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रविवार, 30 जनवरी 2011

अधिकार.......(संडे ज्ञान)

राजकुमार गौतम उद्यान में सैर कर रहे थे कि अकस्मात उनके पाँवों के पास एक पक्षी आकर गिरा. राजकुमार नें देखा कि उसके परों में एक तीर चुभा है और वह बडी बेचैनी से छटपटा रहा है. दयाद्र होकर गौतम नें पक्षी को उठाया और वे बडे यत्न से रक्त में भीगे हुए तीर को निकालने लगे, ताकि किसी प्रकार उस निरीह पक्षी के प्राणों को बचाया जा सके. गौतम अभी तीर को निकाल भी न पाये थे कि हाथ में धनुष-बाण लिए एक शिकारी आया और उनसे बडे रोष भरे स्वर में कहने लगा------
" राजकुमार! ये मेरा शिकार है, जो मेरी क्षुधापूर्ती का साधन बनने वाला है. आपको इसे उठाने का क्या अधिकार था? "
राजकुमार गौतम स्नेह भरे स्वर में बोले----"जब आपको उसके प्राण लेने का अधिकार है, तब मुझे उसके प्राण बचाने का भी अधिकार न दोगे भाई !"

शनिवार, 22 जनवरी 2011

भोजन द्वारा स्वास्थय (सात्विक आहार)

