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रविवार, 5 दिसंबर 2010

मियाँ नौचंदी चले गये.........

सुबह सैर को निकले तो राह में अपने बिलागर भाई मियाँ नौचंदी मिल गए. दुआ-सलाम हुई तो पूछ लिया कि क्या बात है मियाँ! बहुत दिनों से आप ब्लागिंग में दिखाई नहीं दे रहे. ऎसे कौन से काम में उलझ गये कि ब्लाग लिखने का भी समय नहीं मिल पा रहा."
मियाँ नौचंदी:----" अजी छोडिये पंडित जी, क्या रखा है इस ब्लागिंग-फ्लागिंग में. यूँ समझ लीजिए कि बस अब इससे हमारा मन भर गया है."
"कमाल है मियाँ! ऎसी भला क्या बात हो गई कि यूँ मन उचाट कर बैठे?"
मिय़ाँ नौचंदी:- "अब क्या बतायें जनाब! पहले तो दुनियादारी से ही फुर्सत नहीं मिलती. गर इधर-उधर से कुछ टाईम निकालकर कभी लिखने का मन बनता भी तो बेगम सिरहाने आन खडी होती. न मालूम किसने उसके दिमाग में ये फितूर भर दिया कि मियाँ ब्लागिंग के बहाने औरतों से चैटिंग किया करते हैं. लाहौल-विला-कुव्वत! बताईये पंडित जी आपको क्या हम ऎसे आदमी दिखते हैं?"
"ओह्! मियाँ ये तो आपके साथ बहुत ही बुरी हुई. बहरहाल, आपको उनकी इस गलतफहमी को दूर कर देना चाहिए था."
"ये हम ही जानते हैं कि हमने उनके इस दिमागी फितूर को कैसे दूर किया. हमें कैसे-कैसे पापड नहीं बेलने पडे इसके लिए"
" चलिए गलतफहमी तो दूर हो गई न ! फिर ब्लागिंग से मन उचाट होने का ऎसा कौन सा कारण रहा ?"
मियाँ नौचंदी:-- "अजी पंडित जी, अब क्या बतायें आपको. देखिए हम कोई लेखक या कवि तो हैं नहीं कि दिन-रात मन में भाव उमडे पडे जा रहे हैं. हमें तो एक पोस्ट लिखने के लिए भी पूरे हफ्ता भर दिमाग का तेल निकालना पडता है. ऎसे में भला हम क्या तो ब्लागिंग करें और क्या छोडें?"
"लो कर लो बात! अरे मियाँ यहाँ कौन से साहित्यकारों का अखाडा जमा है. सबके सब तो आप और हम जैसे ही हैं. आपके जो जी में आए, वो लिखिए---इसी का नाम ही तो ब्लागिंग है. वैसे एक बात है, अभी तक आपने जितनी भी पोस्टें लिखी हैं, उन्हे देखकर तो कोई भी नहीं मान सकता कि यें किसी अनाडी के हाथों लिखी गई हैं."
मियाँ नौचंदी:-" ये तो आपकी जर्रानवाजी है पंडित जी, वर्ना हम भला लिखना क्या जाने"
" अरे नहीं मियाँ, हम मजाक नहीं कर रहे, सच मानिये. हमें तो आपको पढना बहुत अच्छा लगता है. लेकिन, एक बात है कि ब्लागिंग से मन उचाट होने की इतनी सी वजह तो नहीं हो सकती. बताईये ऎसी भला क्या बात हो गई?"
मियाँ नौचंदी:- " बात ये है पंडित जी, कि हमारे बिलाग पर तो कोई कुत्ता भी झाँकने नहीं आता. हम इतनी मेहनत से अगर कुछ लिखते भी हैं तो उसे पढने वाला ही कोई न मिले तो ऎसे लिखने का भी भला क्या फायदा?"
"अरे! तो ये बात है! मियाँ तुम भी न निरे'खाँटी" आदमी हो. भाई हम हैं न आपको पढने वाले"
मियाँ नौचंदी:--"छोडिए पंडित जी, पूरा साल भर इस हमाम में रहकर हम तो इतना जान पायें कि जैसे वेश्यायों के घर में नकद नारायण की पूछ होती है, वैसे ही यहाँ ब्लगिंग में भी सिर्फ टिप्पाचारियों का ही आदर होता है. यहाँ क्या खबीस और क्या पट्ठा---सब एक बराबर है. पूछ उसी की है जो दे दनादन आँख मूँदकर एक लाईन से टीपना जानता हो. आपने वो कहावत तो सुनी ही होगी, कि--"जिसकी जेब में चाँदी है, तवायफ उसी की बान्दी है"
"कह तो आप ठीक ही रहे हैं, लेकिन........"
मियाँ नौचंदी---लेकिन-वेकिन को मारिए गोली पंडित जी, यूँ भी आजकल ब्लागिंग में बडे भारी खतरे हो रहे हैं. देखते नहीं कि आए दिन वहाँ किसी न किसी भले आदमी की बेईज्जती खराब हो जाती है"
"लो कर लो बात, मियाँ क्या इसी हिम्मत पर ब्लागिंग करने चले थे ? भाई जब ऎब पालने का शौक रखते हो तो इज्जत को ताक पर रख देना चाहिए. ब्लागिंग को आपने क्या हँसी ठठ्ठा समझ रखा है. मियाँ ये तो वो कूचा है, जिसमें से सिर के बल गुजरना होता है. कहते हैं कि----"कटाए सर को उल्फत में वही सरदार होता है!"
मियाँ नौचंदी:- " अजी छोडिए पंडित जी, मारिए गोली ऎसी सरदारी को. हमें नहीं चाहिए ऎसी सरदारी जिसमें इज्जत का दिवाला पिट जाए. अच्छा तो पंडित जी अब चला जाये, एक बहुत जरूरी काम याद आ गया. फिर मिलते हैं"

