हमने जब से ब्लागिंग की दुनिया में कदम रखा है, बस तभी से यही देखने में आ रहा है कि जिधर देखो उधर ही नारी के कष्टों, उसके पहनावे, शरीर रचना और उसके अधिकारों की कथाएँ बाँची जा रही है, लेकिन हमें ये बात बडी अजीब सी लगी कि "नारीमुक्ति-नारीमुक्ति" की चीखो चिल्लाहट में पुरूष की समस्याओं की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा। जब कि हकीकत में समस्याएं दोनों ओर हैं। जब तक दोनों पक्ष की समस्याएं अलग अलग रहेंगी ओर नारी अपनी सुविधा, सुख और अधिकार की पुकार में पुरूष को भूली रहेगी ओर जब तक पुरूष नारी की उपेक्षा करता रहेगा, तब तक गृ्हस्थ जीवन और सामाजिक स्थिति दोनों ही निराशाजनक, निरानन्द और नि:सत्व रहने वाली है। आप बेशक नारी मुक्ति के नाम पर भले ही लाख चीखते चिल्लाते रहें । बताईये क्या एक की कठिनाईयों को अतिरंजित करके, दूसरे को गाली देने से समाज सुखी हो सकता है ?--- नहीं हो ही नहीं सकता ओर न ही इससे नारी की ही दशा में कुछ सुधार हो सकता है । होगा तो दोनों की समस्याओं को समझने ओर एक दूसरे के प्रति उदार दृ्ष्टि रखने से ही।
आज देखिए पारिवारिक जीवन कितने निरानन्द हो रहे हैं। घर की चारदिवारियों में समाज की न जाने कितनी समस्याएं उठती हैं ओर डूब जाती हैं,न जाने कितना करूण क्रन्दन, न जाने कितना अविश्वास, न जाने कितना आक्रोश इनमें एकत्र हैं। हमें कुछ शिक्षा ही इस प्रकार की दी जा रही है कि पश्चिम जो कुछ हमारे कानों में डालता जाता है, उसे हम तोते की तरह से रटते और उगल देते हैं। कुछ रटी शब्दावलियाँ, कुछ ढले हुए तर्क और सिर्फ ओर सिर्फ अपने अधिकारों की बातें----बस ले देकर यही हमारी पूंजी है। चाहे कोई पत्रिका उठाकर देख लीजिए या फिर नारी मुक्ति का झंडा लिए फिरने वाले चिट्ठों को पढ लीजिए, स्त्रियों के विषय में वही चन्द बातें हैं, जो हमारे दिलों से नहीं बल्कि मुँह से मशीन की भान्ती निकलती हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि नारी की दशा सुधारने के फार्मूले देने वालों और देने वालियाँ न सिर्फ दाम्पत्य जीवन को बर्बाद करने पे तुली हुई हैं वरन परिवार एवं समाज के बीच की कर्तव्यश्रृंखला भी शिथिल की जा रही है।
देखा जाए तो आज की इस वर्तमान सभ्यता ने हमारे सारे नैतिक अंकुश ढीले कर दिए हैं। उसने मानव जीवन से कर्तव्य का भाव, धर्म का भाव समाप्त कर डाला है। त्याग एवं आत्मनियन्त्रण की अपेक्षा भोग, अधिक से अधिक भोग की अकांक्षा मन में पैदा कर दी गई है। आधुनिक युग के कर्कश स्वर नें और आधुनिक सभ्यता के बाह्य तथा कृ्त्रिम युग आकर्षण नें नारी के दया, स्नेह एवं मातृ्त्व जैसे नैसर्गिक गुणों को हमारी आँखों से ओझल कर दिया है। आज धीरे धीरे वे सब नियन्त्रण और बन्धन टूटते जा रहे हैं, जिनके कारण स्त्री-पुरूष के आपसी सम्बंधों के अन्दर कर्तव्य और धर्म का एक नियोजक सूत्र हमारे जीवन को बाँधता एवं उचित मार्ग पर चलाता था। आज हम ऊपर-ऊपर देखते हैं, ऊपर-ऊपर की बातें करते हैं, इसलिए कहीं न कहीं नारी अपने सही स्थान से च्युत होती जा रही है।
