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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

चिट्ठाद्योग सेवा संस्थान में भर्ती हेतु आज माननीय चिट्ठाकारों का साक्षात्कार चालू आहे!!!

चिट्ठाद्योग सेवा संस्थान उन सभी आवेदनकर्ताओं का दिल से धन्यवाद करता है, जिन्होने इस संस्थान के साथ जुडकर हिन्दी चिट्ठाकारिता को समृ्द्धि प्रदान करने में अपना योगदान देने की इच्छा प्रकट की हैं। जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि रिक्त्त पदों हेतु आवेदन करने की अन्तिम समय सीमा अब समाप्त हो चुकी है। संस्थान के गुणी,विद्वान,कलामर्मज्ञ,साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी प्रबंधकों द्वारा प्राप्त सभी आवेदन पत्रों का गहन दृष्टि से अवकोलन करने के पश्चात, उनमें से कुछ आवेदनकर्ताओं को आज यहाँ साक्षात्कार हेतु आमन्त्रित किया गया है। 
सभी चयनित आवेदनकर्ता साक्षात्कार स्थल पर पहुँच चुके हैं। ओर उनसे साक्षात्कार कर रहे हैं, संस्थान द्वारा नियुक्त किए गये चयनकर्ता और इस ब्लागजगत के एक अति वरिष्ठ ब्लागर श्री राज भाटिया "जर्मनी वाले".........
सबसे पहले उम्मीदवार कविवर श्री दिगम्बर नासवा जी.......
दिगम्बर नासवा:- " मे आई कम इन, सर"
राज भाटिया:- लो ये आए अंग्रेज महाशय। भई हिन्दुस्तान में रह कर हिन्दी बोलते जुबान सूखती है क्या?
दिगम्बर नासवा:- सारी सर्! ओह! माफी चाहता हूँ। सर! मैं दुबई से आया हूँ ।
राज भाटिया:- भई माना आप दुबई से आए हैं, लेकिन हो तो हिन्दूस्तान ही न। तो फिर हिन्दी में नहीं पूछ सकते थे। जब आप कविता, कहानियाँ, शेरो शायरी हिन्दी में लिखते हो तो फिर हिन्दी को व्यवहार में क्यों नहीं लाते।
 दरअसल दोष आपका नहीं, आजकल के सभी नौजवानों का यही हाल है । ये सब गलत खानपान का नतीजा है । दूध,दही,घी वगैरह तो कुछ खाऎंगें नहीं, बस चाय, पिज्जा बर्गर, सिगरेट गुटखे, शराब, अंडे खा खाकर दिमाग भ्रष्ट हो चुका है, देश की युवा पीढी का । बादाम की ठंडई की जगह सिगरेट पी रहे हैं, पूजा पाठ की बजाय मल्लिका शेरावत,बिपासा बसु जैसी देवियों की आराधना में जीवन बीत रहा है। इसी कारण से मानसिक शक्ति दुर्बल पडती जा रही है। आप एक तो कमरे के भीतर आकर पूछते हो कि "मै अन्दर आ सकता हूँ" ओर वो भी अंग्रेजी में । अफसोस्! नवयुवक ! बेहद अफसोस्! अब अगर मै कह दूँ कि नहीं आ सकते तो?
दिगम्बर नासवा:- सर! मैं यहाँ संस्थान में भर्ती के लिए आया हूँ, न कि प्रवचन सुनने के लिए। ओर वैसे भी वो तो मैने सिर्फ एटीकेट के नाते पूछा था ।
राज भाटिया:- ठीक है अब आप प्रस्थान कीजिए। समझिए कि आपको भर्ती कर लिया गया है। आपका नियुक्ति पत्र कुछ दिनों में आपके पास पहुँच जाएगा।
अगला उम्मीदवार आता है ।
राज भाटिया:- क्या नाम है आपका?
उम्मीदवार:-(आच्च्छी) जी, नीरज जाट
राज भाटिया:- क्या हुआ, आपकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही?
नीरज जाट:- जी वैसे तो ठीक है, बस थोडा सा कोल्ड हुआ है। आच्च्च्छी....
राज भाटिया:- अरे कैसे नौजवान हो तुम्! देश का भविष्य तुम लोगों के कन्धों पर टिका है ओर कमाल है इस आग उगलती गर्मी में तुम कोल्ड से परेशान हो। भई तुम कुछ लेते क्यों नहीं? किसी अच्छे से डाक्टर को दिखाओ।
नीरज जाट:- जी क्या करूँ। डाक्टर के पास जाने का टाईम ही नहीं मिल पाता। इस साक्षात्कार के लिए भी बडी मुश्किल से समय निकाल पाया हूँ। बस यहाँ से फ्री होते ही सीधे लद्दाख के लिए गाडी पकडनी है।
राज भाटिया:- अच्छा चलो छोडिए। ये बताईये कि कितना पढ लिखे हैं ?
