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बुधवार, 16 जून 2010

ब्लागरोत्थान की कोचिंग क्लास

पार्क की एक बैन्च पर तीन मित्र बैठे है, मिश्रा, अनोखेलाल और चौबे----तीनों ही हिन्दी के ब्लागर. अब ये आपके सोचने पर है कि आप चाहे तो इसे किसी ब्लागर मीट का नाम दें या मित्रों की आपस की गुफ्तगू. अब इनमें मिश्रा और अनोखेलाल तो थे ब्लाग की दुनिया के पुराने पापी यानि कि तजुर्बेकार ब्लागर और इनके मित्र श्रीमान चौबे ब्लागिंग के नए नए रंगरूट. जिन्हे इस अद्भुत संसार में आए हुए ही मुश्किल से जुम्मा जुम्मा चार दिन ही हुए होंगें ओर इन्हे इस जंगल में धकेलने वाले भी यही दोनो मित्र थे....मिश्रा और अनोखेलाल.
तो जी, पार्क में ब्लागर मीट माफ कीजिएगा मित्रों की गुफ्तगू चल रही है. जहाँ मिश्रा और अनोखेलाल खूब प्रसन्न एवं गर्वित भाव से अपनी अपनी पोस्टें, उन पर सावन की बरसात की माफिक झमाझम बरसती टिप्पणियों, अपनी सीनियोरटी, फालोवर संख्या, सक्रियता क्रमांक, ब्लाग ट्रैफिक, अलैक्सा रैंक इत्यादि गहन विषयों पर विचारमग्न थे, वहीं बेचारे चौबे जी मुँह लटकाए उनके धीर च गम्भीर वार्तालाप को समझने के अफसल प्रयास में लगे हुए थे. जब इत्ती देर बीत जाने के बाद भी उनके कुछ पल्ले न पडा तो श्रीमान चौबे बातों का रूख अपनी ओर मोडने के लिए बीच में बोल पडे " मिश्रा जी, पता नहीं आप लोग किस बात पर इसकी शान में कसीदे पढते रहते हैं, जब कि हमें तो ब्लागिंग में आकर ऎसा कुछ खास मजा नहीं आया"
"क्यूँ भाई तुम्हें ऎसा क्यूँ लगा कि ब्लागिंग में कोई रस नहीं है" मिश्रा जी नें हैरान हो सवाल पूछ डाला.
" आप ही देखिए! हमें यहाँ आए हुए पूरे पन्द्रह दिन हो गए. इन पन्द्रह दिनों में हमने हर रोज साहित्य की किसी न किसी विधा पर रोजाना कम से कम एक पोस्ट लिखी है. ये तो अपने अनोखेलाल जी है जो हमारी हर पोस्ट को बडे चाव से पढकर टिप्पणी से नवाज जाते हैं. वर्ना तो आज तक हमारे ब्लाग पर कोई कुता तक भी झाँकने नहीं आया. पढना और पढ्कर टिप्पणी देना तो बहुत दूर की बात है. हाँ जिस दिन हमने ब्लाग लिखना शुरू किया था, उस दिन पहली पोस्ट पर जरूर साहित्यप्रेमियों की लाईन लगी हुई थी. कोई कह रहा था कि आपका हिन्दी ब्लागजगत में स्वागत है. हम आपकी विद्वता को नमन करते हैं. कोई कहे हिन्दी के उत्थान हेतु इस ब्लॉग जगत को आप जैसी प्रतिभाओं की बहुत जरूरत है.--- हम भी फूल कर कुप्पा हुई जा रहे थे कि वाह्! इन्हे कहते हैं साहित्यप्रेमी! विद्वता के सच्चे पारखी! लेकिन वो दिन है ओर आज का दिन उन लोगों में से एक जन भी दुबारा से ब्लाग पर झाँकने नहीं आया. यूँ गायब हुए मानो गधे के सिर से सींग. भाई हमने बिलाग पे काँटे बिखेर रखे हैं क्या जो किसी को चुभ जाएंगें" श्रीमान चौबे जी न जाने किस रौ में बहे अपनी पीडा का इजहार करते चले गए.
"लगता है आप अभी हिन्दी ब्लागिंग के तौर तरीकों से पूरी तरह से वाकिफ नहीं हैं. बताईये भला सिर्फ निरे लेखन के बूते भी भला यहाँ कोई टिक पाया है!" मिश्रा जी नें भी अपनी अनुभवशीलता की झलक दिखला ही दी.

