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रविवार, 21 नवंबर 2010

ब्लागर्स से......मनुज प्रकृति से शाकाहारी (संडे ज्ञान)

ब्लागर्स से:-

रंगों की पहचान अन्धे के बूते की बात नहीं हुआ करती. आँख है तो ही दृश्य है. दृश्य पर नेत्रहीन की आस्था असम्भव है. इन्द्रधनुष जन्मान्ध के लिए आविर्भूत नहीं होता. गाने के तराने, राग-रागनियों की स्वर लहरियाँ  वज्र-वधिर के लिए कोई अस्तित्व नहीं रखती. मल्हार बहरे के लिए नहीं गाया जाता, न वीणा झंकृत होती है....इसलिए अधर्म का चश्मा लगाए बैठे अक्ल के अन्धों पर अपना समय नष्ट  करने की अपेक्षा उन पाठकों को ध्यान में रखते हुए लिखा जाए, जिनकी अक्ल और आँखें दोनों सलामत हैं...... 
आज संडे ज्ञान में श्री धन्यकुमार जैन जी कि एक कविता की चन्द पंक्तियाँ (स्मरण-शक्ति के आधार पर)प्रस्तुत है......

मनुज प्रकृति से शाकाहारी 
माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकाने !
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें !!
नहीं उन्हे है आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं!
नहीं कहीं के "बैंकर" बकरे
नहीं, "क्लर्क" खरगोश कही हैं !!
स्वर्णाभरण न मिलते उनको
मिलते उन्हे दुकूल नहीं है !
अत: दु:खी को और सताना
मानव के अनुकूल नहीं है !!

कभी दीवाली होली में भी
मिलती उनको खीर नहीं है !
कभी ईद औ क्रिसमिस में भी
मिलता उन्हे पनीर नहीं है!!
फिर भी तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं !
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं !!
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं !!
अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
मानव के अनुकूल नहीं हैं !!
क्या नहीं मनुज को खेत लुटाते
गेहूँ, मक्का, धान, चने हैं !
औ फल देने हेतु किमिच्छिक
दानी से उद्यान तने है !!
अत: बना पकवान चखो तुम
फल खाकर सानन्द जियो तुम
मेवों से लो सभी विटामिन
बलवर्द्धक घी, दूध पियो तुम !!
तुम्हे पालने में असमर्था !
धरती माँ की धूल नहीं है!
अत: अन्न, फल, मेवे रहते
माँस तुम्हे अनुकूल नहीं है !!

शाकाहारी और अहिंसक
बनो धर्म का मूल यही है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!



ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

शनिवार, 20 नवंबर 2010

हिँसा में जो शक्ति है, वह प्रेम में कहाँ.......

लोग 'प्रेम' की बात करते हैं, 'अमन' की बात करते हैं, 'करूणा' की बात करते हैं, लेकिन मैं कहता हूँ कि हिँसा में जो शक्ति है, वह न तो प्रेम में है, न अमन में,न शान्ती में और न ही करूणा, दया जैसी किसी भावना में है!

अतीत में बडे-से-बडे पैगम्बरों और अवतारों नें आपको प्रेम करना सिखाया है----मानवता से, सत्य से. जो पुण्य है उससे प्रेम करने की शिक्षा उन्होने दी है, परन्तु आपने अपने कईं हजार वर्षों के निरन्तर चलन से यह प्रमाणित करने की कीशिश की है कि आपकी हिँसा अमर है, प्रेम नहीं. जोर देने पर आप प्रेम को एक बाह्य परदे की भान्ती सामयिक तौर पर ओढ सकते हैं, परन्तु स्वतन्त्रता मिलते ही आप उस नकाब को नोच फैंकना चाहते हैं और फिर से अपनी मनचाही क्रीडाओं में व्यस्त हो जाते हैं. उस समय आप हर पिछली लडाई से अधिक भयंकर एक और लडाई लडते हैं, हिँसा की कालोत्पन सैरगाहों में मानवी रक्त के सुर्ख फुवारे आकाश-शिखर पर विजय पाने की कौशिश में लग जाते हैं और किसी शाहजहाँ की आँख से प्रेम और वफा के नाम पर बहाये गये उस एक आँसू-----ताजमहल को जमे हुए सफेद लहू से बनाये गये पाषाणों का एक ढेर-मात्र बना दिया जाता है.
मुझे विश्वास है कि यह सब इसलिए नहीं होता है कि आपको 'इन्सानियत' से बैर है(क्योंकि आखिर इन्सान आप स्वयं ही तो हैं और अपना विनाश किसी को प्रिय नहीं होता), बल्कि शायद आप यह सब कुछ इसलिए करते हैं कि आपको प्रेम,करूणा, दया के उपदेशों से ही घृणा है. एक मासूम बालक की भान्ती-----आपके प्राकृतिक मासूमपन अथवा निर्विकार होने और इस परम विशाल प्रकृति के उस अनदेखे सिरजनहार के सम्मुख आपके और अपने बचपने का मैं निरापद रूप से कायल हूँ------आप अपनी जिद मनवाने के लिए अपने निजि नुक्सान की भी चिन्ता नहीं कर रहे. अत: मनोविज्ञानवेत्ताओं के आधुनिक शिक्षानुसार मैं आप पर धर्मोपदेशों के कोडे फटकारने के बजाय आप ही की जिद्द मान लेता हूँ. आपकी बात रखने के लिए, मैं आपसे कहता हूँ कि आप ही की भावना ठीक है. इसी को फलने-फूलने दीजिए.

