
आज शायद मन की इस सरलता का कहीं लोप हो गया है, इसे पूरी तरह से जटिलता नें घेर लिया है. आज हर प्रश्न टेढा होकर समस्या बनता जा रहा है और समस्याओं से जीवन घिर गया है. इन का समाधान नहीं हो पा रहा है. इस लिए कभी कभी जी चाहता है कि काश हम पुन: बचपन में लौट सकते या फिर ये युग ही बदल जाता....इसके बदले में पौराणिक युग फिर से लौट आता. लेकिन ऎसा होना संभव ही कहाँ है. सच पूछिए, मुझे कभी कभी उन लोगों से रश्क होने लगता है,जो आज भी बचपन में जी रहे हैं. इनके चेहरों पर न तो हैरानी दिखती है और न ही किसी किस्म की परेशानी. सोचता हूँ कि हम लोगों नें पौराणिक सरलता को खोकर क्या पाया है. इस ससुरी आधुनिकता नें दुनिया को आखिर दिया ही क्या है ?...बस, हर एक चेहरे पर जटिलता की लकीरें और बिना सवालों के जवाब.
आज पेट के लिए रोटी मिलना, मोक्ष मिलने या न मिलने से अधिक चिन्ता का विषय है. सिलेंडर में गैस या गाडी में पेट्रोल का न होना, भगवान के होने या न होने से कहीं अधिक हैरान कर डालता है. पुरखे कितने सुखी थे. हर तरह की चिन्ता फिक्र से मुक्त.जो पेडों की छाँव तले बैठकर ब्रह्म और माया के रहस्य खोज लिया करते थे...लेकिन एक इधर हम हैं जिनसे दिन भर ऎ.सी.के नीचे बैठकर भी आज तक घर-गृ्हस्थी तक का रहस्य न सुलझाया जा सका. आज यदि हम अतीत में जीना चाहते हैं तो दुनिया पलायनवादी कहने लगती है,एक झटके में पुरातनपंथी घोषित कर दिया जाता है.करें तो क्या करें. जाएं तो आखिर कहाँ जाएँ ?
भाग्य के बलिहारी जाऊँ! धर्मपत्नि भी ऎसी मिली जो साईंस पढी हुई. समझिए जी का जंजाल. खाना खाने बैठो तो, निवाला मुँह तक बाद में जाए उससे पहले देर तक मुए प्रोटीन,विटामिन,कैल्शियम,कार्बोहाईटड्रेट वगैरह पर प्रवचन सुनना पडता है. पेट तो पहले ही इस प्रवचन से भर चुका होता है, खाना क्या खाक खाया जाएगा. कभी मीठे का निषेध करने लगती है तो कभी खट्टे का. आचार, घी वगैरह को तो छूने भी नहीं देती...कहती है कि दिल के लिए नुक्सानदेह होता है. अब उसे क्या समझाएं कि भागवान दिल को तो नुक्सान हो ही रहा है, अब और इससे ज्यादा भला क्या नुक्सान होगा. बस गनीमत है कि तुम्हारे होते (भी) अभी तक जैसे तैसे चल रहा है, धडकना बन्द नहीं हुआ :) इन नासपीटे वैज्ञानिकों का क्या जाता है. क्या खाना है, क्या पीना है.....ये लोग तो यूँ ही फालतू के शोध करते रहते हैं और बिना बात के हमारी जान को नए नए क्लेश खडे करते जाते हैं. इनका क्या जाता है. भुगतना तो हमें पडता है :)
अब तो ऎसा लगने लगा हैं कि विज्ञान का कार्य जीवन को समस्या मुक्त करना है ही नहीं वरन नित नई समस्याएं पैदा कर इसे ओर अधिक जटिल करते जाना है. पता ही नहीं चलता कि अपनी सहजता,सरलता और प्रकृतिमय जीवन व्यवस्था को खोकर हमने हासिल क्या किया है ? दिखाई पडता है तो सिर्फ यही कि----आधुनिकता के नाम पर जीवन में बस जटिलताएं ही जटिलताएं, सरलता कुछ भी नहीं.......