अनोखे लाल जी भी झट से बोल पडे " अजी मिश्रा जी! अब क्या बतायें. इस बारे में ये हमारी बात तो सुनते ही नहीं. मैने सैंकडों दफे इन्हे समझाया कि भाई किसी बडे नामचीन से ग्रुप से जुड जाओ. थोडी बहुत चमचागिरी करनी सीख जाओ तो तुम्हारा भी कुछ भला हो जाए. लेकिन नहीं, ये महाश्य तो बात सुनते ही भडक जाते हैं. कहते हैं" मैं किसी की खुशामद करके ब्लाग चमकाने से ब्लाग न लिखना बेहतर समझूँगा" अब आप ही देखिए मिश्रा जी, आज के जमाने में ये कैसी दकिसानूसी सोच रखे हुए हैं "
मिश्रा जी कुछ न बोले, लेकिन इतना जरूर समझ गए कि इस भले आदमी पर आदर्शवाद का कच्चा रंग चढा हुआ है. बिना बारिश के धुलने वाला नहीं. और जब तक यह रंग नहीं उतरेगा तब तक ब्लागिंग में इन्हे कोई पूछने वाला भी नहीं.
खैर मिश्रा जी चौबे महाश्य को अकेले में एक तरह ले गए और बहुत देर तक पता नहीं क्या कुछ समझाते रहे. अब ये तो नहीं पता कि उन दोनों में क्या बाते हुईं लेकिन चौबे जी की मुखमुद्रा देख कर आभास हुआ कि मिश्रा जी की समझाईश कामयाब रही.
अपना अनुभवजन्य ज्ञान बाँटने के बाद मिश्रा जी अनोखेलाल के पास आए और कहने लगे "अनोखेलाल जी, समझिए कि मैने इन्हे ब्लागिंग शास्त्र का सम्पूर्ण पाठ पढा दिया है. किसी आवश्यक कार्य के कारण मैं अभी कुछ दिन ब्लागिंग से दूर हूँ. अब ये आपके जिम्मे रहा कि आप कुछ दिन तक इनके व्यवहारिक ज्ञान की प्रोगरेस रिपोर्ट निरन्तर मुझे ईमेल करते रहें.
कुछ दिनों तक अनोखेलाल जी ने इस नए रंगरूट के क्रियाकलापों को परखा और पहली रिपोर्ट मिश्रा जी को वाया ईमेल भेज दी " थोडे बहुत झटके खाकर और एक दो जगह लतियाये जाने के बाद अब चौबे महाश्य जय गुरूदेव! जय गुरूदेव! भजते व्यवहारिकता की पहली सीढी चढ गए हैं. कईं नामी ग्रुपबाजों के यहाँ रोजाना हाजिरी भरने तो जाते हैं,लेकिन अभी तक किसी की कृ्पादृ्ष्टि हो नहीं पाई. किन्तु चिन्ता की कोई बात नहीं खुशामद से तो देवता तक प्रसन्न हो जाते हैं, ये तो फिर भी हिन्दी के ब्लागर है. चाटुकारिता की महिमा अपरम्पार है. ब्लागेश्वर जल्द ही इन पर कृ्पा करेंगें"

खैर चौबे जी खुशामद का सहारा ले पहली सीढी तो चढ चुके. अब देखना सिर्फ ये बाकी है कि कब तक अन्तिम पायदान तक पहुँच पाते हैं....बाकी, ट्रेनिंग तो उनकी अभी चल ही रही है.......:)

सोमवार, 3 मई 2010

हिन्दी ब्लागिंग और टिप्पणियों का हिसाब-किताब (हास्य कथा)

