इसी विषय में स्वामी रामकृ्ष्ण परमहँस के एक शिष्य की बडी मनोरंजक घटना याद आ रही है------स्वामी जी नें एक दिन अपने प्रवचन में कहा" सब प्राणियों में ईश्वर विद्यमान है. हमें उसका आदर करना चाहिए". बस एक शिष्य महोदय बाहर निकले तो सब प्राणियों को----गधा, घोडा, बैल, कुत्ते को भगवान समझकर नमस्कार करने लगे. इतनें में एक हाथी जो पागल हो गया था, चिंघाडता हुआ आया. उसका महावत हाथी पर ही बैठा बैठा उसे काबू में लाने की कौशिश में जुटा था. लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी. इसलिए वह चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को आगाह कर रहा था---"बचो! भागो, भागो! हाथी पागल हो गया है!" लेकिन हमारे शिष्य महाशय क्यों भागने लगे? वे हाथ जोडकर और नतमस्तक होकर हाथी देव के आगे खडे हो गए, पर देवता नें उनकी पूजा की कोई परवाह नहीं की, ऎसी सूंड फटकारी कि वे कईं हाथ दूर जा गिरे और लहूलुहान हो गए. जब स्वामी रामकृ्ष्ण नें पूछा कि--"तुम भागे क्यूँ नहीं ? तो जवाब मिला कि "हाथी में तो ईश्वर है न, मैं उस ईश्वर के सामने से कैसे भाग सकता था ?". स्वामी जी नें मुस्कुराते हुए कहा, "पागल हाथी में जो ईश्वर था, उसकी बात तो तुमने मान ली, लेकिन उस महावत में बसा ईश्वर जो तुम्हे आगाह कर रहा था, उसकी बात क्यों नहीं मानी ?"

दुनिया नव निर्माण करे ये मुर्दे गडे उखाड रहे हैं
नहीं समझते 'मूर्ख' अपनी जीती बाजी हार रहे हैं !!
33 टिप्पणियां:
कहानी इस तरह भी बताई जाती है कि व्यक्ति ने सोचा मुझमें ईश्वर का अंश, यह हाथी मेरा क्या बिगाड़ सकता है. रामकृण परमहंस ने समझाया कि हाथी तुझे हाथी ही दिखा, उसका ईश्वर तू क्यों नहीं देख पाया.
वाह बहुत बढिया कहाणी करी पंडत जी
जी सा आग्या।
राम राम
वत्स साहब,
बहुत सही कहा आपने, हम समझ गये। वैसे उम्मीद है आपको कि जिनके लिये ये कहानी है, वो समझेंगे? :))
@ भाई संजय जी,
बस, ये सब देख देख कर दिल दुखा तो लिख मारा.बाकी रही बात समझने-समझाने की तो जिसके सोच उसकी शिक्षा, उसके धर्म ग्रन्थ नहीं बदल सके तो ऎसा सोचना भी किसी मूर्खता से कम नहीं कि वो हमारे लिखे को पढकर अपनी सोच बदल देगा.
बाकी हमने भी लिखा इसलिए कि कभी कभी ऎसी "मूर्खताएं" कर लेने का मन हो उठता है :)
@ललित जी,
महाराज! जितना "जी सा" आपको कहानी पढकर आया होगा, उससे अधिक हमें आपको यहाँ देखकर आ गया---जी-सा :)
5.5/10
आपकी यह हास्य-कहानी अच्छी लगी. इसका बोधात्मक पक्ष याद रखने लायक है.
उस्ताज़ जी
कंजूसी कर गए
नम्बर कम दिए :)
पंडित प्रवर,
स्पष्ठ बोध!!
पर,
आज कौन है निशाने पर?
क्या लिखुं अफ़्साने पर।
कौन लेख है उत्प्रेरक,
कहां टिप लगाने पर?