दरअसल हमारा समाज को देखने का दृ्ष्टिकोण ही गलत है। नारी आज पीडिता है, वंचिता है पर पुरूष भी कोई कम दुखी और लुटा-पिटा नहीं है। दुखी दोनों हैं; पीडित दोनों हैं। दोनों ही अतृ्प्त, आशंकित और परिताप से भरे हुए, सस्ती और बनावटी भावनाओं के शिकार हैं । और इसका कारण सिर्फ इतना है कि दोनों ही स्थानच्युत (misplaced) हैं! दोनों ही अपने व्यक्तित्व और गौरव के प्रति अंधे और मूर्छित हैं।
जीवन का सही मायनों में अर्थ है कि स्त्री-पुरूष जीवन की मर्यादा में एक दूसरे के सच्चे सहायक हों; दोनों एक दूसरे में जो सर्वश्रेष्ठ है, उसे जागृ्त करें ---दोनों एक दूसरे को उठा सकें। दोनों के जीवन को आवृ्त, प्रच्छन्न लक्ष्य एवं सत्व को प्रकाश मिले। लेकिन यह सब सिर्फ आपसी प्रेम से ही संभव है। वह प्रेम, जिसमें एक दूसरे के प्रति सहानुभूति हो और गहरी उदारता हो; जिनमें हम एक दूसरे की बुराईयों की ओर यूं देखें कि मानों कि वें अपनी ही बुराईयाँ हों। जहाँ प्रेम पर बलात्कार न हो, व्यक्तित्व पर जबरदस्ती का बोझ न हो; एक दूसरे के सुख के लिए (सही मायनों में अपने सुख के लिए) अधिकार माँगने की अपेक्षा आत्मार्पण, कर्तव्य पालन पर जोर हो। बिना इन सब बातों कें, चाहे लाख नारी मुक्ति का झंडा उठाए खडे रहें----न तो दाम्पत्य जीवन ही सुखकर हो सकता है ओर न ही समाज में स्त्री की दशा में तनिक भी सुधार हो सकता है----हाँ, पश्चिमी समाज की देखादेखी नारी मुक्ति के नाम पर परिवारों को तोडने का ही हमने अपना उदेश्य बना रखा हो तो फिर इन सब उपरोक्त कही बातों का कोई महत्व नहीं----फिर तो ये नारी मुक्ति की झंडाबरदार जो भी कर रहीं हैं, वो सही हैं।
एक छोटा सा, और चन्द शब्दों में, इसका हल यही है कि पुरूष-पुरूष बना रहे और नारी- नारी। लेकिन आज तो दोनों ही एक दूसरे की नकल करने में लगे हुए हैं। स्त्री स्वतंत्रता की घोषनाओं और अपनी सम्पूर्ण वाग्मिता के बीच आज की नारी पुरूष का अनुकरण-मात्र है। वह एक ओर तो अपने व्यक्तित्व की रक्षा की बातें करती है, वहीं दूसरी ओर नारी से पुरूष बनने की राह पर बढती चली जा रही है। उसकी दृ्ष्टि अपनी अन्त:गरिमा पर नहीं वरन पुरुष के आचरण,क्रियाकलापों, उसकी उच्छृंख्लता पर है। और इसका अर्थ उसने यह समझा कि वह भी पुरूष के पथ पर अधिकाधिक तीव्र गति से भागने लगी है। वो ये नहीं जानती कि ये अंधी दौड उसे एक ऎसी दिशा में लिए जा रही है, जहाँ आगे चलकर उसका स्वयं का अस्तित्व ही लुप्त हो जाने वाला है। पुरूष बनने के चक्कर में वो अपने स्त्रीत्व को ही समाप्त करने पर तुली हुई है। शायद उसने यह मान लिया है कि पुरूष की नकल करने से ही स्त्री की दशा में सुधार हो सकता है।