कहते हैं कि इन्सान को सदैव सात्विक आहार का ही सेवन करना चाहिए, क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार मानव का भोजन फलाहार और शाकाहार ही है.जो कि शारीरिक निरोगता, शक्तिवर्द्धन और दीर्घायुष्य जैसी सतोगुणी शक्तियों की प्राप्ति का एकमात्र स्त्रोत है. लेकिन अब सवाल ये उठता है कि ये सात्विक भोजन होता कौन सा है ? इसके लिए श्रीमगभागवत गीता का ये श्लोक देखिये..........
आयु: सत्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धन:
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा ह्रद्या आहारा: सात्विकप्रिया: !!
अर्थ:-- आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढाने वाले एवं रसयुक्त चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय हों, ऎसे आहार सात्विक प्रवृति के मनुष्यों को प्रिय होते हैं !
व्याख्या:- आयु,बुद्धि,बल,आरोग्य और प्रीति को बढाने के लिए चार प्रकार का आहार (1) रस्या: (2) स्निग्धा: (3) स्थिरा (4) ह्रद्या में कौन कौन सी खाद्य वस्तुएं आती हैं, उन्हे जानना जरूरी है अन्यथा प्रत्येक प्रकार के खाद्य पदार्थों का गलत अर्थ लगाकर तथा गलत ढंग से प्रयोग करने के कारण उपर्युक्त लाभों से वंचित तथा रोग, शोक से छुटकारा नहीं प्राप्त हो सकता. अत: इसके लिए निम्न उदाहरण से समझें.
रस्या:--- सब तरह के फल,सब्जियाँ यथा गाजर, टमाटर, सेब, सन्तरा, खीरा, तरबूज, ककडी इत्यादि जिनमें प्राकृतिक रस भरा मिलता है, ऎसी रसदार खाद्य वस्तुएं इस श्रेणी में आती हैं.
स्निग्धा:-----दूध, दही, मक्खन, तिल, गरी गोला, बादाम, मूँगफली, सोयाबीन आदि पदार्थ जिनमें चिकनाई की मात्रा होती है, वें वस्तुएं स्निग्धा की श्रेणी में आती हैं.
स्थिरा:---प्रत्येक प्रकार के अन्न गेहूँ, चावल, चना, बाजरा इत्यादि इत्यादि. जिन पदार्थों को ग्रहण करने के पश्चात बहुत समय तक उसका सार शरीर के लिए टिकाऊ हो तथा भोजन करने के बाद अधिक देर तक स्थिरता का अनुभव किया जा सके, वें खाद्य पदार्थ स्थिरा हैं. वैसे भी इन अनाजों में फल, सब्जियाँ तथा दूध, दही, तिल, नारियल आदि की तुलना में अधिक टिकाऊपन है. यह अधिक दिनों तक स्थिर रखे भी जा सकते हैं, जल्दी खराब नहीं होते. इसलिए यह स्थिरा की श्रेणी में आते हैं.
ह्रद्या :--- जिस खाद्य पदार्थ को देखने मात्र से खाने की रूचि उत्पन्न हो तथा साफ-सुथरी तथा पवित्र हो उसे ह्रद्या कह सकते हैं.
विश्लेषण:-- उपरोक्त चारों प्रकार के खाद्य पदार्थ यद्यपि सात्विक हैं, परन्तु इन्हे भी तलने, भूनने, अधिक पकाने, मात्रा से अधिक खा लेने, व्यक्ति की आवश्यकता एव्म प्रकृति के अनुकूल-प्रतिकूल का विचार किए बिना खा लेने पर सात्विक होते हुए भी राजस-तामस के प्रभाव वाले ही हो जाते हैं. जैसे कि दूध पूर्णत: सात्विक आहार है और आयु, सत्व, बल, बुद्धि, निरोगिता प्रदान करने में एक तरह से अमृत तुल्य ही है, लेकिन हैजे, अतिसार के मरीज के लिए यही दूध विष का काम करता है. अत: यहाँ यह विचार करना पडेगा कि वस्तु सात्विक होते हुए भी व्यक्ति की प्रकृति के विपरीत देने से वह राजस-तामस प्रभाव की हो सकती है. खाद्य पदार्थ के उपयोग के तरीके यदि गलत हैं तो वस्तु सात्विक होते हुए भी उसका प्रभाव (प्रतिक्रिया) सात्विक नहीं हो सकता.
अब बाजार में गली-सडी मिलावटी मिठाईयाँ, चाट-पकोडे, चाईनीज फूडस, पिज्जा, बर्गर आदि गरिष्ठ पदार्थ जो कि ठूँस-ठूँस कर खाये जाते हैं, वह अधिक हानिकर होते हैं, परन्तु गलत मान्यताओं के कारण लोग इन पदार्थों को खाते हुए अपने को शाकाहारी कहला कर गौरव समझते हैं. प्रत्येक खाद्य पदार्थ किस किस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है, उसके प्रयोग विधि, मात्रा, आहार ग्रहण कर पचाने की पात्रता आदि के अनुसार भोजन सात्विक-राजस एवं तामस का प्रभाव वाला बताया जा सकता है.
अब लोग हैं कि खान-पान के विषय में केवल साफ-सफाई के विचार को ही महत्व देते हैं, सामग्री के गुण-अवगुण तथा उसकी शुद्धता, बनाने की विधि एवं प्रयोग की विधि पर कोई ध्यान नहीं देता. बस जो मन को भाये, खाने में स्वादिष्ट हो और फैशन के अनुकूल हो---बस वही चीज अच्छी है. इसलिए ही आहार की दशा बिगडती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप आयु, बल, एवं स्वास्थय क्षीण हो रहा है, दुनिया में नाना प्रकार की बीमारियों की भरमार है. इसी कारण ही इन्सान की बुद्धि राजसी-तामसी हो रही है और दुनिया भर में रोग,बीमारी, दु:ख का एकछत्र साम्राज्य है.
अत: खाद्य पदार्थ का स्वरूप सात्विक हो इसके लिए बनाने की विधि, खाने की मात्रा, खाने वाले व्यक्ति के अनुकूल प्रकृति आदि इन समस्त बातों का विचार करके आहार ग्रहण किया जाये, तभी उसका परिणाम सात्विक होगा.
आगामी पोस्ट में बात करेंगें तामसिक आहार पर.......

