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गुरुवार, 3 जून 2010

सोच रहा हूँ कि क्या लिखा जाए और क्यूँ लिखा जाए !!!

अब इसे मौसम का असर कहा जाए कि माहौल का; पता नहीं क्यों अब कुछ भी लिखने पढने को मन ही नहीं करता. शायद ब्लागिंग का वो पहले वाला रस अब चला गया है. पहले कभी कुछ लिखते थे तो चाहे उसे पढने वालों को बेशक आनन्द न आए लेकिन हमें लिखने में तो खूब आया करता था. लेकिन अब वो बात नहीं रही........अब पहले तो लिखने का कुछ मन ही नहीं करता, अगर कहीं अनमने भाव से ही सही लिखने बैठ भी गए तो यूँ लगता है कि मानो शब्द हडताल पर उतर आए हों.....एकदम विचार शून्यता की स्थिति.
आज ही की बात है, बेमन से लिखने बैठे भी तो ऎसा कोई विषय ही नहीं सुझाई दिया कि जिसपर कुछ देर खिटरपिटर की जा सके. न जाने कितनी देर यूँ ही बैठे बैठे कभी डैशबोर्ड को देखता, कभी की-बोर्ड की ओर तो कभी मूषक महाराज की ओर लेकिन तीनों ढाक के तीन पात की तरह अलग ही नजर आते. इन तीनों का अस्तित्व मुझे बिल्कुल ही विरोधी जान पडने लगा. मैनें कीबोर्ड से कईं बार हाथों का स्पर्श कराया; पर कुछ काम न बना.
न जाने देवी, देवता, पितर वगैरह किन किन का स्मरण करके देख लिया लेकिन किसी को भी तरस न आया. कम से कम एक घंटा यूँ ही कभी माऊस, कभी की-बोर्ड तो कभी डैशबोर्ड को देखते बीत गया, लेकिन जैसा कि न तो कुछ लिखा जाना था, ओर न ही लिखा गया. उल्टे इस एक घंटे की अवधि में चार कप चाय और तीन गिलास पानी जरूर गटक लिए, सोचा कि शायद किसी तरह से दिमाग की अकर्मन्यता दूर हो; पर सब उपचार व्यर्थ गए. परेशान होकर एक दो बार सोचा भी कि छोडो यार! कम्पयूटर बन्द करके सोया जाए...क्या रखा है इस झंझट में; पर "जब तक साँस तब तक आस" ने वो भी न करने दिया.
कहते हैं कि जब मनुष्य निरूपाय हो जाता है तो फिर वो मूर्खता पर कमर कसता है. कभी कभी ऎसा भी समय आ जाता है कि जब अच्छे अच्छे विद्वानों की बुद्धि मात खा जाती है, तो भला हमारी क्या बिसात. हम तो यूँ भी कभी अपने आपको कोई खास समझदार नहीं समझते.
मैने जब अच्छी तरह देख लिया कि अब कोई चारा नहीं, दिमाग में कैसा भी कोई आईडिया आ ही नहीं रहा तो अब एक ही हल है कि नैट से कोई एक ऊलजलूल सी तस्वीर खोजकर, उसका कोई आलतू फालतू सा शीर्षक देकर ही एक पोस्ट ठेल दी जाए. ज्यों ज्यों मैं गौर करता गया, मुझे एक यही विचार समायोजित और उपयुक्त जान पडने लगा. कारण ये कि इसमें नुक्सान तो कुछ था ही नहीं; टिप्पणियाँ तो अपने को उस पर भी मिल ही जानी है. आखिर अपने भी तो कुछ बन्धे बँधाए ग्राहक हैं ही:).......भले ही बेशक भाई लोग झूठमूठ की वाह! वाह्! बहुत बढिया! जैसी टिप्पणियाँ चिपका के चलते बने(वैसे भी यहाँ कौन किसी की सच्ची तारीफ करता है) ओर बाद में मन ही मन कुढते रहें ओर पोस्ट को बकवास करार देकर जी भर गालियाँ निकालें या कि टिप्पणी देने की मजबूरी को कोसें.......क्या फर्क पडने वाला है! वैसे भी अपना काम तो हो गया.......एक पोस्ट ठेलनी थी, ठेल दी..बस! चलते हैं---जै राम जी की! :-)
कहते हैं कि किसी लेखक के लिए उसके पाठक गुरू समान होते है,जो उसके लेखन को दिशा प्रदान करते हैं; ओर ये भी सुना है कि गुरू लोगों के दिल दरिया में अक्सर दया की मौजें उठा करती हैं :-)

शनिवार, 29 मई 2010

मनोविज्ञान---मन का विज्ञान या आत्मा का ?

