सुनने में आता है कि आदिकाल से चलकर इस आधुनिक युग तक पहुँचे मानव नें भरपूर प्रगति की है. इस दौरान उसके रहन-सहन, उसके कार्य आदि में नि:संदेह कईं परिवर्तन हुए हैं. जरा उस आदिमानव के बारे में सोच कर देखें, जो जंगल में शिकार की खोज में घूमता होगा और इधर आधुनिक मनुष्य, इस वैज्ञानिक युग का मनुष्य अपने आविष्कारों का पूरा लाभ उठा रहा है, प्रगति का यह एक पहलू तो है.खान-पान, रहन-सहन, आवास, सुख-सुविधाएं---सभी में प्राचीन काल से लेकर अब तक बहुत भारी परिवर्तन हुए हैं. कालचक्र के घूर्णन के साथ-साथ इन्सान उन्नति करता चला आया है.
लेकिन फिर भी एक बात जरूर सोचने की है कि आखिर ये 'प्रगति' है क्या ? क्या यह इन्सान के दिमाग तथा उन्नति की उत्क्रान्ति है ? क्या वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने की क्षमता को प्रगति कहेंगें? या प्रकृति का दास बनने की बजाय उनका स्वामी बनने का नाम प्रगति है?
सच पूछिए, तो मैं आजतक प्रगति नाम के इस शब्द का वास्तविक अर्थ समझ नहीं पाया हूँ. क्या यह मनुष्य की अन्वेषण तथा खोज की प्रतिभा का विकास है ? जब हम यह कहते हैं कि इन्सान नें जंगली जीवन से आज के सभ्य जीवन तक इतनी उन्नति की है, तब हमारे दिमाग में मनुष्य की संपन्नता, सुख-सुविधा के यह सारे प्रतीक रहते हैं, हैं ना ? ओर एक स्तर पर कोई भी इस उन्नति को, प्रकृति के ऊपर समय तथा स्थान विशेष पर की गई मानवी विजय को झुठला नहीं सकता.
माना कि प्रौद्योगिकी के इस विकास को परे नहीं रखा जा सकता. पर इन्सान इतनी उन्नति के बाद क्या अपने आदिकाल से कम हिँसक, कम लालची और कम स्वार्थी है? क्या वह आपसी सम्बन्धों के प्रति अधिक सभ्य है? क्या वह पहले से अधिक विचारशील है ? क्या वह न्याय और औचित्य पर बल देता है? क्या वह सुसंस्कृत है? इतने वर्षों, इतने युगों में उसने जिस विकास को जन्म दिया है, क्या उस विकास नें उसे और परिष्कृत बनाकर एक सच्चे मानव का रूप दिया है ? क्या इतने विकास के बावजूद भी इन्सान सुखी हैं ? क्या मनुष्य नें पृथ्वी पर पाई जाने वाली व्यवस्था से अपने सम्बन्ध को पहचाना है ? क्या वह भावनाओं के प्रति संवेदनशील है ? क्या उन्नति के साथ-साथ उसके ह्रदय का क्षरण नही हुआ है ? यदि उसके अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ, तब इस प्रगति का क्या अर्थ है ? जीवन, सभ्यता तथा संस्कृति का क्या अर्थ है?
क्या यह सम्भव है कि हम 'प्रगति' नाम की इस औद्योगिक उन्नति का लाभ उठाते हुए अंदर से मानव बने रहें? किन्तु मानवता क्या है ?.......सोचियेगा जरूर!!! एक बार!!! स्वयं की खातिर्!!!
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा
17 टिप्पणियां:
मानव सभ्य हुआ है क्या???
नि:सन्देह आज का मानव पहले से कम हिंसक और खतरनाक है......
तुम सभ्य कब से हो गए....
तुमने डसना कब से सीख लिया सांप.....
कुछ इसी तरह की पंक्तिय ध्यान आ रही हैं.
मानवता वही है जो अब मानव में नहीं बची है
मानव में अब मशीनी स्वभाव आता जा रहा है इंसानी रिश्तों की समझ कम होती जा रही है
आगे देखेंगे ... और कितनी प्रगति (?) होती है ?
अच्छा लगा पढकर।
मानव का हिंसा क्षेत्र उल्टा बढ गया है। मानव पहले तो सम्मुख आए व्यक्ति से वाणी हिंसा करता था आज फोन और इन्टरनेट ने लाखो लोगों तक पहूंच बना दी तो हिंसा क्षेत्र भी उन लाखों तक पहूंच गया। आज छोटे छोटे शस्त्र से सामुहिक हिंसा सम्भव हो गई है। हिरोशीमा,हिटलर,भोपाल गैस कांड इस विकास से उपजे सामुहिक हिंसा के ज्वलंत उदाहरण है।
शर्मा सहेब, सुज्ञ जी नेम बिल्कुल दुरूस्त फरमाया कि समाज में पहले से कहीं अधिक हिँसा देखने को मिल रही है! ये प्रौद्योगिकी का एक निकृष्ट रूप है!
पंडित जी/ प्रगति की इतनी सी कीमत तो चुकानी ही पडेगी न/
पंडित जी/ प्रगति की इतनी सी कीमत तो चुकानी ही पडेगी न/
सामाजिक प्रगति कम ही है ...
मेरे विचार से मानवता एक विचार है, जिसका मतलब हर व्यक्ति अपने हिसाब से लगाता है।
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ईश्वर ने दुनिया कैसे बनाई?
उन्होंने मुझे तंत्र-मंत्र के द्वारा हज़ार बार मारा।
पूर्व के संस्कार आज भी मानव भूल नहीं पाया है | सभ्यता आज के युग में नहीं है हड़प्पा और मोहन जोदड़ों की खुदाई में मिलेगी |
सोच रहा हूँ....
हमारे किसी भी ब्लॉग पर झाँकने भी नहीं आते!
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हम तो अपनी बेबाक टिप्पणी दे ही देते हैं!
शुभकामनाएँ!
आपने मानव के प्रति बहुत आवश्यक प्रश्न उठाये हैं ...मगर क्या यह गूढ़ और महत्वपूर्ण लेख हमारी समझ में आएगा ?? और वह भी हिंदी ब्लॉग जगत में ?? पंडित जी, समझ नहीं आया !
प्रणाम स्वीकार करके खुश हो जाया करें !
सादर
सोचने वाली बात है. आपने बड़ी सामयिक बात पर प्रशन किया है .
और मैं आप के मंतव्य से पूरी तरह सहमत हूँ .
प्रगति और मानवता दोनों अलग अलग चीजें हैं .... ये दोनों ही साथ साथ चल रही हैं सदियों से और साथ साथ हो कर भी जुदा हैं ....
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