सोमवार, 17 जनवरी 2011

आस्था और तर्क

मनुष्य आज जो कुछ है, उसके निर्माण में समाज की अहम भूमिका है.हर इन्सान अपने तात्कालिक परिवेश, रीति-रिवाज, मान्यताओं, सामाजिक नियमों से तो सीखता-समझता ही है, वह परम्परा प्राप्त ज्ञान, ऎतिहासिक घटनाओं, महापुरूषों की जीवनियों एवं धर्मशास्त्रों से भी बहुत कुछ सीखता है और उन्ही सबसे उसका जीवन बनता-बिगडता है. इन्सान का यह सहज स्वभाव है कि जहाँ से उसे कुछ प्राप्त होता है, वहाँ उसकी आस्था होती है. आस्था मनुष्य मात्र के लिए एक महान संबल है. आस्थारहित मनुष्य का जीवन तो उस पेड के समान है, जिसकी जडें कट चुकी हैं. आस्था नैतिकता एवं सदाचार की रीढ ओर नैतिकता हमारे जीवन की. अत: यह सहज समझा जा सकता है कि आस्था का होना जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है.
दरअसल, आस्था एक ऎसी धातु है जो हर इन्सान को कहीं-न-कहीं जोडती है और इन्सान का पथप्रशस्त करती है. लेकिन जिस प्रकार किसी भी प्रकार की अति इन्सान के लिए अहितकर होती है, उसी प्रकार अत्यंत आस्था भी इन्सान को भटका देती है. अत्यन्त आस्था का ही यह पागलपन है कि धार्मिकों नें दूसरे मत-मजहब वालों के लिए नास्तिक, काफिर आदि शब्द गढे और परस्पर घृणा, वैमनस्य एवं ईर्ष्या का जहर घोला. अत्यन्त आस्था का ही फल है कि इन्सान की बुद्धि धर्म, ईश्वर एवं ईश्वरीय वाणी के नाम पर गुलाम बना दी गई और इन्सान मानसिक-बौद्धिक गुलाम बना भटक रहा है. वह तर्क, विवेक, विचार, वैज्ञानिक चिन्तन को प्रश्रय देना ही नहीं चाहता.
हमें इस बात को हमेशा याद रखना होगा कि इस दुनिया में जब भी, जहाँ भी, जिस किसी नें भी किसी दिशा में सफलता हासिल की है, उसमें तर्क और विचार की भी उतनी ही भूमिका रही है, जितनी आस्था की. तर्क से ही अज्ञान-अंधकार को दूरकर ज्ञान का प्रकाश फैलाया जा सकता है. आज का वैज्ञानिक युग भी तो पूरी तरह से तर्कप्रधान ही है.जहाँ विज्ञान का विकास आस्था से नहीं तर्क से होता है. लेकिन ये भी बात है कि कोरा तर्क इन्सान को दिग्भ्रमित कर देता है और ऎसा इन्सान फिर डोर कटी पतंग की तरह यहाँ-वहाँ उलझकर और अधिक भ्रमित और अशांत ही होता है.
तर्क और आस्था की तुलना हम पतवार और नाव से कर सकते हैं. नाव में बैठकर हम लम्बी-चौडी नदी को भी सहजतया पार कर सकते हैं, परन्तु नाव धारा में तभी आगे बढती है, जब पतवार से पानी को काटा जाता है. केवल नाव के सहारे नदी नहीं पार की जा सकती और केवल पतवार का आश्रय लेना तो हद दर्जे की मूढता ही कही जाएगी. अत: नाव और पतवार दोनों का संयोग अति आवश्यक है. इसी प्रकार जीवन-पथ में आगे बढने एवं संसार-समुद्र में से सकुशल पार जाने के लिए आस्था और तर्क दोनों की महती आवश्यकता है, क्योंकि दोनों के संयोग से ही इन्सान में विवेक जागृत होता है-----और विवेक ही तो सुख-शान्ती-अमन-प्रेम का आधार है.
कबीर साहब कहते हैं-------कहहिं कबीर ते उबरे जाहि न मोह समाय !!
धर्म के नाम पर फैलाये जा रहे अन्धविश्वासों, चमत्कारों, प्रकृतिगत नियमों के विरूद्ध गलत मान्यताओं, कुरीतियों आदि के कारण जहाँ आज इन्सान की आस्था खंडित हो चुकी है, वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक-चिंतन के नाम पर सिर्फ कोरे तर्क या कुतर्क को प्रश्रय दिया जा रहा है, फलत: आज मानव-समाज की स्थिति बिल्कुल घडी के पैण्डुलम की तरह हो चुकी है. जो कभी इधर तो कभी उधर----बस झूल रहा है.

शनिवार, 8 जनवरी 2011

लोक-कहावतों में स्वास्थय चर्चा

 संसार में उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से सुखी कहा जा सकता है, जो कि शरीर से निरोगी हो. ओर निरोगी रहने के लिए यह आवश्यक है कि बच्चों को उनकी बाल्यावस्था ही से स्वस्थ रखने का ध्यान रखा जाए, उनको संयमी बनाया जाए, उनको ऎसी शिक्षा दी जाए, जिससे कि वे स्वस्थ रहने की ओर अपना विशेष ध्यान दे सकें.
माना कि समय की तेज रफ्तार के आगे आज शहरी और ग्रामीण समाज का अन्तर धीरे धीरे मिटता जा रहा है, लेकिन इतने पर भी आपको अभी भी गाँवों में बसते उस समाज की झाँकी देखने को मिल सकती है, जो कि युग परम्परा से श्रवण-ज्ञान द्वारा अपने स्वास्थय का ख्याल रखता आया है. यह ज्ञान बहुत कुछ उन्हे अपनी लोक-कहावतों में मिल जाता है.
आप देख सकते हैं कि लोक-कहावतों के ज्ञान के कारण ही आज भी अधिकाँश ग्रामीण समाज शहरी समाज की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ एवं निरोग मिलेगा.
लोक-कहावतों में प्रात:काल से लेकर रात्रि तक की विविध अनुभूतियाँ मिला करती हैं. कोई भी उनके अनुसार आचरण करके देख ले, उनकी सत्यता की गहरी छाप ह्रदय पर पडकर ही रहेगी. उदाहरणार्थ यहाँ कुछ कहावतें दी जा रही हैं-----
प्रात:काल खटिया से उठकै, पियै तुरन्तै पानी;
कबहूँ घर मा वैद न अइहै, बात घाघ कै जानि !!

