंबर 2008

ईमानदारी का ईनाम

एक बड़े व्यापारिक संस्थान की शाखा का कार्यालय पास ही के उपनगर में था जहां कार्यालय में एक कर्मचारी ओटो रिक्शा से आता था। उसे दैनिक भत्ते के सिवाय ओटो का भाड़ा भी दिया जाता था। भाड़ा चालीस रूपए के आस-पास बनता था। मगर कर्मचारियों ने परस्पर तय कर लिया था। जो भी आये जाये वह खर्च का सौ रूपये का ही वाउचर बनाएगा। बाकी बचा रूपया अपनी जेब के हवाले कर देगा। इसमें वाउचर मंजूर करने वाले अधिकारी का भी प्रतिशत बंधा था। कर्मचारी और अधिकारी की सांठ-गांठ थी।ये समझो कि दसों उंगलियॉं घी में और सिर कढ़ाई में था.

हर तीन माह बाद यह डयूटी बदलती रहती थी। थोडे दिनों बाद एक निकम्मे (ईमानदार) कर्मचारी की डयूटी लगी तो उसने चालीस रूपए खर्च का वाउचर बनाया।

निचले वर्ग के अधिकारी ने कहा कि वाउचर तो सौ रूपए का बनता था है। क्या तुम इतना भी नहीं जानते?
सर! मैंने तो ओटो का भाड़ा चालीस रूपए ही दिया है। मैं अधिक भाड़ा कैसे ले सकता हूं? अधिकारी के बार-बार समझाने पर भी वह अपनी बात पर अडिग रहा। अनीति का धन लेना यानी कंपनी के साथ धोखा। बचपन में मां ने नीति का ही पाठ पढ़ाया था। अधिकारी उससे ज्यादा न उलझा।

उसने प्रतिष्ठान के बड़े अफसर से मुलाकात करनी चाही। अपने केबिन से बाहर निकल ही रहा था कि द्वार पर खडे दो-चार कर्मचारियों ने कहा, 'क्यों, यार, हमारे पेट पर लात मारते हो?' वाउचर सौ रूपए का बनाते तो तुम्हारा क्या घिस जाता? मगर उसने सुनी अनसुनी कर दी। सीधा बड़े साहब के केबिन में गया। सारी घटना कह सुनाई। बड़े साहब ने तो उसकी ईमानदारी की भूरि भूरि प्रशंसा की।

उसी शाम को चपरासी द्वारा पीले रंग का लिफाफा मिला। उसमें लिखा था। प्रतिष्ठान को आपकी जरूरत नहीं है। और वो बेचारा हाथ मे लिफाफा पकडे माँ (को)के बताए नीति वचनो को कोसने लगा.
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रफ़्तार