मनोविज्ञान अर्थात मन का विज्ञान । शाब्दिक अर्थ यानि अध्ययन की वह शाखा जो कि मन का अध्ययन करती है । जिसे कि अंग्रेजी में साईकोलोजी(psychology) कहा जाता है । इस शब्द की उत्पति यूनानी भाषा के दो शब्दों साईकी ( psyche) तथा लोगस (logos) से मिलकर हुई है ।  साईकी का अर्थ होता है ---आत्मा(soul ) तथा लोगस का अर्थ है---अध्ययन ( study ) ।
इसका शाब्दिक अर्थ हुआ---आत्मा का अध्ययन । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि साईकोलोजी शन्द की उत्पति अध्ययन के उस क्षेत्र को इंगित करने के लिए हुई थी--जिससे कि आत्मा का ज्ञान प्राप्त किया जा सके । परन्तु वर्तमान समय में मनोविज्ञान और साईकोलोजी इन दोनों शन्दों के शाब्दिक अर्थों को स्वीकार नहीं किया जाता है । वास्तव में शताब्दियों पूर्व मनोविज्ञान का प्रयोग दर्शन शास्त्र की एक अलग शाखा के रूप में हुआ था । परन्तु आधुनिक काल में हुए परिवर्तनों के फलस्वरूप धीरे धीरे मनोवैज्ञानिकों नें इस विषय को दर्शन शास्त्र से बिल्कुल पृ्थक ही कर डाला, जो कि आज एक स्वतंत्र विषय के रूप में स्वीकार किया जाता है । दर्शन शस्त्र से अलग होने के क्रम में इसके अर्थ में अनेकों बार परिवर्तन हुए ।
1. आत्मा के विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान :- यदि आज से शताब्दियों पूर्व प्रश्न किया जाता कि मनोविज्ञान क्या है ? तो संभवत: इसका उत्तर यही मिलता,जैसा कि पहले इसके शाब्दिक अर्थ में मैं आपको बता चुका हूँ । अरस्तु,प्लेटो,डेकार्ट इत्यादि विद्वान यूनानी दार्शनिकों ने इसे उसी आत्मा के अध्ययन की विद्या के रूप में स्वीकार किया है । मनोविज्ञान की यह परिभाषा 16वीं शताब्दी तक प्रचलित रही, लेकिन बाद में आत्मा की प्रकृ्ति के संबंध में शंकाए उत्पन होने लगी तथा तात्कालीन मनोवैज्ञानिक( दार्शनिक) आत्मा की स्पष्ट परिभाषा, उसके स्वरूप, आकार-प्रकार, उसकी स्थिति तथा आत्मा के अध्ययन करने की विधियों को स्पष्ट करने में असफल रहे । परिणामत: 16वीं शताब्दी में मनोविज्ञान की इस परिभाषा को अस्वीकार कर दिया गया । आत्मा के विषय को अस्वीकृ्त करने के पश्चात इसे मस्तिष्क विज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया । दूसरे शब्दों में उन्होने मनोविज्ञान को अध्ययन का वह क्षेत्र माना जिसके जरिए मस्तिष्क या मन का अध्ययन किया जा सके । परन्तु मस्तिष्क के अर्थ के सम्बंध में भी वही कठिनाई हुई जो कि आत्मा  के विषय में थी । मनोवैज्ञानिक मस्तिष्क की भी प्रकृ्ति तथा स्वरूप को स्पष्ट रूप से निर्धारित न कर सके । किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंच पाने के कारण मनोविज्ञान की यह परिभाषा भी शीघ्र ही अमान्य हो गई ।
उसके कुछ समय पश्चात इसे चेतना के विज्ञान के रूप में जाना जाने लगा । विलियम जेम्स, विलियम वुड और जेम्स सली इत्यादि मनोवैज्ञानिकों नें इसे चेतन विज्ञान के रूप में ही स्वीकार किया है । लेकिन ये लोग भी चेतन शब्द के अर्थ तथा स्वरूप के सम्बंध में एकमत न हो सके । क्यों कि चेतन क्रियायों पर अर्द्धचेतन व अचेतन क्रियायों का प्रभाव भी होने के कारण गम्भीर मतभेद उत्पन होने लगे तथा इसे मनोविज्ञान की एक अपूर्ण परिभाषा माना जाने लगा । परिणामत: सीमित अर्थ होने के कारण मनोविज्ञान की यह परिभाषा भी अमान्य हो गई ।
बीसवीं शताब्दी में जाकर मनोविज्ञान को व्यवहारिक विज्ञान के रूप में स्वीकार किया जाने लगा । वाटसन,वुडवर्थ इत्यादि मनोवैज्ञानिकों नें इसे व्यवहार का एक निश्चित विज्ञान ही स्वीकार किया है ।
स्पष्ट है कि मानव जाति के ज्ञान में वृ्द्धि के साथ साथ मनोविज्ञान के अर्थ में कईं परिवर्तन आए ।
वुडवर्थ के शब्दों में कहा जाए " सर्वप्रथम मनोविज्ञान ने अपनी आत्मा का त्याग किया, फिर मस्तिष्क का, उसके बाद इसने अपनी चेतना का भी त्याग कर डाला, अब यह व्यवहार की विधि को स्वीकार करता है " ।
first psychology lost its soul, then mind, then it lost its consciousness, it still has behaviour of sort .
यानि कि हम कह सकते हैं कि आधुनिक मनोविज्ञान आज उस स्तर पर खडा है, जहाँ आकर वो आत्मा, मस्तिष्क और चेतना--इन तीनों शक्तियों से हीन हो चुका है......
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रफ़्तार