लेकिन वो ये नहीं समझ रही कि ये बिल्कुल गलत रास्ता है, भयानक है। जब तक नारी यह अनुभव नहीं करती कि वह पुरूष को निश्चिंतता और आनन्द देने वाली मात्र नहीं है ओर न ही उसके पदचिन्हों पर चल कर उसका कुछ भला होने वाला है, बल्कि सही मायनों में तो समाज को संस्कार प्रदान करने वाली भी नारी ही है; जब तक वो यह नहीं समझती कि वह सिर्फ "रमणी" नहीं है, रमणी से कहीं पहले एक "माता" है, जिसने युगों से सभ्यता का दीपक लेकर उसे बुझने से बचाते हुए अपनी यात्रा जारी रखी है, उसने मानव जाति को दया, ममता, मृ्दुलता और स्नेह का दान दिया है, तब तक नारी मुक्ति के नाम पर किया जा रहा ये सारा प्रपन्च ही हेय है, तब तक कुछ नहीं होने वाला।
27 टिप्पणियां:
पुरूष की नकल करने से ही स्त्रियों की दशा में सुधार हो सकता है।
उस पुरूष की नकल करने से? जिसे नारी धिक्कारती है?
बी एस पाबला
बहुत सही और सटीक लेख ...
plz see my new post...
BAHUT VICHAARNIY VISHAY KO CHUVA HAI AAPNE .. MAIN AAPKI BAAT SE SAHMAT HUN KI STRI PURUSH DONO EK DOOSRE KE POORAK HAIN AUR DONO KO IK DOOJE KA AADAR KAR KE CHALNA CHAAHIYE AUR APNI APNI PRAKRITI ANUSAAR KI KAAM KARNA CHAHIYE ....
DARASAL PASHCHIM SABHYATA NE STRI KO BAS BHOG AUR USKA VYAYSAAYIK KARAN KAR DIYA HAI ... VO BHI AADHUNIKTA KE NAAM PAR ... KYA KOI MUJHE YE BATA SAKTA HAI usa MEIN MAHILA PRESIDENT KYON NAHI HAI AAJ TAK ....
नारी सशक्तिकर्ण एक अहम मुद्दा हैं जो फेमिनिस्म से बिल्कुल अलग हैं । पहले उसको समझने की जरुरत हैं , जरुरत हैं की समाज मे स्त्री पुरूष को वो सब समान अधिकार मिले जिनको संविधान ने उनको दिया हैं । कानून की सीमा मे जो समान अधिकार स्त्री के उनको स्त्री को अवगत करना बहुत जरुरी हैं ताकि नारी सशक्तिकरण को आगे की दिशा मिले । स्त्री और पुरूष की शारीरिक संरचनाओ से ऊपर उठ कर बात करने का समय हैं ।
u r right , problem is total and it can not be resolved one sidedly
कुछ हद तक सही है सन्तुलनात्मक व्यवहार होना चाहिये मगर वत्स जी आप कभी इधर के गावों मे स्त्रियों के जावन को देखें तब आप समझ जायेंगे कि कहाँ पुरुष गलत है। पश्चिम की नकल तो बिलकुल गलत है अपनी स्भ्यता संस्कृ्ति मे रह कर औरत के साथ समान व्यव्हार होना चाहिये। ये नहीं कि कमाये औरत और उसे अपने पर खर्च करने का भी अधिकार न हो इसके लिये सब से पहले औरत और मर्द की समस्यायों को समझना जरूरी है योँ ये मुद्द कभी एक राय पर खत्म नहीं हो सकता क्यों कि हर जगह समस्या अलग अलग है। कई जगह तो औरत का शोशण हो रहा है और कई जगह वो खुद गलत भी है। मगर औरत की बेसिक जरूरतों पर जरूर ध्यान देना चाहिये। अभी भी यहाँ ऐसे गाँव हैं जहाँ पन्च सरपन्च तो औरत है मगर फैसले आदमी उनके पतो लेते हैं और बहुत कुछ है बहुत व्यापक विश्य है ।शुभकामनायें
एक ही गाड़ी के दो पहिये वाली बात में दम है
सही विश्लेषण किया है आपने:
दोनों ही अतृ्प्त, आशंकित और परिताप से भरे हुए, सस्ती और बनावटी भावनाओं के शिकार हैं । और इसका कारण सिर्फ इतना है कि दोनों ही स्थानच्युत(misplaced) हैं! दोनों ही अपने व्यक्तित्व और गौरव के प्रति अंधे और मूर्छित हैं ।
-पूर्णतः सहमत!!