वत्स जी
मुझे लगता है व्यक्ति को जीवन में व्यवहारिक होना चाहिए जीवन में जैसी परिस्थितिया आती जैसे उसी के अनुसार व्यवहार करते जाना चाहिए ना की किसी किताब ग्रन्थ को ही सम्पूर्ण सत्य समझ लेना चाहिए | वैसे आप ने पता नहीं ये किसके लिए लिखा है पर हमने भी पढ़ लिया और जो ठीक लगा लिख दिया |
श्रीमान वत्स जी ,
९.५ / १०
अत्यंत प्रेरक बोध कथा है ! इसे हास्य कहानी मानना बचकानापन है !
ये नकली उस्ताद जी का कमेंट हटाइये वत्स जी। इनको कापी जांचने की अक्ल नही है। हम हैं असली उस्ताद पटियालवी और आपकी इस लघु कथा को पूरे 29/30 नंबर देते हैं और उस्ताद बाल गोविंद ने सही मुल्यांकन किया है इसलिये बालगोविंद उस्ताद को हमारा आशीर्वाद पहुंचे।
अच्छा लेख, पढ़ कर मजा भी आया और एक नया शब्द भी सीखा "पठन मूर्ख" आपने अच्छी बात कही, आभार
पंडित जी पोस्ट पढकर तो मजा आ गया/ आपने जिन्हे ध्यान में रखकर इसे लिखा है उसे भी अच्छी तरह से समझ रहा हूँ/ इन लोगो का कोई दीन मजहब नहीं है जी/ सब के सब पागलों की जमात है/
प्रणाम/
प्रेरक बोध कथा। आभार!
पठन मूर्खों की श्रेणी को आपने इंगित किया -सही नामकरण !
मगर ई उस्ताद जी को यहाँ केवल ५.३० अंक ही समुझाया ....
कहते हैं जिसका ब्लॉग उपेक्षित हो रहता है और खुद कोई टिप्पणी नहीं पाता वह
टिप्पणियों का मूल्यांकन करने लग जाता है .....अखाड़े के लत्मरुये भी पहलवान बन जाते हैं ..
बहुत ही प्रेरक कथानक और आलेख।
प्रेरणात्मक कहानी वाली पोस्ट हेतु आभार |सचमुच आजकल कथनी और करनी में बहुत फर्क है |
पंडित जी,
उन्हें क्या कहेंगे जो स्वयं को पशु तुल्य मानते हो और पशु के लक्षणों को ही अपना जीवन लक्ष्य मानते हो?
हमें तो पशुओं पर 'दया'ही करनी चाहिए न ?:)
शर्मा साहेब, सबकी अपनी अपनी समझ है जनाब! इसमें उन लोगों का भी भला क्या कसूर! अल्लाताला ने जैसी और जितनी बुद्धि बख्शी है, उसी का ही तो इस्तेमाल करेंगें न :)
@वत्स जी
वाह ! क्या बात है !
लेकिन बात क्या है ?:)
लेख में ये घटना अच्छी बताई आपने ... कभी रेफरेंस में काम में लूँगा :)
@ हँसराज जी,
आज के इस युग में शायद वही व्यक्ति इस प्रकार की पशुतुल्य "लम्पट" सोच रख सकता है, जिसने इसे जन्मजात पाया हो, या जिसकी बुद्धि का दिवाला पिट चुका हो, या फिर वह व्यक्ति हो सकता है, जिस पर सभ्यता के इस युग में भी आदिम युग के संस्कार अभी बचे हुए हैं....
अब ये तो ऊपरवाला जानता है कि ये बन्दे(?) किस कैटागिरी में फिट होते हैं :)
लेकिन आश्चर्य होता है,पशुतुल्य "लम्पट" सोच को सरे आम भी करते है। पशुता के लक्षण आहार संज्ञा, मैथुन संज्ञा और इन्द्रिय पोषण जो पशुओ के लिये भी तात्कालिक जरूरतें है, ये तो अपना जीवन ध्येय ही मान बैठे है।
सम्भवतया पशुयोनि के ही जीव होंगे, किसी छोटे से अकाम-कर्म से मनुष्य योनि पा गये?