इस पोस्ट के जरिये मैं आपको हिँसा का संदेश देना चाहता हूँ, घृणा का सन्देश देना चाहता हूँ------वहशीपन से, बर्बरता और पाशविकता और अमानुषिकता के प्रति हिँसा एवं घृणा का संदेश. आपको घृणा ही करनी है तो इनसे घृणा कीजिए, हिँसा करनी हो तो इनके प्रति कीजिए और इस प्रकार आप घृणा और हिँसा के पथ से ही सत्य-मार्ग पर आ जायेंगें. आपको आखिर हिँसा ही तो चाहिए---तो फिर कीजिए हिँसा. जी भर कर कीजिए.
हिँसा,वध और हर पुण्य-भावना का स्तीत्व नष्ट करने का आपका यह शौक जब अपनी चरम सीमा को पहुँच जाएगा तो उसका एकमात्र परिणाम हमारे एक मित्र के शब्दों में कहूँ, तो सिर्फ यही हो सकता है कि------"इन कातिल कौमों के घर भविष्य में बच्चों की जगह भेड, बकरियाँ ही पैदा हों---माँस के लोथडे ही इस कौम की कोख से जन्म लें; और फिर सारी की सारी कौम किसी पापी के जमीर की भान्ती, अपने ही आंतक और घृणा के मारे दरियायों में कूद-कूदकर मर जाए-----"

इन कटु शब्दों को लिखकर अगर मैने बुनियादी तौर पर इस परिणाम, इस हिंस्र पाशविकता, इस अमानुषिकता के विरूद्ध आपके ह्रदय में थोडी सी भी हिँसा पैदा कर दी हो, तो मैं अपने आपको कृतकार्य्य समझूँगा. निश्चय ही बर्बरता के प्रति की गई यह हिँसा आपको मानवता के निकटतर ले आएगी. मैं दिल से चाहता हूँ कि यहाँ लिखे गए इन कटु शब्दों की सान पर चढकर आपकी उस हिँसा की तलवार को इतनी तीखी धार मिल जाए कि फिर भविष्य में जब कभी किसी निरीह पशु की गर्दन तक आपका छुरा पहुँचने लगे, तो वही तेज कटार आपके उस उठते हुए हाथ को काट डाले, शब्दों का यह लोहा उस कटार के लोहे को कुण्ठित कर दे, तो मैं समझूंगा कि इस बारे में ब्लाग पर आकर हमारा ये सब लिखना सफल हुआ.
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ऊपर की पंक्तियाँ किसी धर्म विशेष को आधार में रखकर नहीं लिखी गई, बल्कि उन लोगों के लिए लिखी गई हैं जो हिँसा, क्रूरता, पाशविकता की प्रभुता में विश्वास रखते हैं.
उनके अतिरिक्त और लोग भी हैं जो दूसरी सीमा पर हैं, उस सीमा पर जहाँ मन के लड्डुओं के सिवा और कुछ है ही नहीं, जहाँ प्रेम के सोते फूटते हैं,जहाँ करूणा का सागर हिल्लोरे ले रहा हो, हठधर्मिता, कलुषता और निर्दयता  की दलदल से दूर.....उनके लिए होगी हमारी आगामी पोस्ट.
(प्रस्तुत पोस्ट अमित शर्मा जी की कल की इस पोस्ट की उपज हैं)
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