अब इसे मौसम का असर कहा जाए कि माहौल का; पता नहीं क्यों अब कुछ भी लिखने पढने को मन ही नहीं करता. शायद ब्लागिंग का वो पहले वाला रस अब चला गया है. पहले कभी कुछ लिखते थे तो चाहे उसे पढने वालों को बेशक आनन्द न आए लेकिन हमें लिखने में तो खूब आया करता था. लेकिन अब वो बात नहीं रही........अब पहले तो लिखने का कुछ मन ही नहीं करता, अगर कहीं अनमने भाव से ही सही लिखने बैठ भी गए तो यूँ लगता है कि मानो शब्द हडताल पर उतर आए हों.....एकदम विचार शून्यता की स्थिति.
आज ही की बात है, बेमन से लिखने बैठे भी तो ऎसा कोई विषय ही नहीं सुझाई दिया कि जिसपर कुछ देर खिटरपिटर की जा सके. न जाने कितनी देर यूँ ही बैठे बैठे कभी डैशबोर्ड को देखता, कभी की-बोर्ड की ओर तो कभी मूषक महाराज की ओर लेकिन तीनों ढाक के तीन पात की तरह अलग ही नजर आते. इन तीनों का अस्तित्व मुझे बिल्कुल ही विरोधी जान पडने लगा. मैनें कीबोर्ड से कईं बार हाथों का स्पर्श कराया; पर कुछ काम न बना.
न जाने देवी, देवता, पितर वगैरह किन किन का स्मरण करके देख लिया लेकिन किसी को भी तरस न आया. कम से कम एक घंटा यूँ ही कभी माऊस, कभी की-बोर्ड तो कभी डैशबोर्ड को देखते बीत गया, लेकिन जैसा कि न तो कुछ लिखा जाना था, ओर न ही लिखा गया. उल्टे इस एक घंटे की अवधि में चार कप चाय और तीन गिलास पानी जरूर गटक लिए, सोचा कि शायद किसी तरह से दिमाग की अकर्मन्यता दूर हो; पर सब उपचार व्यर्थ गए. परेशान होकर एक दो बार सोचा भी कि छोडो यार! कम्पयूटर बन्द करके सोया जाए...क्या रखा है इस झंझट में; पर "जब तक साँस तब तक आस" ने वो भी न करने दिया.
कहते हैं कि जब मनुष्य निरूपाय हो जाता है तो फिर वो मूर्खता पर कमर कसता है. कभी कभी ऎसा भी समय आ जाता है कि जब अच्छे अच्छे विद्वानों की बुद्धि मात खा जाती है, तो भला हमारी क्या बिसात. हम तो यूँ भी कभी अपने आपको कोई खास समझदार नहीं समझते.
मैने जब अच्छी तरह देख लिया कि अब कोई चारा नहीं, दिमाग में कैसा भी कोई आईडिया आ ही नहीं रहा तो अब एक ही हल है कि नैट से कोई एक ऊलजलूल सी तस्वीर खोजकर, उसका कोई आलतू फालतू सा शीर्षक देकर ही एक पोस्ट ठेल दी जाए. ज्यों ज्यों मैं गौर करता गया, मुझे एक यही विचार समायोजित और उपयुक्त जान पडने लगा. कारण ये कि इसमें नुक्सान तो कुछ था ही नहीं; टिप्पणियाँ तो अपने को उस पर भी मिल ही जानी है. आखिर अपने भी तो कुछ बन्धे बँधाए ग्राहक हैं ही:).......भले ही बेशक भाई लोग झूठमूठ की वाह! वाह्! बहुत बढिया! जैसी टिप्पणियाँ चिपका के चलते बने(वैसे भी यहाँ कौन किसी की सच्ची तारीफ करता है) ओर बाद में मन ही मन कुढते रहें ओर पोस्ट को बकवास करार देकर जी भर गालियाँ निकालें या कि टिप्पणी देने की मजबूरी को कोसें.......क्या फर्क पडने वाला है! वैसे भी अपना काम तो हो गया.......एक पोस्ट ठेलनी थी, ठेल दी..बस! चलते हैं---जै राम जी की! :-)
कहते हैं कि किसी लेखक के लिए उसके पाठक गुरू समान होते है,जो उसके लेखन को दिशा प्रदान करते हैं; ओर ये भी सुना है कि गुरू लोगों के दिल दरिया में अक्सर दया की मौजें उठा करती हैं :-)