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रविवार, 14 दिसंबर 2008

बाबा जी की कृपा

राधा जिसके विवाह को हुए चार साल बीत चुके थे, किन्तु विधाता का खेल देखिए कि बेचारी की अभी तक गोद सूनी ही थी.
आस पडोस,नाते रिश्तेदारों में सुगबुगाहट होने लगी. बांझ, निपूति, अपशकुनी जैसे अलंकारों से उसे नवाजा जाने लगा.
उसने भी दवा-बूटी,पूजा-पाठ,व्रत-उपवास सब करके देख लिया,लेकिन कोई आस नहीं जगी.
उसकी सास जो कि एक 'बाबा' जी की अनन्य भक्त थी, उनके पास चलने के लिए उसे अक्सर मजबूर किया करती।
‘‘बहू! मेरी भी इच्छा है कि मैं अपने इकलौते बेटे के घर बच्चा देखूं। आखिर खानदान को चलाने वाला भी तो कोई होना चाहिए’’

एक दिन सास के ज्यादा मजबूर करने पर राधा ने हाँ कर दी। डरी–सहमी राधा अपनी सास के साथ बाबा जी के डेरे जा पहुँची। काफी समय इंतजार करने के बाद अंदर कमरे में दर्शनों के लिए बुलाया गया। बाबा के साथ उसकी सास ने कुछ बातचीत की। इतने में बाबा के शिष्यों ने ना मालूम उसे किस चीज का धुआँ देना शुरू कर दिया। पता नहीं धुएँ में क्या मिला हुआ था कि उसकी आँखें धीरे–धीरे बंद होनी शुरू हो गई। बेहोशी छाने लगी ओर आखों के सामने नीले–पीले रंग तैरने लगे।

राधा जब होश में आई तो उसे अपना सिर भारी भारी लगा। बदन टूटता सा महसूस हुआ आंखे खोलकर देखा तो कमरे में हल्का सा अंधेरा था। उसने मिचमिचाती आँखों को जोर लगा कर खोलने की कोशिश की। अपने आप को नग्न अवस्था में पाकर, उसकी एकदम चीख निकल गई। उसने चकराते सिर से जल्दी–जल्दी कपड़े पहने और बाहर निकल आई। उसकी सास घुटनों में सिर दिए बैठी थी, रोती आँखों से अपनी सास की तरफ घूरकर देखा। सास ने उसे गले लगा लिया तो राधा सुबक सुबक कर रोने लगी।

‘‘हिम्मत कर बेटी औरत को औलाद की खातिर पता नहीं क्या क्या सहना पडता हैं। तेरा पति भी तो बाबा जी की कृपा से ही हुआ है।’’
बर्फ हुई राधा धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी।
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रफ़्तार