(दरवाजे पर दस्तक की आवाज)
ललित शर्मा:- अरी ओर भगवान! जरा देखना तो सही कौन नासपीटा इतनी सुबह सुबह दरवाजा खटकटा रहा है।
(इतनी देर में फिर से दरवाजे पर ठक ठक की आवाज सुनाई देने लगी)
ललित:- (खीझ कर) तुम मत सुनना! मुझे ही उठना पडेगा। हाँ भाई बोलो तो सही कौन हो। भई हमसे कोई गलती हो गई क्या जो इतनी सुबह सुबह दरवाजा ही तोडने पर तुले हो।
आगन्तुक:- अरे भाई पहले दरवाजा तो खोलिए! क्या बाहर से ही टालने का इरादा है।
ललित शर्मा:- ठहरिए आता हूँ!
"अरे वाह्! मिश्रा जी.....आईये आईये...धन्यभाग हमारे जो आप पधारे! आईये बैठिए...
मिश्रा जी आसन ग्रहण कर लेते हैं तो ललित जी अपनी धर्मपत्नि को आवाज लगाते हैं। "अरी ओ भागवान! जरा इधर तो आना..."
श्रीमति आती हैं तो ललित जी बडे हर्षित मन से उनका मिश्रा जी से परिचय कराते हैं।" देख आज हमारे ब्लागर मित्र मिश्रा जी आए हैं...जा जरा जल्दी बढिया से चाय-नाश्ते का प्रबन्ध कर.." सुनते ही श्रीमति जी रसोई की ओर प्रस्थान कर लेती हैं और इधर ललित जी अपने ब्लागर मित्र मिश्रा जी से वार्तालाप में व्यस्त हो जाते हैं।
"अच्छा मिश्रा जी! ये तो बताईये कि अचानक कैसे आना हो गया...न कोई सूचना, न फोन"
मिश्रा जी:- भई बात ये है कि हम आज आपसे अपना हिसाब किताब क्लियर करने आए हैं।
सुनते ही ललित जी हैरान, "हिसाब! अजी मिश्रा जी कैसा हिसाब ? हमने आपसे कौन सा लोन ले रखा है जो आप हमसे वसूल करने आए हैं।
अब पता नहीं इनके मन में क्या आया कि इन्होने धर्मपत्नि को आवाज देकर चाय नाश्ता भेजने से मना कर दिया। " जरा ठहर जाओ, चाय नाश्ता अभी मत भेजना..."
भई मिश्रा जी साफ साफ कहिए, हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि आप किस हिसाब किताब की बात कर रहे हैं"
मिश्रा जी अपनी जेब से एक नोटबुक निकालते हैं और उसके पन्ने उलटते हुए बोलते चले जाते हैं...."बात ये है कि पिछले कईं दिनों से मैं आपको फोन करके कहने भी वाला था, लेकिन फिर ये सोचकर रूक गया कि कुछ दिनों बाद मेरा रायपुर जाना होगा ही, सो उसी समय आमने सामने बैठ कर ही क्लियर कर लेंगें"
भई क्या क्लियर कर लेंगें ? कुछ पता तो चले....आप तो पहेलियाँ बुझाए चले जा रहे हैं"
"भई बताता हूँ, जरा रूकिए तो सही.....अच्छा ये बताईये कि ब्लागिंग में रहते हम लोगों को आपस में जुडे हुए एक साल से अधिक तो हो ही चुका है न ?"
"जी हाँ, बिल्कुल! आप तो हमारे नजदीकी मित्रों में से हैं"
"वो सब तो ठीक है! मित्रता अपनी जगह है और हिसाब किताब अपनी जगह"
"अरे! फिर वही बात! भाई कौन सा हिसाब किताब ?"
मिश्रा जी अपने हाथ में पकडी नोटबुक ललित शर्मा के आगे कर देते हैं। ये देखिए पिछले एक साल में हमने आपकी जिस जिस पोस्ट पर जब जब टिप्पणी की है, उन सबका हिसाब इसमें लिखा हुआ है। ये देखिए कुल 420 टिप्पणियाँ हमारे द्वारा की गई हैं, ओर ये इधर देखिए साल भर में हमारी पोस्टों पर आपने कुल कितनी टिप्पणियाँ की हैं, महज 136. अभी ले देकर आपकी तरफ हमारी 284 टिप्पणियाँ बकाया रहती हैं। लेकिन आप हैं कि लौटाने का नाम ही नहीं ले रहे। अभी कुछ दिनों से हमारी किसी भी पोस्ट पर आपकी कोई टिप्पणी नहीं आ रही...जब कि हमारी टिप्पणी रोजाना आपको पहुँच रही है। भाई ऎसा कैसे चलेगा?
