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शनिवार, 16 जुलाई 2011

मनुज प्रकृति से शाकाहारी

मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकानें
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें
नहीं उन्हे हैं आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं
केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं
अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

नदियों का मल खाकर खारा,
पानी पी जी रही मछलियाँ
कभी मनुज के खेतों में घुस
चरती नहीं वे मटर की फलियाँ
अत: निहत्थी जल कुमारियों
के घर जाकर जाल बिछाना
छल से उन्हे बलात पकडना
निरीह जीव पर छुरी चलाना
दुराचार है ! अनाचार है !
यह छोटी सी भूल नहीं है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है  !!

मित्रो माँस को तज कर उसका
उत्पादन तुम आज घटाओ,
बनो निरामिष अन्न उगानें--
में तुम अपना हाथ बँटाओ,
तजो रे मानव! छुरी कटारी,
नदियों मे अब जाल न डालो
और चला हल खेतों में तुम
अब गेहूँ की बाल निकालो
शाकाहारी और अहिँसक
बनो धर्म का मूल यही है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

रचनाकार:-----श्री धन्यकुमार

शुक्रवार, 24 जून 2011

क्यूंकि हर धर्म यही कहता है.........

श्रीमद्भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं----"सर्वभूत हिते रत्ता" अर्थात सम्पूर्ण भूत प्राणियों के हित में रत और सम्पूर्ण प्राणियों का सुह्रद रहो. जो शुभफल प्राणियों पर दया करने से होता है, वह फल न तो वेदों से, समस्त यज्ञों के करने से और न ही किसी तीर्थ, वन्दन अथवा स्नान-दान इत्यादि से होता है.

जीवितुं य: स्वयं चेच्छेत कथं सोन्यं प्रघात्तयेतु !
यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत !!
जो स्वयं जीने की इच्छा करता है, वह दूसरों को भला कैसे मार सकता है ? प्राणी जैसा अपने लिए चाहता है, वैसा ही दूसरों के लिए भी चाहे. कोई भी इन्सान यह नहीं चाहता कि कोई हिँसक पशु या मनुष्य मुझे, मेरे बाल-बच्चों, इष्टमित्रों वा आत्मीयजनों को किसी प्रकार का कष्ट दे या हानि पहुँचाये अथवा प्राण ले ले या इनका माँस खाये. एक कसाई जो प्रतिदिन सैकडों प्राणियों के गले पर खंजर चलाता है, आप उसको एक बहुत छोटी और बारीक सी सूईं भी चुभोयें, तो वह उसे भी कभी सहन नहीं करेगा. फिर अन्य प्राणियों की गर्दन काटने का अधिकार उसे भला कहाँ से मिल गया ?
मित्रस्य चक्षुणा सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे !!
हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें. इस वेदाज्ञानुसार सब प्राणियों को मित्रवत समझकर सेवा करें, सुख दे. इसी में जीवन की सफलता है. इसी से यह लोक और परलोक दोनों बनते हैं.

फिर दूसरों के प्रति हमें वैसा बर्ताव कदापि नहीं करना चाहिए, जिसे हम अपने लिए पसन्द न करें. कहा भी है, कि------"आत्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत". लेकिन देखिए दुनिया में कितना बडा विरोधाभास है, जहाँ एक ओर हम भगवान से "दया के लिए" प्रार्थना करते हैं और वहीं दूसरे प्राणियों के प्रति क्रूर हो जाते हैं-------How is that man who prays for money, is himself not merciful towards other fellow beings.


इस्लामिक धर्मग्रन्थ कुरआन शरीफ का आरम्भ ही "बिस्मिल्लाह हिर रहमान निर रहीम" से होता है. जिसका अर्थ है कि खुदा रहीम अर्थात "सब पर रहम" करने वाला है. इनके अनुनायियों के मुख से भी सदैव यही सुनने को मिलता है कि अल्लाह अत्यन्त कृपाशील दयावान है .वही हर चीज को पैदा करने वाला और उसका निगहबान(Guardian ) है. अब जीभ के स्वाद के चक्कर में मनुष्य उस "निगहबान" की देखरेख में उसी की पैदा की हुई चीज की हत्या करे, तो क्या यह अत्यन्त विचारणीय प्रश्न नहीं ?