बहुत ही सरल भाषा में बढ़िया व सटिक जवाब दिया है आपने । उम्दा लेख
जिस दिन अपनी-अपनी दशा सुधरने का संकल्प ले लिया जाएगा उसी दिन सब सुधर जाएगा. आज महिला-विमर्श, स्त्री-विमर्श के नाम पर पुरुष-विमर्श ही ज्यादा हो रहा है.
इसके बाद भी आप पुरुष के बारे में सोचने को कह रहे हैं????
महिलाएं अपने आप में कुछ भी कहें, आपने कहा तो उनकी सफलता के रास्तों को रोकना होगा. घर पर काम करने वाली बाई के साथ सबसे ज्यादा बुरा बर्ताव घर की महिलायें ही करतीं हैं. (शायद पुरुष के कहने से, पुरुष के दवाब से...........कुछ इसी तारः का बहाना बनाया जाता है कोई उत्तर न होने पर)
ये विमर्श किसी हल कि तरफ जाता नहीं दीखता है..........पर लगे रहिये.......हमने पुरुष-विमर्श की शुरुआत कर दी है, आप भी आइये साथ में........
सटीक लेख-उत्तम चिंतन-आभार
एक छोटा सा, और चन्द शब्दों में, इसका हल यही है कि पुरूष-पुरूष बना रहे और नारी- नारी । लेकिन आज तो दोनों ही एक दूसरे की नकल करने में लगे हुए हैं ।
आपके उपरोक्त कथन मे ही पूरा सार है. समस्याएं तो हैं. इससे कोई इन्कार नही कर सकता पर कुछ सिरफ़िर/सिरफ़िरियों ने झंडाबरदारी के तहत कोढ मे खुजली मचा रखी है. और यकीन किजिये ये उन्ही तक सीमित है. ना तो पिडीत पक्ष को कोई मदद पहूंच रही है और ना ही पहुंचाने की इच्छा है.
इनको नेतागिरी करनी है सो जिंदाबाद जिंदाबाद..बाकी समस्याएं अपनी जगह यथावत हैं.
रामराम.
"नारी आज पीडिता है, वंचिता है पर पुरूष भी कोई कम दुखी और लुटा-पिटा नहीं है । दुखी दोनों हैं; पीडित दोनों हैं।"
पण्डित जी, नारी और पुरुष दोनों के ही अपने सुख दुःख हैं और एक दूसरे के पूरक होने के नाते उन्हें मिल कर ही झेलना पड़ता है। वैसे भीः
सुखी जगत में कौन कहो मोय समझाय?
आपकी लेख बहुत ही अच्छी और चिंतनीय विषय पर है , आपने सही कहा है .....
"एक की कठिनाईयों को अतिरंजित करके, दूसरे को गाली देने से समाज सुखी नहीं हो सकता ओर न ही नारी की ही दशा में कुछ सुधार हो सकता है ।"
ऊपर की पंक्तियाँ बहुत अच्छी और प्रेरणादायक है !