इतना कहकर मियाँ नौचंदी तो अपने रास्ते निकल लिए और हम खडे सोच रहे हैं कि काश हमसे कहने की बजाय मियाँ ब्लाग पर इस बात की घोषणा करके जाते कि "हम ब्लागिंग छोड रहे हैं" तो भला कौन जाने देता उन्हे. अब तक तो भाई लोगों नें "ब्लागर बचाओ आन्दोलन" छेड दिया होता.
 ओह! न जाने अब ब्लागजगत इस अपूरणीय क्षति को कैसे सह पाएगा......:)
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

उस युग से इस युग तक.........

सुनने में आता है कि आदिकाल से चलकर इस आधुनिक युग तक पहुँचे मानव नें भरपूर प्रगति की है. इस दौरान उसके रहन-सहन, उसके कार्य आदि में नि:संदेह कईं परिवर्तन हुए हैं. जरा उस आदिमानव के बारे में सोच कर देखें, जो जंगल में शिकार की खोज में घूमता होगा और इधर आधुनिक मनुष्य, इस वैज्ञानिक युग का मनुष्य अपने आविष्कारों का पूरा लाभ उठा रहा है, प्रगति का यह एक पहलू तो है.खान-पान, रहन-सहन, आवास, सुख-सुविधाएं---सभी में प्राचीन काल से लेकर अब तक बहुत भारी परिवर्तन हुए हैं. कालचक्र के घूर्णन के साथ-साथ इन्सान उन्नति करता चला आया है.
लेकिन फिर भी एक बात जरूर सोचने की है कि आखिर ये 'प्रगति' है क्या ? क्या यह इन्सान के दिमाग तथा उन्नति की उत्क्रान्ति है ? क्या वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने की क्षमता को प्रगति कहेंगें? या प्रकृति का दास बनने की बजाय उनका स्वामी बनने का नाम प्रगति है?
सच पूछिए, तो मैं आजतक प्रगति नाम के इस शब्द का वास्तविक अर्थ समझ नहीं पाया हूँ. क्या यह मनुष्य की अन्वेषण तथा खोज की प्रतिभा का विकास है ? जब हम यह कहते हैं कि इन्सान नें जंगली जीवन से आज के सभ्य जीवन तक इतनी उन्नति की है, तब हमारे दिमाग में मनुष्य की संपन्नता, सुख-सुविधा के यह सारे प्रतीक रहते हैं, हैं ना ? ओर एक स्तर पर कोई भी इस उन्नति को, प्रकृति के ऊपर समय तथा स्थान विशेष पर की गई मानवी विजय को झुठला नहीं सकता.
माना कि प्रौद्योगिकी के इस विकास को परे नहीं रखा जा सकता. पर इन्सान इतनी उन्नति के बाद क्या अपने आदिकाल से कम हिँसक, कम लालची और कम स्वार्थी है? क्या वह आपसी सम्बन्धों के प्रति अधिक सभ्य है? क्या वह पहले से अधिक विचारशील है ? क्या वह न्याय और औचित्य पर बल देता है? क्या वह सुसंस्कृत है? इतने वर्षों, इतने युगों में उसने जिस विकास को जन्म दिया है, क्या उस विकास नें उसे और परिष्कृत बनाकर एक सच्चे मानव का रूप दिया है ? क्या इतने विकास के बावजूद भी इन्सान सुखी हैं ? क्या मनुष्य नें पृथ्वी पर पाई जाने वाली व्यवस्था से अपने सम्बन्ध को पहचाना है ? क्या वह भावनाओं के प्रति संवेदनशील है ? क्या उन्नति के साथ-साथ उसके ह्रदय का क्षरण नही हुआ है ? यदि उसके अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ, तब इस प्रगति का क्या अर्थ है ? जीवन, सभ्यता तथा संस्कृति का क्या अर्थ है?
क्या यह सम्भव है कि हम 'प्रगति' नाम की इस औद्योगिक उन्नति का लाभ उठाते हुए अंदर से मानव बने रहें? किन्तु मानवता क्या है ?.......सोचियेगा जरूर!!! एक बार!!! स्वयं की खातिर्!!!
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