श्री अरविन्द कहते रहे हैं कि-----"जो भोजन आप लेते हैं, उसके साथ न्यूनाधिक मात्रा में उस पशु की जिसका माँस आप निगलते हैं, चेतना भी लेते हैं"

भगवान बुद्ध नें "माँस और खून के आहार" को अभक्ष्य और घृणा से भरा और 'मलेच्छों द्वारा सेवित' कहा है.  

सिक्ख धर्म के जनक गुरू नानक देव जी कहते हैं-----"घृणित खून जब मनुष्य पियेगा, तो वह निर्मल चित्त
भला कैसे रह सकेगा."

पारसी धर्म के प्रणेता जोरास्टर नें कसाईखानों को पाप की आकर्षण शक्ति का केन्द्र बताया है और हिब्रू धर्म के सन्त इजराइल कहते हैं----" जब तुम बहुत प्रार्थना करते हो, मैं उन्हे नहीं सुनूँगा, क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से रंगे हैं". चीनी विद्वान कन्फ्यूनिस नें भी जहाँ "पशु आहार को संसार का सर्वाधिक अनैतिक कर्म" कहा है, वहीं रामकृष्ण परमहँस का कहना है, कि-----"सात्विक आहार-उच्च विचार मनुष्य को परम शान्ति प्रदान करने का एकमात्र साधन है".

भगवान महावीर नें अहिँसा को "अश्रमों का ह्रदय", "शास्त्रों का गर्भ" (Nucleous) एवं "व्रत-उपवास तथा सदगुणों का पिंडी भूतसार" कहा है. और संसार में जितने प्राणी है, उन सबको जानते हुए या अनजाने में भी कोई कष्ट न देना ही धर्म का एकमात्र मूल तत्व है.

आपने देखा कि मनुष्य जाति के इतिहास में शायद ही कोई ऎसा धर्म अथवा धर्मशास्त्र होगा, जिसमें अहिंसा को सबसे ऊँचा स्थान न दिया गया हो. लेकिन इन्सान, जो कि अपने स्वयं का आसन इस संसार के अन्य समस्त प्राणियों से कहीं ऊँचा समझता है. क्या उस पर बैठकर उसे अपने खानपान का इतना भी विवेक नहीं कि वह सही मायनों में मानव बनना तो बहुत दूर की बात रही, एक पशु से ही कुछ सीख ले सके. एक पशु भी इस बात को अच्छी तरह समझता है कि उसके लिए क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य. उसे कोई सिखानेवाला नहीं है, फिर भी वो अपने आहार का उचित ज्ञान रखता है, परन्तु इन्सान पशु से भी इतना नीचे गिर गया है कि दूसरों के द्वारा परामर्श दिए जाने पर भी वह अपने को उसी रूप में गौरवशाली समझता है. क्या एक समझदार आदमी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वो अपना पौरूष अपने से निर्बल प्राणी को मारकर अथवा उसे खाकर ही दिखाये ?. विधाता नें इन्सान के खाने के लिए स्वादु मधुर, पौष्टिक, बुद्धिवर्धक और हितकर इतने पदार्थ बना रखे हैं कि उनको छोडकर एक निकृष्ट अभक्ष्य पदार्थ पर टूट पडना कहाँ तक उचित है ?

यह कहना सर्वथा उचित ही होगा कि माँसाहार को छोड देने वाला व्यक्ति अन्य अनेक प्रकार की बुराईयों से भी स्वत: ही मुक्त हो जायेगा. इसलिए मेरा यही कहना है कि जो लोग इस बुराई से दूर रहे हैं, उनकी अपेक्षा वे लोग कहीं अधिक साहसी माने जायेंगें, जो इस लत को लात मारकर निरीह पशुओं के आँसू पोंछेंगें.
पक्षी और चौपाये सब मार-मार के खाय,
फिर भी सगर्व खुद को इन्सान कहाये !
बन के मर्द बहादुरी, बकरों-मुर्गों पर दिखलाये !
क्यूं  तुझे लाज नहीं आये ?