आपने तो सारा का सारा दोष स्त्री पर ही थोप दिया है। मैं आपके विचारों से सहमत नहीं, मित्र।
@अंशुमाली
Thank God!! कोई तो है जो इस लेख के स्वर से सहमत नहीं है वरना ज्यादातर लोग इसकी शान में कसीदे ही काढ रहें हैं.मैंने तय कर रखा था कि अब इस तरह के आलेखों पर अपनी टिप्पणियाँ देकर,समय और उर्जा दोनों ही नष्ट नहीं करुँगी...क्यूंकि कुछ लोगों ने नारी को देखने के लिए बस एक ही चश्मा धारण कर लिया है...और चश्मा उतार वे सही और पूरी तस्वीर देखने को तैयार ही नहीं.
यहाँ सब पढ़े लिखे,व्यस्क लोग हैं...इनकी सोच को बदलने की नाकाम कोशिश से अच्छा है,हम अपनी रचनाशीलता में संलग्न रहें..पर हाँ असहमति तो जता ही सकते हैं..खासकर इन पंक्तियों पर मेरी गहरी आपत्ति है....."आधुनिक युग के कर्कश स्वर नें और आधुनिक सभ्यता के बाह्य तथा कृ्त्रिम युग आकर्षण नें नारी के दया, स्नेह एवं मातृ्त्व जैसे नैसर्गिक गुणों को हमारी आँखों से ओझल कर दिया है"... फिल्मों और सीरियलों की खलनायिकाओं को छोड़कर एक भी उदहारण नहीं मिलेगा,ऐसी किसी नारी का.
बहुत कुछ ऐसा ही मैंने भी लिखा है ...देखे यहाँ .... मेरी बात
http://vanigyan.blogspot.com/2009/11/blog-post_26.html
@रचना जी,
@रश्मि रविजा जी,
पहली बात तो ये कि आप लोग शायद लेख की मूल भावना तक पहुँच ही नहीं पाई....मैने ये कहीं नहीं लिखा कि नारी को उसके अधिकारों से वंचित कर दिया जाए...ये मैं भी मानता हूँ कि स्त्री-पुरूष की समानता के आधार पर सबको अपने अपने अधिकार मिलने चाहिए....लेकिन अधिकार माँगने से पहले कर्तव्यों के भली भान्ती निर्वहण की बात आती है । बिना अपने कर्तव्यों की पूर्ती के अधिकार नहीं जताया जाता...चाहे स्त्री हो या पुरूष यदि दोनों ही भली भान्ती सही तरीके से अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहण करने लगें तो अधिकारों की तो कोई बात नहीं रहती... एक का कर्तव्य दूसरे के अधिकार की पूर्ती तो स्वयं ही कर देता है ।
आप लोग जरा समस्या के मूल में झाँकने की कौशिश करें....ये समझने की चेष्टा करें कि परिवारिक संम्बंधों को संविधान, कानून के तराजू में नहीं तौला जाता । घर की समस्याओं को आपसी सहमति के निपटाया जाता है...कानून के डंडे से नहीं ।
दूसरी बात ये कि यहाँ ब्लाग लिखकर बडी बडी बातें करना बडा आसान है....इसमें कोन सा कुछ मौल लगने वाला है । जरा घर से बाहर निकलकर निम्न एवं मध्यमवर्गीय समाज पर दृ्ष्टि डालें तो पता चलेगा कि यथार्थ क्या है ।
रही बात महिला "सशक्तिकरण" की तो मेरी नजर में तो ये शब्द ही गलत है...सुनने में भी ऎसा लगता है कि मानों किसी जंग का आहवान किया जा रहा है :)
हाँ, यदि उदेश्य स्त्री की दशा तथा पारिवारिक/सामाजिक सुधार न होकर सिर्फ अपने अन्दर के राजनीति के कीडे को पोषित करना है तो फिर आप लोगों द्वारा इस दिशा में जो भी प्रयास किए जा रहे हैं, वो बिल्कुल ठीक हैं ।
@ अंशुमाल रस्तोगी जी,
आप शायद विश्वास नहीं करेंगें कि मैने जब ये लेख पोस्ट किया था...मैं तभी से आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा में था..ओर मुझे ये भली भान्ती ज्ञात था कि आप की प्रतिक्रिया कुछ ऎसी ही होगी ।
इन्सान का चेहरा देखकर उसकी सोच का अन्दाजा लगा लेना हमें आता है :)
कौन से कर्त्तव्य नहीं पूरे किये नारी ने...और कौन से कर्त्तव्य किये बिना,अपने अधिकार जताने लगीं??...बात मेजोरिटी की ही है....अपवादों की नहीं..क्यूंकि शायद १ प्रतिशत भी पुरुष उतना पीड़ित नहीं होगा....महिलाओं का प्रतिशत ५० से अधिक ही होगा (मैंने सर्वेक्षण नहीं किया,पर अपने आस पास,अखबार,पत्रिकाओं,टी.वी.पर देखकर अंदाजा लगा सकती हूँ)...और यहाँ बात सिर्फ और सिर्फ मध्यमवर्गीय महिलाओं की हो रही है...उच्च और निम्न वर्गीय महिलायें...चुपचाप नहीं सह्तीं.