रविवार, 28 नवंबर 2010

काश ! पुस्तकें बोल पाती...........

पुस्तकों का सौभाग्य देखिए, कि कल तक जो लाईब्रेरियों में धूल फाँका करती थी, आज इस आधुनिक युग में उन्हे भी ड्राईंग रूप में स्थान मिलने लगा है. कोठी और बंगलों को तो छोडिये, अब तो एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवारों में भी कुछ सुन्दर आवरण पृ्ष्ठ और सुनहरी जिल्दों से सुसज्जित पुस्तकें करीने से शो पीस बनाकर रखने का रिवाज हो गया है. मैने ऎसी पुस्तकें अपने कईं जानकारों के यहाँ सजी धजी मुद्रा में शो-केस में लगी देखी हैं, जिन्हे छूने का भी कष्ट कोई नहीं करता. भडकीली जिल्दों से सुसज्जित बडी-बडी पुस्तकें आप वहाँ देख भर सकते हैं-----पढने का फैशन नहीं है; बस पढे-लिखे दिखने दिखाने का फैशन है. घर में बीसियों आर्ट पीस हैं तो पुस्तकें भी उन्ही की संगी साथी बन शोभा बढाती रहें, यही इन बडे घरों में इनकी सार्थकता है. घर के मालिक को न तो उनके नाम और लेखक का पता है और न उनकी विषयवस्तु से कोई परिचय है. फिर भी अपनी सौन्दर्यकृ्ति और सांस्कृ्तिक स्थिति के कारण घर में ठौर पा सकी हैं. ऎसी शोभाकारक पुस्तकें जीवन भर अछूती ही रहती हैं. बस झाडने-पौंछने के सिवा उन्हे कोई नहीं छूता, पढने की बात तो कोसों दूर है.