@हँसराज जी,
अकबर इलाहाबादी साहब का एक शेर याद आ रहा है---
"हज़रते डार्विन, हकीकत से बहुत दूर थे।
हम न मानेंगे, हमारे मूरिसान(पूर्वज) लंगूर थे।"
वैसे हम भी नहीं मानते...लेकिन इन लोगों की हरकतों को देख देखकर लगने लगा है कि डार्विन की विकासवाद की अवधारणा में कुछ तो सच्चाई है...हाँ ये हो सकता है कि इस विकासक्रम में कुछ प्रजातियाँ छूट गई हों...ये लोग उन्ही प्रजातियों के जीव हों, जिनका समग्र विकास न हो पाया है..पशु से मनुष्य बनने की इस क्रमिक विकास यात्रा में ही कहीं बीच में अटके पडे हों.....:)
पंडित जी,
आपकी बात सही है।
‘पशूनां समजः, मनुष्याणां समाजः’ पशुओं का समूह ‘समज’ होता है और मनुष्यों का समूह ‘समाज’। अर्थार्त, पशुओं के तो झुंड हुआ करते है, समाज तो मात्र इन्सानो के हुआ करते है।भेद मात्र यही है कि पशुओं के पास भाषा या वाणी नहिं होती। जहां भाषा या वाणी होती है वहीं ‘चिंतन’ होता हैं। आज मनुष्यों ने भाषा व चिंतन होते हुए भी समाज को तार तार कर विचार-शून्य झुंड(भीड) बना दिया हैं।
बहुत ही प्रेरक कथानक ।
@हँसराज जी,
भाषा व चिन्तन की आपने सही कही....
दरअसल हर मनुष्य को अपने परिवेश के अनुकूल दैनन्दिनी जीवन क्रियाकलापों लायक समझ और अनुभव, उसकी भाषा का परिवेशी विस्तार दे देता है. जैसे-जैसे वह दूसरों के ज्ञान और विचारों से जितना परिचित होता जाता है, उसका चिंतन भी तदअनुरूप विस्तार पाने लगता है...भाषा एवं चिन्तन का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है, बल्कि यूँ कहना तो ये चाहिए कि भाषा के साथ ही चिन्तन बँधा हुआ है..लेकिन आज ये बन्धन टूटता हुआ दिखाई देने लगा है...भाषा आगे निकल गई और चिन्तन पीछे छूट गया...
दूसरी ओर,मनुष्य के चिंतन का स्तर भी तो इसी बात पर निर्भर करता है, कि वह अद्यतन ज्ञान के किस स्तर तक संपर्क में आ पाया है...
प्रेरक पोस्ट
मैं भी ऐसा ही पठन मूर्ख हूँ जी :)
प्रणाम
आभार पंडित जी,
चिंतन पर सारयुक्त विचार!!
एक सुवचन है…
"शिक्षा से मानव शिक्षित कहलाता है और वह सर्वत्र आदर पाता है। किन्तु शिक्षित की अपेक्षा चरित्रवान अधिक आदर पाता है। शिक्षित के खिलाफ़ अंगुली निर्देश सम्भव है पर चरित्रवान के खिलाफ़ यह सम्भव नहिं। यहां कथनी और करनी की एकरूपता हो जाती है।"
जो शिक्षित होकर भी चरित्रवान(मानवीय गुण) नहिं बन पाते, 'पठन मूर्ख' ही है न?
बहुत ही सार्थक और सुंदर पोस्ट, बहुत आभार पंडित जी आपका.
रामराम
आज नकली उस्ताद जी नही दिखे? कहीं घूमने गये क्या?
आप सभी का बहुत आभार।
प्रेरक बोध कथा ... कहानी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ...
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