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शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

क्या वाकई में रोग जीवाणुओं की वजह से होते हैं ???

बैक्टीरिया या वायरस का नाम सुनते ही कँपकँपी आना किसी के लिए भी स्वाभाविक है, क्यों कि हम सब की सामान्यत यह धारण है कि जीवाणु रोग उत्पति के कारण है,और इनका बढना बीमारी ही नहीं बल्कि महामारी का भी कारण हो सकता है. हमारे प्राचीन ग्रन्थों में इसकी काफी चर्चा है. छुआछूत,स्नान,मंजन,शौच,लघुशंका के बाद तथा प्रसव के बाद के नियम स्पष्ट बताए गए हैं. और साथ ही क्या क्या सावधानी भी बरतनी है,हमारे पूर्वजों को भलीभान्ती ज्ञात था. इसलिए इस पर विशद ज्ञान का भी वर्णन है. यह तो सर्वविदित है कि 1929 में अलेक्जैन्डर फ्लैमिंग नें पेनिसिलीन नाम के एन्टीबायोटिक की खोज की थी और उनकी यह खोज उनकी प्रयोगशाला में कुछ बैक्टीरिया के कल्चर के समय हुई.बैक्टीरिया के साथ साथ जीवाणु की एक ओर नस्ल है---भूखडी या फफूँद. एक बार फ्लेमिंग नें देखा कि स्टेफाईलोकोकाई बैक्टीरिया का उत्पादन कुछ स्थानों पर समाप्त हो गया है,क्यों कि वहाँ पर एक फफूँद उग आई है.वह फफूँद थी पेनिसिलीन नोटैम नामक फफूँद. उसे चिन्ता ही नहीं आश्चर्य भी हुआ कि आखिर उस फफूँद नें क्योंकर बैक्टीरिया का केवल बढना ही नहीं रोका,उसे पूरी तरह से नष्ट भी कर दिया. फिर उसी फफूँद से पैदा किया गया पेनिसिलीन जो लगभग 30 वर्षों तक जीवाणु जनित रोगों में अचूक रामबाण औषधी था.
असहयोग आन्दोलन के समय महात्मा गाँधी की पत्नि कस्तूरबा जब पूना जेल में थी तो इसी पेनिसिलीन के इन्जेक्शनों द्वारा ही उनके रोग पर काबू पाया गया. हर 6 घंटे बाद उन्हे ये इंजेक्शन लगाया जाता था और उस जमाने में इसके एक इंजेक्शन की कीमत थी--40 रूपए जो कि आज के हिसाब से 8-9 हजार रूपए के बराबर है.धीरे धीरे ये हुआ कि इस इंजेक्शन का प्रभाव न केवल कम होता चला गया बल्कि इसके कारण मृ्त्यु तक होने लगी.अगर आज किसी डाक्टर से पेनिसिलीन का इंजेक्शन लगाने को कह दिया जाए तो वह आपका मुँह ताकने लगेगा---क्यों कि वह जानता है कि यह अपने समय का रामबाण अब निष्प्रभावी ही नहीं,बल्कि घातक भी हो गया है.
एक फफूँद नें जीवित बैक्टीरिया को क्योंकर और कैसे नष्ट किया था ? और यहीं से उत्पत्ति हुई ऎसी दवाईयों की जो एक जीवित का उपयोग दूसरे जीवित को नष्ट करने के काम आए अर्थात ऎंटिबायोटिक.(ऎंटी--अर्थात विरूद्ध और बायो---जीवित या जीवन्त तथा इक्स---पदार्थ) आज अनेक प्रकार के फफूंद से नए नए ऎंटीबायोटिक बनाए जा रहे हैं. पर क्या हम इनसे रोग पैदा करने वाले जीवाणु या विषाणुओं को रोक सकेंगें ?
बैक्टिरिया एवं वायरस तो रहेंगें ही,क्यों कि वे भी सृ्ष्टि या प्रकृ्ति का एक अंग हैं.जब हम और आप वैज्ञानिकों के साथ मिलकर उन्हे नष्ट करने या मार डालने का प्रयास करते हैं तो वे भी अपने बचाव के लिए नए नए तरीके ईजाद कर लेते हैं---और फिर वैज्ञानिक ढूँढने लगते हैं इन नए परिवर्तित जीवाणुओं से निपटने का कोई नया उपचार. कौन नहीं जानता कि H.I.V की खोज पहली बार केवल 26 वर्ष पूर्व हुई थी. तब से इन 26 वर्षों में H.I.V नए नए प्रकारों में बँटता जा रहा है. H.I.V.-1, H.I.V -2 और अब आ गया है H.I.V-3. तो क्या ये अलग अलग वायरस हैं? या फिर वे ही अपना रूप, आकार, क्षमता घटाते बढाते जाते है.क्या केवल इतना सही नहीं है कि जब आप उन्हे मारेंगें,नष्ट करने का प्रयास करेंगें,तो वे भी अपना स्वरूप बदल लेंगें. हो सकता है कि वे नए रूप में भी आ जाएं. शायद आपको 1997 का "पागल गाय रोग" (Mad Cow Diseases) का पता होगा.गायों पर इसका हमला इसलिए नहीं हुआ कि वह कहीं सुदूर से आया था,बल्कि इस तरह के जीवाणु सुप्त अवस्था में गायों के शरीर के अन्दर ही रहते हैं और वे किसी प्रकार का कोई रोग नहीं उत्पन करते.