हमारे एक व्यापारी मित्र हैं, मैने एक बार उनके ड्राईंग रूम में करीने से सजी-धजी हू-बहू एक ही आकार-प्रकार की 20 पुस्तकें देखकर उनसे पूछ लिया कि क्या यें एक ही पुस्तक की बीस प्रतियाँ हैं या अलग-अलग पुस्तकें हैं, देखने में तो सब की सब एक जैसी लग रही हैं. उस भले आदमी नें बडे उपेक्षा भाव से जवाब दिया कि "ये किताबें इन्टीरियर डेकोरेटर नें सजाई हैं. ये भी एक तरह से आर्ट-पीस ही हैं. सिर्फ सजावट के लिए रखी गई हैं. इनटीरियर डेकोरेटर नें कह रखा है कि इनका स्थान न बदला जाए, इन्हे पढने के लिए नहीं ड्राईंगरूम की शोभा के लिए रखा गया है" . शायद वे पुस्तकें इनसाईकलोपीडिया की चमकदार जिल्दों से सजी बीस प्रतियाँ थी. बेचारा भला आदमी इनकी यथास्थिति में खलल क्यों पैदा करे.
यह सब देखकर मैं सोचने लगता हूँ कि जिस विद्याध्ययन को सर्वश्रेष्ठ ठहराया जाता है: "सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुसूत्तमम" और जिसके विषय में कहा गया है कि : "न चौरहार्य न च राजहार्य, न भ्रातृ्भाज्यं न च भारकारी"----वह पुस्तकें उत्तम नहीं रहती और भार क्यों बन जाती हैं ? खैर कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन यह तो मानना ही होगा कि पुस्तक संग्रह की चरम परिणति अच्छी नहीं होती. पुस्तक की पराकाष्ठा या परागति उसकी दुर्गति में निहित है. सचमुच यह बडे खेद का विषय है. क्या पुस्तकों को दुर्गति तक पहुँचाने के लिए ही हम पुस्तकें संकलित करते हैं.
पुस्तकों की व्यथा कथा कोई नहीं सुनता. रद्दीवाले की दुकान ही उनकी अन्तिम शरण स्थली है. दूसरी गति तो उनका नष्ट होना ही है. काश्! पुस्तकें बोल पाती, मुखर होती और घर से निकाले जाने पर अपना ज्ञान भी वे अपने साथ ले जाती---तब जाकर मानवजाति परम्परा प्राप्त ज्ञान से वंचित होकर पुस्तकों के महत्व को समझ पाती.
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

डाक्टर.....भगवान...और मेरा विद्रोही मन

कुछ दिन पहले का एक वाकया है. हालाँकि, आज के इस युग में ऎसे वाकये अपने आप में इतने साधारण है कि उस पर कोई ध्यान न दिया जाए, तो उसकी यह उपेक्षा किसी अपराध के दर्जे में खींच-तान कर भी दर्ज नहीं की जा सकती.परन्तु एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते ऎसा कुछ देखना मन को सालता तो जरूर है.
हुआ ये कि,लगभग सप्ताह भर पहले की बात है, शायद मौसम में बदलाव की वजह रही होगी, लगातार दो तीन दिन हमें बुखार से जूझना पडा. वैसे तो मैं, ऎलोपैथी ईलाज से हमेशा से ही दूर रहता आया हूँ. मेरा विश्वास सिर्फ आयुर्वेद पर ही टिका है. लेकिन आजकल फैले डेंगू के प्रकोप की वजह से पत्नि इस जिद पर अडी रही कि चलकर एक बार डाक्टर को दिखा लिजिए. सो, न चाहते हुए भी इस बार उसकी जिद के आगे झुकना ही पडा और मन को मारते हुए पहुँच गये डाक्टर के पास.
डाक्टर वर्मा----एम.बी.बी.एस(एमडी)और भी जाने कौन-कौन सी डिग्रियाँ जिनके नाम से जुडी हुई है. शहर के नामी काबिल डाक्टरों में गिने जाते हैं. वहाँ पहुंचें तो देखा हमसे पहले ही कोई आठ-दस मरीज अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे हैं. बाहर काऊन्टर पर एक छुईमुई सी लडकी बैठी थी, जो हर आने वाले का नाम अपने रजिस्टर में दर्ज कर उसके हाथ में एक टोकन थमा देती. हमने भी उसके बही-खाते में अपना नाम लिखाया और टोकन थामे अपनी बारी का इन्तजार करने लगे. बैठे-बैठे कोई आधा घंटा बीत गया, लेकिन बारी है कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी और इधर मरीजों की भीड है कि बढती ही चली जा रही थी. घंटे भर बाद तो ये हालत थी कि बैठना तो दूर, बल्कि क्लीनिक में खडे होने भर की भी जगह नहीं थी. ऎसा लग रहा था कि मानो सारे शहर भर के मरीज इन्ही के यहाँ इकट्ठे हुए जा रहे हैं.
बहरहाल, हम कुनमुनाते हुए से बैठे इन्तजार करते रहे. बस अब हमारा नम्बर आने ही वाला था. हमसे पहले के मरीज की जाँच चल रही थी. हम अपनी सीट से उठकर, दरवाजे के पास खडे बारी की इन्तजार में ही थे, कि तभी एक 28-30 साल का एक नवयुवक बाहर से आया और बिना इधर उधर देखे, सीधा डाक्टर के केबिन में घुस गया. हमें कोफत तो बहुत हुई कि यहाँ हम पिछले डेढ घण्टे से बैठे इन्तजार किए जा रहे हैं और ये मुँह उठाये लाट साहब की तरह घुस गया. सचमुच इस देश में नियम, सिस्टम नाम की कोई चीज रह ही नहीं गई है. लेकिन भला किया भी क्या जा सकता था,सिवाए कुढने के. अब डाक्टर से लडने से तो रहे.
खैर, हम खडे खडे अपना ओर अधिक खून जलाते कि तभी उस लडके की आवाज सुनाई दी. हमें लगा कि वो डाक्टर को अपने साथ चलने के लिए कह रहा है. थोडा ध्यान दिया तो मालूम पडा कि अचानक से उसके पिता को रीढ की हड्डी में कोई समस्या हुई है, जिसकी वजह से वो बिस्तर से उठ पाने में भी असमर्थ है. इसलिए ही वो डाक्टर को अपने साथ चलने के लिए कह रहा था. लेकिन डाक्टर नें इस समय उसके साथ चलने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी. उसका कहना था कि बाहर इतने मरीज बैठे हैं. फिलहाल उन्हे छोडकर मैं नहीं जा सकता. तुम उन्हे गाडी में डलवाकर यहीं ले लाओ. लेकिन युवक बारबार यही कहता रहा कि उसके पिता की हालत ऎसी है कि,वो इस समय अपने शरीर का कोई भी अंग नहीं हिला पा रहे हैं. पीठ इस कदर अकडी हुई है कि जरा सा हाथ लगाते ही दर्द से चिल्ला उठते हैं. हालत ऎसी नहीं है कि बिस्तर से एक इंच भी उठ पायें.
युवक के मुँह से निकला "प्लीज" शब्द कईं बार मेरे कानों तक पहुंचा, मगर बदले में डाक्टर की ओर से बार-बार सिर्फ यही सुनने को मिलता रहा, कि "नहीं मैं इस समय क्लीनिक छोडकर तुम्हारे साथ नहीं चल सकता. तुम उन्हे जैसे भी करके यहीं ले आओ".थोडी देर में युवक केबिन से बाहर निकल आया. उस समय उसके चेहरे पर छाई उदासी और लाचारी के भावों को कोई भी बडी आसानी से पढ सकता था.