वत्स जी,आप बहुत सुलझे हुए इंसान होंगे,नारी का सम्मान करने वाले..उनके दुःख दर्द को समझने वाले...पर ज्यादातर पुरुष ऐसे नहीं हैं...और वे नारी के सिर्फ दो ही रूप जानते हैं,देवी या दासी.
.क़ानून का सहारा तो एक्सट्रीम केस में ही लिया जाता है.ऐसी महिलाओं का प्रतिशत तो और भी बहुत कम है,जो कानून का सहारा लेती हैं..बात बात में कोई कानून का सहारा नहीं लेता...और घर टूटने के पीछे कई कारण होते हैं...सिर्फ महिलाओं को दोषी ठहराना उचित नहीं.गाँव में हमेशा..दो भाई अलग हो जाते हैं,जमीन जायदाद के बंटवारे के लिए...वे लोग तो कभी अपनी पत्नियों को बोलने का मौका भी नहीं देते थे.
सॉरी,मैंने आपकी अंतिम पंक्तियाँ नहीं पढ़ीं,थीं...कैसा राजनीति का कीड़ा और कैसे प्रयास? ब्लॉग पर तो किसी स्त्री को सुधार की कोई आवश्यकता नहीं...सब सक्षम हैं(तभी यहाँ हैं)...यहाँ तो बस विचार विमर्श ही होते हैं...और जब आपको कोई बात बहुत ज्यादा खटकती है तो खुद ब खुद आप..असहमति जता देते हैं..
"दुखी दोनों हैं; पीडित दोनों हैं । दोनों ही अतृ्प्त, आशंकित और परिताप से भरे हुए, सस्ती और बनावटी भावनाओं के शिकार हैं । "
आपका विश्लेषण एकदम सटीक है पंडित जी!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.IndianCoins.Org
अरे मेने तो पहले ही लिखा था कि अभी बेनामी टिपण्णियां आयेगी ओर फ़िर मिटाई जायेगी, लेकिन मेरी टिपण्णी कहा गई? पंडित जी इन से पंगा मत लो
आपका आलेख पढने में अधिक सरल होगा अगर आप छोटे पैराग्राफ में लिखें .
यह आलेख अधिकतर टिप्पणीकारों द्वारा गलत समझा गया, इसमें आपका दोष है, कारण यही है की एक तो आपने बिना लाग-लपेट के लट्ठमार बात कह दी और दूसरी इतने बड़े पैरा लिखे की सभी पढ़ते पढ़ते खीझ गए. इंटरनेट ब्राउज़ करने वाले किताबी पाठक से अलग होते है, यह बात तो अगस्त २००८ से अब तक आपकी समझ में आ जानी चाहिए थी. आप इसी पोस्ट को छोटे छोटे पैराग्राफ में बांटकर रीठेल करें, इस बार बात सभी को आसानी से समझ आएगी और कोई गलत नहीं समझेगा.
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