नीरज जाट:- जी मैने डबल एम.ए. किया है।
राज भाटिया:- डबल ऎंवें! शायद ये ऎंवें करने का ही नतीजा है कि तुम बीस की उम्र में तीस के दिखाई पड रहे हो । अरे मैं तुम्हारी जगह होता तो इस ऎंवें- ऊंवें करने की बजाय दंड पेलता, अपने शरीर की ओर ध्यान देता। और एक बात मैने सही सुना है कि तुम बहुत घुमक्कड किस्म के आदमी हो। महीने में 27 दिन तो तुम्हारे घूमने में निकल जाते हैं। अरे! जब हर समय घूमते ही रहोगे तो फिर काम किस समय करोगे। भाई! इस संस्थान को घुमक्कडों की नहीं काम के आदमियों की जरूरत है। जाओ कबड्डी खेलो, दण्ड पेलो, सैर करो। जब घुमक्कडी से पीछा छूट जाए और शरीर में कुछ जान पड जाए, तब आना.....
चलिए अगले उम्मीदवार को भेजिए............
समीरलाल "उडनतश्तरी वाले" :- जी नमस्ते!
राज भाटिया:-नमस्ते! बैठिए। आपको देखकर बहुत प्रसन्नता हुई । इस बात पर खास तौर से कि आप अपनी मातृ्भाषा का सम्मान करना जानते हैं। कितना शानदार व्यक्तित्व है आपका। यदि कद थोडा एक फुट ओर छोटा, रंग थोडा कम काला और वजन भी बीस तीस किलो कम होता तो इसमें ओर भी निखार आ जाता। खैर कोई बात नहीं.......आप ये बताईये कि आपका शुभ नाम क्या है?
समीरलाल:- जी, शुभ और अशुभ दोनों ही समीरलाल हैं।
राज भाटिया:- आपकी योग्यता क्या है?
समीरलाल:- जी, साहित्य में पी.एच.डी. की है।
राज भाटिया:- किस विषय पर ?
समीरलाल:-  धुम्रपान का काव्य रचना में योगदान......
राज भाटिया:- बडा अछूता विषय चुना आपने।  अच्छा ये बताईये कि आपके दिमाग में इस अनूठे विषय पर पी.एच.डी करने का विचार आया कैसे?
समीरलाल:- जी बात दरअसल ये है कि मुझे बचपन से ही सिगरेट पीने की लत पड गई थी।
राज भाटिया:- (हैरतवश बीच में ही टोकते हुए) क्या कहा बचपन से!
समीरलाल:- (थोडा सकुचाते हुए) ज्ज्जी! वो क्या है कि बचपन में गलत यार दोस्तों की संगत की वजह से ये नामुराद आदत पड गई। हमें किसी नें कह दिया कि नेवीकट पीने वालों की बात ही कुछ ओर होती है, बस तब से रोजाना हम कुछ यार दोस्त मिलकर विल्स नेवी कट सिगरेट की एक डिब्बी खरीद लेते, और स्कूल से भागकर किसी पार्क वगैरह में बैठकर धुऎं के छल्ले उडाया करते। आगे चलकर जब हम जवान हुए तो वो पुराने यार दोस्त तो सब के सब छुट गये लेकिन इस विल्स नें हमारा साथ न छोडा, उल्टा हमें कविता, शायरी वगैरह करने की एक ओर आदत लग गई। हम घंटों अकेले बैठे सिगरेट पर सिगरेट फूंकते रहते और दिमाग में कविता की कुछ पंक्तियाँ या कोई शेर गूँजने लगता तो उसे किसी कागज पर उतार लिया करते। धीरे धीरे ऎसा होने लगा कि  खाते-पीते, नहाते धोते, उठते बैठते यानि कि चौबीसों घंटे हम जहाँ भी, जिस भी स्थिति में होते मन में कोई न कोई कविता जन्म ले लेती। अब मुश्किल ये की हर जगह तो हम अपने पास कोई कागज, डायरी वगैरह रख नहीं सकते थे कि इधर कविता जन्म ले ओर उधर झट से हम उसे कलमबद्ध कर लें। ये तो बडी भारी मुश्किल खडी हो गई। क्यों कि विचार तो हवा का झौंका है, ये तो जैसे ही दिमाग में आया ओर आप उसे उसी समय कलम से बाँध न पाए तो फिर वो दोबारा से कहाँ आपके हाथ में आने वाला है। हमें लगने लगा कि मानो हमारी काव्य रचनाओं