हम लोगों नें उसकी यह चीज तो परख ली है. उसकी हर दिन की आशा को आशा न कह उषा, सवेरा, प्रभात, सुबह, प्रात:काल, दिन, उजाला, लालिमा वगैरह न जाने कैसे कैसे नाम जरूर इस्तेमाल करने लगे हैं. लेकिन मन के अन्धेरों को हम दूर नहीं करना चाहते. बस तिमिर को अन्दर सहेजे बैठे हैं. आज अगर हमारे वे पूर्वज होते जो इसका कारण जानने के लिए बराबर साधनाओं, तपस्यायों में जुटे रहते थे, उन्हे मैं बता देता और वें भी जान जाते कि अब उनके वंशज उलूक पूजक हो गए हैं.
हमें अब अन्धेरा अधिक प्रिय हो गया है. पर्दे के पीछे कोई कार्य बडी सफाई से हो सकता है और होता है. हम तो उसके रोज आने जाने से भी आजिज आ गए हैं. यदि वह कुछ देर करके आया करे और कुछ जल्दी चले जाया करे तो हम अधिक पसन्द करेंगें. तब हम उसके लिए धन्यवाद भी देंगें और यह भी बता देंगें कि वह घबराए नहीं, निश्चिंत रहे, हम प्रगति की ओर बढते जा रहे हैं................
I Know the Better Course But I Follow The Worse