तभी टोकन बाँटती उस लडकी द्वारा हमें इशारा किया गया कि आप जाईये.......अब आपका नम्बर है. मैने दरवाजा खोल अन्दर कदम तो रख दिया मगर उस समय दिमाग में कुछ ऎसे प्रश्न जन्म ले बैठे, जो मुझसे अपना समाधान भी माँग रहे थे.पहला प्रश्न यह कि: ये कहना कितना सही है कि डाक्टर भगवान का प्रतिरूप होता है? जिस डाक्टर नें किसी की विवशता और कष्ट को जानते-समझते हुए भी, उसके साथ चलना गवारा न किया, क्या वो भगवान का प्रतिरूप हो सकता है? एक दुकानदार और डाक्टर में भला क्या अन्तर है? और इस सवाल के जवाब में जैसे मैं स्वयं अपने आप से ही कह रहा हूँ; यह शायद पैसे के प्रभुत्व का ही अभिशाप है. हालाँकि, उस समय मेरे विद्रोही मन में ओर भी बहुत कुछ चल रहा था.चाहता भी था कि डाक्टर से वो सब कह डालूँ-----मगर ? कह न पाया! 

मेरे निकट इस वाकये का एक पहलू और भी महत्वपूर्ण है कि वह युवक समाज के उस अति प्रतिष्ठित डाक्टर की इस प्रकार की अनपेक्षित प्रतिक्रिया से बच पाया. इस मायाचक्र से वह कैसे बच पाया, यह स्वयं अपने आप में मेरे लिए तो विस्मय का एक मायाचक्र ही है. वो डाक्टर उसकी विवशता को जानते-समझते हुए भी साथ चलने को तैयार नहीं हुआ; यह जानकर भी कि उसके पिता यहाँ आने में असमर्थ हैं, वो भीषण शारीरिक कष्ट से गुजर रहे हैं.
उसे भीतर ही भीतर चाहे जितना क्रोध आया हो, पर डाक्टर के प्रति उसकी कृतज्ञता अभंग रही....जाते समय भी वो डाक्टर का अभिवादन करके गया. मगर मैं ?
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

बुधवार, 24 नवंबर 2010

जो बुद्धि की कसौटी सहन कर सकता हो, वही असली धर्म है !!!