आँखों में त्रिफला, दांतों में नोन,
भूखा राखै, चौथा कोन !!
अर्थात----त्रिफला, जो कि नेत्रों हेतु ज्योतिवर्द्धक एवं उनकी अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव हेतु रामबाण औषधी मानी जाती है. जो व्यक्ति त्रिफला के जल से आँखों का प्रक्षालन करता है, नमक से दाँत करता है और सप्ताह में एक बार उपवास रखता है तो इन तीनों विधियों के अतिरिक्त उसे अन्य चौथा कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है.सिर्फ इन तीन उपायों से ही वो अपने पूरे शरीर को निरोग रख सकता है.

मोटी दतुअन जो करै,
भूनी हर्र चबाय;
दूद-बयारी जो करै,
उन घर वैद न जाय्!!
अर्थात----उपरोक्त की ही भान्ती ही यहाँ भी शरीर रक्षार्थ तीन विधियाँ बताई गई हैं. नीम, कीकर इत्यादि कि मोटी लकडी (दातुन) को चबाकर करने से दाँत मजबूत होते हैं, भूनी हुई हर्र(हरड) के सेवन से पाचनतन्त्र मजबूत होता है और कच्चे दूध से नेत्र प्रक्षालन(नेत्रों को धोना) करने से नेत्रों की ज्योति बढती है. जो व्यक्ति इन तीन कार्यों को करता है, उसे फिर किसी चिकित्सक की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती.
प्रात:काल करै अस्नाना,
रोग-दोष एकौ नई आना !
अर्थात--जो प्रात:काल नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान कर लेते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं.
खाय कै मूतै, सूतै बाउं,
काय कौं वैद बसाबै गाउं !
अर्थात---भोजन करके के पश्चात जो मूत्र-त्याग करते हैं और बायीं करवट लेकर सोते हैं, उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि उनके गाँव में वैद्य/डाक्टर रहता है या नहीं.
वर्ष के बारह महीनों में कब कम भोजन करना हितकर है, क्या-क्या खाद्य पदार्थ किस-किस मास में वर्जित हैं, यह ज्ञान भी कहावतों में हैं. यथा----
सावन ब्यारो जब-तब कीजे,
भादौं बाकौ नाम न लीजे;
क्वारं मास के दो पखवारे
जतन-जतन से काटौ प्यारे !!
अर्थात----श्रावण मास में रात्रि का भोजन कभी-कभी ही करना चाहिए, भाद्रपद में रात्रि का भोजन करना ही नहीं चाहिए, आश्विन मास के दोनों ही पक्ष सतर्कतापूर्वक व्यतीत करने चाहिए अन्यथा अस्वस्थ हो जाने की आशंका हो ही जाती है.
क्वांर करेला, चेतै गुड,
भादौं में जो मूली खाय;
पैसा  खोवै गांठ का
रोग-झकोरा खाय !
अर्थात-----अश्विन मास में जो करेला, चैत्र मास में गुड और भाद्रपद मास में मूली का सेवन करते हैं, वें गाँठ का पैसा गंवाकर उससे रोग ही अपने पास में बुलाते हैं.
कातिक-मास, दिवाली जलाय;
जै बार चाबै,  तै बार खाय !
अर्थात---कार्तिक मास में दीपावली की पूजा करने के पश्चात ऎसी ऋतु आ जाती है कि भोजन का परिपाक भली प्रकार से होने लगता है, उन दिनों इच्छानुसार भोजन जितनी बार चाहें कर लिया करें.सब खाया-पिया अच्छी तरह से शरीर को लगेगा और चेहरे पर कांती रहेगी.
चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे पंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
अर्थात---चैत्र मास में गुड का सेवन करना अहितकर है, क्योंकि नया गुड शरीर में कफकारक होता है और इस मास में प्रकृति के अनुसार कफ की बहुलता रहती है. वैशाख में गर्मी की प्रखरता रहती है, तेल की प्रकृति गर्म होती है इसलिए हानिकारक है. ज्येष्ठ मास में लू-लपट का दौर रहता है, अतएव यात्राएं वर्जित हैं. आषाढ मास में बेल का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अनुकूल नहीं पडता, पेट की अग्नि को मंद कर देता है. सावन में वायु का प्रकोप रहता है, साग वायुकारक हैं, अतएव प्रतिकूल रहता हैं. भाद्रपद में वर्षा होती रहती है और दही पित्त को कुपित करता है. आश्विन में करेला पककर पित्तकारक हो जाता है, अतएव हानिकर सिद्ध होता है.
कार्तिक मास, जो कि वर्षा और शीत ऋतु का संधिस्थल है,  उसमें पित्त का कोप और कफ का संचय होता है और मही(मट्ठा) से शरीर में कफ बढता है, इसलिए त्याज्य है. अगहन(मार्गशीष) में सर्दी अधिक होती है, जीरा की तासीर भी शीतकारक है, इसलिए इससे बचना चाहिए. पौष मास में धान, माघ में मिसरी और फाल्गुन में चना शरीर के लिए प्रतिकूल बैठते हैं, इनको ध्यान में रखकर जो मनुष्य खान-पान में सावधानी रखते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं, उनको कभी डाक्टर-वैद्य की आवश्यकता नहीं पडती.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

