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सोमवार, 25 जुलाई 2011

उफ्!

एक ओर जयचन्दी इरादे हैं, तो दूसरी ओर दिलोदिमाग में ढेर सारी चिन्ताएं और गुस्सा लिए एक आम इन्सान की आम जिन्दगी. इस समय जो कुछ हो रहा है, वही एकमात्र सच है और जिस ढंग से हो रहा है, शायद वही आज की नैतिकता भी है. आज के इस युग में 'सत्य' और 'नैतिकता' न तो आईने की तरह ही रहे हैं और न ही किसी कसौटी की तरह, कि इन्हे किसी के चेहरे या चरित्र के सामने रख दिया जाये. किन्तु जो बेचारे ऎसा सोचते हैं, वे आज की 'सफल' जिन्दगी से अलग, एक विकलता और अकुलाहट का अनुभव कर रहे होते हैं. बस जो जितना ही संवेदनशील है, वह उतना ही इस अनुभव के बीच है.
जमाने की रफ्तार को देखा जाए तो आज बैठना किसी को नहीं है, शर्त है तो बस चलते रहने की. हर कोई चलता चले जा रहा है. पसीने से तरबतर और पस्त. जो बेचारे नहीं चल पा रहे हैं, उन्हे चलाने की कौशिशें की जा रही है, घिस्से हुए सिक्के या मुडे-तुडे फटे नोट की तरह.
सुना है कि थकान से समझ ढीली होती जाती है, और उसी अनुपात में क्रोध भी बढता जाता है. और फिर जब वो हद से अधिक बढ जाता है तो फिर उतरने के लिए रास्ते खोजा करता है. अब जिन लोगों या स्थितियों पर क्रोध है, उनका कुछ भी बिगाड पाना संभव न देखकर आदमी करे तो क्या करे ? वो बस अपने आप में सिर्फ कुढ सकता है और वह कुढ रहा है. गुस्सा, बेबसी,तंगदस्ती,थकान,कुढन,तनाव और गतिशीलता------इन सुर्खियों से तैयार शर्तनामे का हर अक्षर आज की दिनचर्या का विवरण है और इस दिनचर्या के चारों ओर फैली हुई है----लोकतान्त्रिक बाडे की विशाल दीवारे, जहाँ सब कुछ समझने की स्वतन्त्रता तो है, किन्तु कुछ भी सोच पाने के लिए फुरसत और थोडा भी कर गुजरने का साहस नहीं है. शाश्वत प्रश्न और शाश्वत मूल्य जैसी चीजों का तो नामोनिशान तक मिटाया जा चुका है. हो भी क्यों न-----आखिर आधुनिक होने के लिए मूल्यों की तिलांजली तो देनी ही पडती है.
देश, समाज, भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार, आधुनिकता, लोकतन्त्र, राष्ट्रप्रेम, मूल्य और भी न जाने क्या क्या--------उफ! कितना गडमड है न ये सबकुछ ?

ज्योतिष की सार्थकता

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

क्या आप भी सोचते हैं ???

पता नहीं आप इस तरह से सोचते हैं या नहीं, पर बात वास्तव में सोचने की ही है. घरबार, बाल-बच्चे, रोजी-रोजगार, अडोसी-पडोसी, नाते-रिश्तेदार, देश-दुनिया और तो और भगवान के होने या न होने के बारे में भी आपने जरूर सोचा होगा. लेकिन मैं कहता हूँ कि इतना सबकुछ सोचने पर भी आपने कुछ नहीं सोचा, क्यों कि जो कुछ भी आपने सोचा वो सोचा न सोचा एक बराबर है. 
दरअसल बात ये है कि जो कुछ भी हम सोचते हैं, उसे यदि सोचना कहा जाए तो हकीकत ये है कि वह सोचने की परिधि में ही नहीं आता, क्यों कि धूल से लेकर चाँद-तारों तक, 'इस' से लेकर 'उस' तक सोचते रहने पर भी हम लोग अपने बारे में जरा भर भी सोचते ही कहाँ हैं?
यूँ तो हम और आप सभी सोचने का काम करते हैं. आखिर ऊपर वाले नें दिमाग तो इन्सान को सोचने के लिए ही दिया है. अब ये हमारे ऊपर है कि हम उससे क्या सोचते हैं, कितना सोचते हैं और किस तरह से सोचते हैं. अब सोचने वाले तो एक गधे को भी किसी एक विशेष दृ्ष्टिकोण से देखकर उसके सौन्दर्य, उसके भोलेपन, उसके शरीफाना अन्दाज की सराहना करने के बारे में सोचते सोचते भी एक अच्छे खासे दार्शनिक हो सकते हैं. इसी तरह आप हिन्दी के ब्लागर होकर भी, ब्लाग पर अगढम-बगढम, कूडा कबाड छापते रहकर भी,आप चाहे तो दिनभर सक्रियता क्रमाँक, उसका आधार,सिद्धान्त, उसकी कार्यप्रणाली----साथ में अपनी(ब्लाग की) और दूसरों की क्रमाँक सँख्या आँखों के सामने रखकर चिन्तन करते रहें तो भी अपने आप में श्रेष्ठ ब्लागर होने के गुण विकसित कर ब्लागरत्व को सहज ही प्राप्त सकते हैं. पर मेरा संकेत इस तरह से सोचने की ओर नहीं है. भई आप विकासवाद के सिद्धान्तानुसार बन्दर के नूतनतम संस्करण हैं...सो, बन्दर से कुछ अधिक दिमागदार तो होंगें ही. इसलिए, इस दशा में सोचना भी आपके लिए लाजिमी ठहरा.  लेकिन एक बात जो तय है कि सारी दुनिया जहान की सोचते सोचते भी कुछ तो सोचना हमेशा बाकी रह ही जाता है. आप पूछेंगें क्या ?
जरा उस समय के बारे में सोचिए जब आप अकेले बैठे हों और जम्हाई आ रही हो. उस समय बिना सोचे मुँह चौडा करके नथुना फुलाना कितना मनमोहक लगता होगा. यदि उस समय आप अपनी खुद की शक्ल देख सकें तो अपने काजल भाई या इरफान भाई के कार्टून भी फीके लगने लगेंगें. या फिर चुपचाप बैठे मूच्छ के बाल पकडकर उन्हे घुमाते रहना या नाक को अंगूठे और अँगुली का चिमटा बनाकर बार बार खीँचना----इन सबको आप सोचने की वस्तु भले ही न समझें, लेकिन मैं तो समझता ही हूँ.
आप सोचेंगें कि ये भी कहाँ कहाँ की सोचने लगे. लेकिन भाई बात सोचने की ही है. चाहे बेशक आप उसे सोचकर भी अनसोचा कर दें. यह सोचकर भी बिना सोचे-समझे मैं जो ये यहाँ लिख रहा हूँ , वह भी एक सोच में विमग्न व्यक्ति को देखकर ही. यहाँ जो कुछ भी मैने लिखा है या आपके शब्दों में कहें तो सोचा है----वह सिर्फ उस सामने बैठे व्यक्ति को देखकर ही. लेकिन अब वह उठकर चल दिया, इसलिए आगे क्या लिखा जाए बस यही सोच रहा हूँ.....तब तक आप बताईये कि पढकर आपने क्या सोचा ? :)
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रफ़्तार