"अरे मिश्रा जी! क्या बताएं आपको, आजकल बस कुछ समय ही नहीं मिल पा रहा.......वर्ना आपकी पोस्ट पर हम न टिप्पयाएं, ऎसा भला कभी हो सकता है."
"अरे वाह्! ये भी खूब कही...हमारी पोस्ट पढने के लिए आपके पास समय नहीं होता....ओर बाकी दिन भर जो 365 ब्लागों की कमेन्ट सूची में आपकी ये बनवारी लाल सरीखी मूच्छों वाली फोटू चस्पा मिलती है, वो शायद कोई जादू मन्तर से लग जाती होगी"
"ओह हो! अजी छोडिए भी इन बातो को... कुछ ओर सुनाईये"
"अरे ऎसे कैसे छोड दें....क्या हमारा समय फालतू का है जो हम आपको टिप्पणियाँ देने में खर्च करते हैं? क्या सरकार की ओर से बिजली हमें मुफ्त में मिलती है या इन्टरनैट सेवा कम्पनी हमारे बाबा जी की है, जिसके पैसे नहीं लगते! अगर इस जमाने में हम यूँ ही फोकट में दिन भर इन्टरनैट पर घूम घूम कर ब्लागों पर टिप्पयाते रहे न तो जल्द ही किसी गुरूद्वारे की शरण लेनी पड जाएगी। अरे भाई हम इतना समय और पैसा जो नष्ट करते हैं सिर्फ इसीलिए न कि हमें बदले में उसका कुछ प्रतिफल मिले, चाहे टिप्पणी के बदले टिप्पणी ही सही। लेकिन आप हैं कि उसमें भी धोखाधडी किए जा रहे हैं. ये तो सरासर हिन्दी ब्लागिंग के मूल सिद्धान्तों को नकारना हुआ। अगर आप अब भी इन्कार करते हैं तो हमारे पास सिर्फ दो ही रास्ते बचते हैं, या तो हम आपके खिलाफ अपने ब्लाग पर दो चार गरियाती हुई पोस्टें लिख मारें या फिर अपनी "चन्गू-मन्गू ब्लागर एसोसियशन" में अपनी शिकायत दर्ज करवाएं। अब आप ही बताईये कि हम क्या करें"
"अरे छोडिए मिश्रा जी, अच्छा चलिए आज आपकी शिकायत दूर कर देते हैं। रात भर जागकर आज आपकी सभी टिप्पणियाँ लौटा देता हूँ। अब तो खुश!"......चलिए चाय पीते हैं.....ओ भागवान!
"जी! आई!" कहते ही भाभी जी चाय नाश्ता ले आई.......मानो चाय की प्लेट थामे इन्तजार में दरवाजे के बाहर ही खडी हों...
दोनों परम मित्रों नें चाय नाश्ता किया....कुछ देर इधर उधर की बातें की और फिर मिश्रा जी दुआ सलाम करके वापिसी के लिए निकल लिए...ओर इधर ललित शर्मा जी इनका हिसाब किताब चुकता करने लैपटोप खोलकर रात भर बैठे रहे....जब सारा ऋण चुकता हो गया तो अगले दिन ही उधर से मिश्रा जी का फोन भी आ गया...आभार व्यक्त करने हेतु!
"हैल्लो! हाँ भाई ललित जी, आपकी टिप्पणियाँ वसूल पाई....इसके लिए आपका आभार. हाँ आगे से टिप्पणी साथ के साथ ही चुकता कर दिया करें. ज्यादा लम्बे चौडे हिसाब-किताब में गडबड होने का डर रहता है। अच्छा रखता हूँ, राम-राम्! भाभी जी को हमारी ओर से चरण स्पर्श कीजिएगा"
ललित जी नें फोन बन्द किया ही था कि साथ खडी उनकी श्रीमति जी पूछ बैठी--"अजी किसका फोन था?"
"वो कल जो आए थे अपने मिश्रा जी, उन्ही का था.....अरे हाँ याद आया" इतना कहते ही ललित जी नीचे को झुकने लगे.....अब पता नहीं उनकी कोई चीज गिर गई थी, जिसे कि वो उठाने के लिए झुके थे या फिर मिश्रा जी द्वारा फोन पर कहा गया अन्तिम वाक्य उन्हे याद आ गया था........राम जाने! :-)
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रफ़्तार