दिल छोटे और झोलियाँ बडी.......

आज बहुत दिनों के बाद मन्दिर जाना हुआ.कोई पूजा-पाठ करने के विचार से नहीं---बस यूँ ही, टहलने निकले तो खुद-ब-खुद कदम उधर को उठ पडे. गया तो क्या देखता हूँ---भिखारियों, व्यापारियों और खुशामदी पिट्ठुओं की रेलमपेल मची हुई है. बाप रे! इतनी भीड! अमीर-गरीब, औरत-मर्द, विद्यार्थी, व्यापारी, प्रेमी-माशूक, रोगी, सभी माँगने में जुटे हैं.ये नहीं कि हम ईश्वर से प्रेम करना सीखे, उल्टे जिसे देखो हाथ फैलाये वही कुछ न कुछ बस माँगने में जुटा है........लगता है दिन-ब-दिन लोगों के दिल छोटे होते जा रहे हैं और झोलियाँ बडी!
मन ही मन पत्थर की मूरत में छिपा 'वो' भगवान भी जरूर सोचता होगा-----यार! आजिज आ गया इन दरिद्रों से!
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

रविवार, 12 दिसंबर 2010

समझदारी का तकाजा

उस रोज देखा कि सडक के किनारे धूप में एक आदमी पडा हुआ है. हड्डियों का मात्र ढाँचा रह गया है और बस कुछेक देर का मेहमान है. चलती सडक----बहुत से लोग आ-जा रहे थे. राहगीर उसकी तरफ देखते, थोडा ठहरते और फिर आगे बढ जाते. उसने भी क्षणभर के लिए ठहरकर उसकी तरफ देखा और आगे बढ गया.
वो अभी महज चन्द कदम ही चला होगा कि चलते-चलते अचानक से ठिठककर रूक गया, देखा बीच सडक में मुडा-तुडा, पुराना सा एक 100 रूपये का नोट पडा है. इधर-उधर निगाह दौडाई, कि कहीं कोई देख तो नही रहा. जब पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर नहीं है, तो उसने आहिस्ता से झुककर नोट उठाया और जेब के हवाले कर लम्बे-लम्बे डग भरता दूर निकल गया..........
शायद वो जानता था, कि दुनिया दया से नहीं समझदारी से चला करती है.....
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बेचारा !

हाथी की विशालता देख-देख मच्छरों का झुंड हँसे जा रहा है----"अरे देखो कितना भारी शरीर है. कैसी बेढब शक्ल-सूरत है. खूबसूरती तो है ही नहीं. न ही कोई गुण है. हमें तो दया आती है इसे देख कर ! हमारी तरह जरा इधर-उधर उड भी नहीं पाता बेचारा !"
सोचता हूँ,  सचमुच आज के जमाने में मच्छरों से बढकर संसार में भला ओर कौन गुणी है ? निस्सन्देह परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मच्छर ही है!

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धर्म यात्रा
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रफ़्तार