की भ्रूण हत्या होती जा रही हो। लेकिन कहते है न कि जहाँ चाह, वहाँ राह। चाहे ऎन मौके पर हमारे पास कोई कागज वगैरह न होता हो लेकिन सिगरेट की डिब्बी तो हमेशा चौबीसों घंटे पास में होती ही थी। सो राह ये निकली कि जैसे ही कोई विचार, कोई कविता जन्म लेने लगे तो हम झट से उसे सिगरेट की डिब्बी के अन्दर के खाली कागज पर उतार लेते थे। धीरे धीरे कविता और सिगरेट के बीच न मालूम कैसा तारतम्य स्थापित हो गया कि हमें जब भी सिगरेट की तलब लगे। तो पैकेट में से सिगरेट निकालने भर की देर होती थी कि साथ के साथ तुरन्त एक नई कविता जन्म ले लेती थी। बस तभी से जैसे जैसे हमारी सिगरेट पीने की आदत बढती गई, ठीक वैसे वैसे ही हमारी काव्यधर्मिता विस्तार पाती गई। बचपन में बोया गया एक बीज समय के साथ पुष्पित,पल्लवित होकर आज एक विशाल वृ्क्ष बन चुका है। और इसका सम्पूर्ण श्रेय जाता है तो सिर्फ हमारी धुम्रपान की इस आदत को।
बस यही कारण रहा कि मैने इस अछूते विषय को पी.एच.डी. के लिए चुना।
राज भाटिया:- भई मान गये! आपने साबित कर दिया कि सचमुच विल्स पीने वालों की बात ही निराली है। अच्छा तो ये बताईये कि आपने ये थीसिस कितने पृ्ष्ठों का लिखा?
समीरलाल:- जी, दो सौ पोस्टों का।
राज भाटिया:- दो सौ पोस्टों का ?
समीरलाल:- ओह सारी! माफ कीजिएगा मेरे कहने का मतलब था दो सौ पृ्ष्ठों का ।
राज भाटिया:- अच्छा, तो आपने ये पी.एच.डी. किस विश्वविधालय से की है?
समीरलाल:- जी, झाऊमाऊ यूनिवर्सिटी से।
राज भाटिया:- ये तो कोई नई यूनिवर्सिटी लगती है।
समीरलाल:- जी हाँ, मै ही इसका सबसे पहला स्टूडेंड था।
राज भाटिया:- हो न हो आखिरी भी जरूर आप ही होंगें । चलिए जरा अपनी अपनी डिग्री तो दिखाईये।
समीरलाल:- जी, वो तो मिल ही नहीं पाई। इधर मैने थीसिस जमा करवाई और उधर न जाने क्यों यूनिवर्सिटी को ही ताला लग गया। दरअसल सरकार को मालूम पड गया था कि इस यूनिवर्सिटी में चोरी की थीसिस पर पी.एच.डी करवाने से लेकर नकली डिग्रियाँ बाँटने तक का धंधा किया जाता हैं, शायद इसीलिए.....।
बस इसके बाद तो भाटिया जी नें अपना सिर पकड लिया....बोले-----भाई साहब! आपसे हाथ जोडकर विनती है कि अब आप घर को प्रस्थान कीजिए। हम आपको सूचना भेज देंगें।
उसके बाद हमारे चयनकर्ता श्री भाटिया जी बाकी के उम्मीदवारों को किसी ओर दिन आने के लिए बोलकर उठ खडे हुए............
बेचारे बाकी के उम्मीदवार श्री ताऊ रामपुरिया, ललित शर्मा, यशवन्त मेहता, अन्तर सोहिल, महेन्द्र मिश्र, शशिभूषण तामडे और अजय झा जी, जो कि अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे थे, बडे ही अनमने ढंग से वहाँ से विदा हुए...इस उम्मीद के साथ कि जल्द ही उन्हे दोबारा से साक्षात्कार के लिए बुलाया जाएगा......:-)

डिस्कलेमर:- (ये सिर्फ एक निर्मल हास्य है। यदि किसी सज्जन को यहाँ अपने नाम से असहमति हो तो सूचित कर दीजिए, उनका नाम उम्मीदवारों की सूचि से निकाल दिया जाएगा...लेकिन उसके बदले में उनके द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के नाम का अनुमोदन किया जाना आवश्यक है :-))
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