कुछ लोग हैं, जो मानते हैं कि बुद्धि और धर्म दोनों एक दूसरे के विपरीत तत्व है। इन दोनों के क्षेत्र बिल्कुल अलग-अलग है. बात है भी सही। क्योंकि जहाँ बुद्धि तर्क पर चलती है, वहीं धर्म श्रद्धा पर। लेकिन इतने पर भी बुद्धि खुद समझती है कि मेरी हद कहाँ तक है। इसलिए, यदि बुद्धि का प्रयोग करने से कोई विश्वास, कोई धर्म टूटता है तो उसे टूटने ही देना चाहिए। बुद्धि की कैंची से जो धर्म कट जाए, खंडित हो जाए---समझिए कि वह धर्म नालायक है। जो बुद्धि की कसौटी सहन कर सकता हो, वही असली धर्म है। लेकिन जो ये सोचने का अंग है, उसमें किसी धर्म के मानने वाले यदि यह कहें कि बुद्धि प्रयोग से हमारी परम्पराएं, हमारे विश्वास, हमारी धारणाएं खंडित होती है तो समझना चाहिए कि वें खंडित होने के लायक ही है।

बचपन में हमें कहा जाता था कि चोटी खुली रखने से ब्रह्महत्या का पाप लगता है। अब बचपन की बात है तो उस समय इतनी समझ भी कहाँ होती थी कि तर्क करने बैठें। सो जैसा कहा गया वैसा मान लिया। कुछ बडे हुए तो उसकी गम्भीरता समझ में आई और पूछ बैठे कि यदि चोटी न बाँधने से ही ब्रह्महत्या लग जाती है तो यदि कोई साक्षात ब्रह्महत्या कर दी जाए तो फिर कितना पाप लगेगा? बस, इसका किसी के पास् क्या जवाब होता। सो, टूट गई श्रद्धा। कहने का मतलब ये कि इस प्रकार की बेसिरपैर की बातों का बुद्धि से कोई सम्बंध नहीं है।
आज, चाहे कोई सा भी धर्म क्यों न हो, सबमें धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की अन्धश्रद्धाएं, भान्ती-भान्ती की कुरीतियाँ ही देखने को मिल रही हैं। इन्सान धर्म की आड में चल रही इन कुप्रथाओं को ही वास्तविक धर्म समझने लगा है। अब यदि कोई व्यक्ति इनके विरूद्ध आवाज उठाता भी है तो लोग उसे निज धर्म का खंडन मानने लगते हैं। लोगों को सोचना चाहिए कि अगर ये प्रथायें बुद्धि प्रयोग से खंडित होती हैं, तो उन्हे खंडित होने दें। अब यदि कोई उसे निज धर्म का खंडन मानता है तो उन्हे यह भी समझ लेना चाहिए कि वास्तव में धर्म कभी खंडित होने वाला नहीं होता। ओर जो खंडित हो जाए, समझो वो धर्म ही नहीं है। इसलिए उसके विषय में दुख करने, क्रोधित होने का कोई कारण ही नहीं है।

धर्म में, जो नाना प्रकार के मसलन बली प्रथा, कुर्बानी जैसे गैर जरूरी तत्व शामिल हो गए हैं, उन्हे हटाया जाए और स्पष्ट कहा जाए कि वे जरूरी नहीं है। भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी जो छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे का विरोध करते हैं, जरा जरा सी बात पर मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं, उन्हे ये समझना चाहिये कि अपनी कुरीतियों पर पर्दा डालने की बजाय, उसके बदले में सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जाए और उसके अनुसार जीवन चलाने का प्रयास किया जाए। ऎसा करने पर ही लोगों में धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा विकसित होगी और समाज भी सही रूप में प्रगति कर सकेगा।
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धर्म यात्रा

रविवार, 21 नवंबर 2010

ब्लागर्स से......मनुज प्रकृति से शाकाहारी (संडे ज्ञान)