गुरुवार, 31 मार्च 2011

माँसाहार अर्थात वैश्विक अशान्ति का घर

माँसाहार को अगर "अशान्ति का घर" कहा जाये, तो शायद कुछ गलत नहीं होगा. डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें एक बार कहा था कि "अगर संसार में शान्ति कायम करनी है तो उसके लिए दुनिया से माँसाहार को समाप्त करना होगा. बिना माँसाहार पर अंकुश लगाये ये संसार सदैव अशान्ति का घर ही बना रहेगा".

डा. राजेन्द्र प्रसाद जी नें कितनी सही बात कही है. ये कहना बिल्कुल दुरुस्त है कि माँसाहार के चलते दुनिया में शान्ति कायम नहीं रह सकती. शाकाहारी नीति का अनुसरण करने से ही पृथ्वी पर शान्ति, प्रेम, और आनन्द को चिरकाल तक बनाये रखा जा सकता है, अन्यथा नहीं.
पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किघली का भी कुछ ऎसा ही मानना है. उनके शब्दों में कहा जाए, तो " यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिँसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है".

आज जहाँ शाकाहार की महत्ता को स्वीकार करते हुए माँसाहार के जनक पश्चिमी राष्ट्रों तक में शाकाहार को अंगीकार किया जाने लगा है, उसके पक्ष में आन्दोलन छेडे जा रहे हैं, जिसके लिए न जाने कितनी संस्थायें कार्यरत हैं. पर अफसोस! भगवान राम और कृष्ण के भक्त, शाकाहारी हनुमान जी के आराधक, भगवान महावीर के 'जितेन्द्रिय', गुरू नानक जी के निर्मल चित्त के चित्तेरे, कबीर के 'अविनाशी' पद को प्राप्त करने की परीक्षा में लगे हुए साधक, महर्षि दयानन्द जी के अहिँसक आर्य समाजी और रामकृष्ण परमहँस के 'चित्त परिष्कार रेखे' देखने वाले इस देश भारत की पावन भूमी पर "पूर्णत: शुद्ध शाकाहारी होटलों" को खोजने तक की आवश्यकता आन पडी है. आज से सैकडों वर्ष पहले महान दार्शनिक सुकरात नें बिल्कुल ठीक ही कहा था, कि-----"इन्सान द्वारा जैसे ही अपनी आवश्यकताओं की सीमाओं का उल्लंघन किया जाता है, वो सबसे पहले माँस को पथ्य बनाता है.". लगता है जैसे सीमाओं का उल्लंघन कर मनुष्य 'विवेक' को नोटों की तिजोरी में बन्द कर, दूसरों के माँस के जरिये अपना माँस बढाने के चक्कर में लक्ष्यहीन हो, किसी अंजान दिशा में घूम रहा हो.......

आईये हम माँसाहार का परिहार करें-----"जीवो जीवस्य भोजनं" अर्थात जीव ही जीव का भोजन है जैसे फालतू के कपोलकल्पित विचार का परित्याग कर "मा हिँसात सर्व भूतानि" अर्थात किसी भी जीव के प्रति हिँसा न करें----इस विचार को अपनायें.

माँस एक प्रतीक है---क्रूरता का, क्योंकि हिँसा की वेदी पर ही तो निर्मित होता है माँस. माँस एक परिणाम है "हत्या" का, क्योंकि सिसकते प्राणियों के प्रति निर्मम होने से ही तो प्राप्त होता है--माँस. माँस एक पिंड है तोडे हुए श्वासों का, क्योंकि प्राण घोटकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस. माँस एक प्रदर्शन है विचारहीन पतन का, क्योंकि जीवों के प्रति आदर( Reverence of Life) गँवाकर ही तो प्राप्त किया जाता है--माँस.
इसके विपरीत शाकाहार निर्ममता के विपरीत दयालुता, गन्दगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, कष्ट देने के विपरीत क्षमादान, जीने का तर्क एवं मानसिक शान्ति का मूलाधार है. 

अब ये आप को सोचना है कि क्या आप अब भी माँस जैसे इस जड युगीन अवशेष से अपनी क्षुधा एवं जिव्हा लोलुपता को शान्त करते रहना चाहेंगें....................
www.hamarivani.com
रफ़्तार