ब्लागर्स से:-

रंगों की पहचान अन्धे के बूते की बात नहीं हुआ करती. आँख है तो ही दृश्य है. दृश्य पर नेत्रहीन की आस्था असम्भव है. इन्द्रधनुष जन्मान्ध के लिए आविर्भूत नहीं होता. गाने के तराने, राग-रागनियों की स्वर लहरियाँ  वज्र-वधिर के लिए कोई अस्तित्व नहीं रखती. मल्हार बहरे के लिए नहीं गाया जाता, न वीणा झंकृत होती है....इसलिए अधर्म का चश्मा लगाए बैठे अक्ल के अन्धों पर अपना समय नष्ट  करने की अपेक्षा उन पाठकों को ध्यान में रखते हुए लिखा जाए, जिनकी अक्ल और आँखें दोनों सलामत हैं...... 
आज संडे ज्ञान में श्री धन्यकुमार जैन जी कि एक कविता की चन्द पंक्तियाँ (स्मरण-शक्ति के आधार पर)प्रस्तुत है......

मनुज प्रकृति से शाकाहारी 
माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकाने !
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें !!
नहीं उन्हे है आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं!
नहीं कहीं के "बैंकर" बकरे
नहीं, "क्लर्क" खरगोश कही हैं !!
स्वर्णाभरण न मिलते उनको
मिलते उन्हे दुकूल नहीं है !
अत: दु:खी को और सताना
मानव के अनुकूल नहीं है !!

कभी दीवाली होली में भी
मिलती उनको खीर नहीं है !
कभी ईद औ क्रिसमिस में भी
मिलता उन्हे पनीर नहीं है!!
फिर भी तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं !
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं !!
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं !!
अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
मानव के अनुकूल नहीं हैं !!
क्या नहीं मनुज को खेत लुटाते
गेहूँ, मक्का, धान, चने हैं !
औ फल देने हेतु किमिच्छिक
दानी से उद्यान तने है !!
अत: बना पकवान चखो तुम
फल खाकर सानन्द जियो तुम
मेवों से लो सभी विटामिन
बलवर्द्धक घी, दूध पियो तुम !!
तुम्हे पालने में असमर्था !
धरती माँ की धूल नहीं है!
अत: अन्न, फल, मेवे रहते
माँस तुम्हे अनुकूल नहीं है !!

शाकाहारी और अहिंसक
बनो धर्म का मूल यही है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!



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धर्म यात्रा

शनिवार, 20 नवंबर 2010

हिँसा में जो शक्ति है, वह प्रेम में कहाँ.......

लोग 'प्रेम' की बात करते हैं, 'अमन' की बात करते हैं, 'करूणा' की बात करते हैं, लेकिन मैं कहता हूँ कि हिँसा में जो शक्ति है, वह न तो प्रेम में है, न अमन में,न शान्ती में और न ही करूणा, दया जैसी किसी भावना में है!

अतीत में बडे-से-बडे पैगम्बरों और अवतारों नें आपको प्रेम करना सिखाया है----मानवता से, सत्य से. जो पुण्य है उससे प्रेम करने की शिक्षा उन्होने दी है, परन्तु आपने अपने कईं हजार वर्षों के निरन्तर चलन से यह प्रमाणित करने की कीशिश की है कि आपकी हिँसा अमर है, प्रेम नहीं. जोर देने पर आप प्रेम को एक बाह्य परदे की भान्ती सामयिक तौर पर ओढ सकते हैं, परन्तु स्वतन्त्रता मिलते ही आप उस नकाब को नोच फैंकना चाहते हैं और फिर से अपनी मनचाही क्रीडाओं में व्यस्त हो जाते हैं. उस समय आप हर पिछली लडाई से अधिक भयंकर एक और लडाई लडते हैं, हिँसा की कालोत्पन सैरगाहों में मानवी रक्त के सुर्ख फुवारे आकाश-शिखर पर विजय पाने की कौशिश में लग जाते हैं और किसी शाहजहाँ की आँख से प्रेम और वफा के नाम पर बहाये गये उस एक आँसू-----ताजमहल को जमे हुए सफेद लहू से बनाये गये पाषाणों का एक ढेर-मात्र बना दिया जाता है.
मुझे विश्वास है कि यह सब इसलिए नहीं होता है कि आपको 'इन्सानियत' से बैर है(क्योंकि आखिर इन्सान आप स्वयं ही तो हैं और अपना विनाश किसी को प्रिय नहीं होता), बल्कि शायद आप यह सब कुछ इसलिए करते हैं कि आपको प्रेम,करूणा, दया के उपदेशों से ही घृणा है. एक मासूम बालक की भान्ती-----आपके प्राकृतिक मासूमपन अथवा निर्विकार होने और इस परम विशाल प्रकृति के उस अनदेखे सिरजनहार के सम्मुख आपके और अपने बचपने का मैं निरापद रूप से कायल हूँ------आप अपनी जिद मनवाने के लिए अपने निजि नुक्सान की भी चिन्ता नहीं कर रहे. अत: मनोविज्ञानवेत्ताओं के आधुनिक शिक्षानुसार मैं आप पर धर्मोपदेशों के कोडे फटकारने के बजाय आप ही की जिद्द मान लेता हूँ. आपकी बात रखने के लिए, मैं आपसे कहता हूँ कि आप ही की भावना ठीक है. इसी को फलने-फूलने दीजिए.

इस पोस्ट के जरिये मैं आपको हिँसा का संदेश देना चाहता हूँ, घृणा का सन्देश देना चाहता हूँ------वहशीपन से, बर्बरता और पाशविकता और अमानुषिकता के प्रति हिँसा एवं घृणा का संदेश. आपको घृणा ही करनी है तो इनसे घृणा कीजिए, हिँसा करनी हो तो इनके प्रति कीजिए और इस प्रकार आप घृणा और हिँसा के पथ से ही सत्य-मार्ग पर आ जायेंगें. आपको आखिर हिँसा ही तो चाहिए---तो फिर कीजिए हिँसा. जी भर कर कीजिए.
हिँसा,वध और हर पुण्य-भावना का स्तीत्व नष्ट करने का आपका यह शौक जब अपनी चरम सीमा को पहुँच जाएगा तो उसका एकमात्र परिणाम हमारे एक मित्र के शब्दों में कहूँ, तो सिर्फ यही हो सकता है कि------"इन कातिल कौमों के घर भविष्य में बच्चों की जगह भेड, बकरियाँ ही पैदा हों---माँस के लोथडे ही इस कौम की कोख से जन्म लें; और फिर सारी की सारी कौम किसी पापी के जमीर की भान्ती, अपने ही आंतक और घृणा के मारे दरियायों में कूद-कूदकर मर जाए-----"

इन कटु शब्दों को लिखकर अगर मैने बुनियादी तौर पर इस परिणाम, इस हिंस्र पाशविकता, इस अमानुषिकता के विरूद्ध आपके ह्रदय में थोडी सी भी हिँसा पैदा कर दी हो, तो मैं अपने आपको कृतकार्य्य समझूँगा. निश्चय ही बर्बरता के प्रति की गई यह हिँसा आपको मानवता के निकटतर ले आएगी. मैं दिल से चाहता हूँ कि यहाँ लिखे गए इन कटु शब्दों की सान पर चढकर आपकी उस हिँसा की तलवार को इतनी तीखी धार मिल जाए कि फिर भविष्य में जब कभी किसी निरीह पशु की गर्दन तक आपका छुरा पहुँचने लगे, तो वही तेज कटार आपके उस उठते हुए हाथ को काट डाले, शब्दों का यह लोहा उस कटार के लोहे को कुण्ठित कर दे, तो मैं समझूंगा कि इस बारे में ब्लाग पर आकर हमारा ये सब लिखना सफल हुआ.
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ऊपर की पंक्तियाँ किसी धर्म विशेष को आधार में रखकर नहीं लिखी गई, बल्कि उन लोगों के लिए लिखी गई हैं जो हिँसा, क्रूरता, पाशविकता की प्रभुता में विश्वास रखते हैं.
उनके अतिरिक्त और लोग भी हैं जो दूसरी सीमा पर हैं, उस सीमा पर जहाँ मन के लड्डुओं के सिवा और कुछ है ही नहीं, जहाँ प्रेम के सोते फूटते हैं,जहाँ करूणा का सागर हिल्लोरे ले रहा हो, हठधर्मिता, कलुषता और निर्दयता  की दलदल से दूर.....उनके लिए होगी हमारी आगामी पोस्ट.
(प्रस्तुत पोस्ट अमित शर्मा जी की कल की इस पोस्ट की उपज हैं)
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