लेकिन जब आप शुद्ध शाकाहारी,घास-फूस खाने वाली गाय को माँसाहारी बना देंगें,जैसा इंग्लैंड में किया गया तो उनका बीमार होना निश्चित था. इन दूध देने वाली गायों को उनके भोजन में,माँस के लिए काटी गई गायों का अवशेष,जो वहाँ किसी काम में नहीं आ सकता था, खिलाया गया.(हमारे इस देश में इन्ही जानवरों की हड्डियों से कैल्शियम की गोली और रक्त से टानिक बनाया जाता है,जो हमारे विद्वान(?) डाक्टरों द्वारा जानबूझकर कितने ही भारतीयों के पेट में ठूँस दी जाती है).जब इन विलायती गायों नें अपने ही परिवार की गायों की हड्डी,खून,आँतें खाई तो निश्चित ही था कि उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होनी ही थी. और ऎसा हुआ भी----गायों को मस्तिष्क रोग हुआ और उनका माँस खाने से इन्सानों में भी हुआ. इंग्लैंड में उस समय इस रोग से कितनी ही मौतें हुई. अन्तोगत्वा लाखों गायों को काटकर गाड दिया गाय,क्यों कि उनका माँस खाने वाला पूरे विश्व में उस समय कोई तैयार नहीं था.
सन 1988 में हाँगकाँग में भी ऎसी ही घटना हुई---मुर्गियों में एक प्रकार का जीवाणु एवियन फ्लू का प्रकोप हुआ, जिससे कईं लोगों की मौत हुई. अभी कोई बहुत दिन नहीं हुए जब समूचे विश्व में बर्ड फ्लू और स्वाईन फ्लू नाम के नये वायरस का प्रकोप छाया रहा. न जाने कितने लोगों की मौत हुई और अन्तोगत्वा लाखों करोडों मुर्गियों,सूअरों को मारकर दफना दिया गया था. यहाँ भी कारण वही है कि मुर्गियों,सूअरों को उनके प्राकृ्तिक वातावरण और भोजन इत्यादि पर न रखकर उन्हे एक विशिष्ट पद्धति पर पाला गया था,जिसमें ऎंटीबायोटिक,हार्मोंन इत्यादि बहुतायत में प्रयोग किए जाते हैं. अब यह गायों,मुर्गियों,सूअरों की इच्छा(जो प्रकृ्ति के नियम पर आधारित है) पर निर्भर नहीं कि वे कब गर्भ धारण करेंगीं,या बच्चे,अंडें देगी. अब यह तो इनका मालिक या पशु चिकित्सक तय करेगा. बिना मुर्गे के अंडा.
काफी वर्षों से मुर्गीपालक वर्जिनियामाईसीन नामक एक दवा का प्रयोग करते रहे हैं जो चूजों की वृ्द्धि करता है. और इसका असर यह हुआ कि मुर्गी खाने वालों को ऎसे बैक्टिरिया ई-फैसियम से पाला पड रहा है जो हर किसी ऎंटिबायोटिक का प्रतिरोधी है. इतना ही नहीं गोश्त के माध्यम शरीर में पहुँचे ये जीवाणु मनुष्यों में जीवित ही नहीं रहते बल्कि फलते फूलते भी हैं और रोग पैदा करने की क्षमता भी रखते हैं.
इन जीवाणुऔ के कारण दुनिया के न जाने कितने मुल्कों में लाखों करोडों गायों,मुर्गियों,सूअरों को काटकर दफन कर दिया गया. पर क्या इन जीवाणुओं पर काबू पा लिया गया ? नहीं.
अभी तक तो हमारे देश में कसाईघरों में खून,आँत और हड्डियों का प्रयोग दवाओं के रूप में किया जाता रहा है. शायद ही आप विश्वास करें कि हड्डियों का चूरा दवा की गोली के रूप में 12000 रूपए किलो के हिसाब से बिक रहा है. गायं,भैंस और बकरे का खून जिसका कोई व्यवसायिक प्रयोग नहीं हैं--500 रूपए किलो है. जहाँ तक मेरा ज्ञान है दुनिया के सभी धर्मों में खून का प्रयोग वर्जित है, पर हमारे इस देश में शाकाहारी डाक्टर लिख रहे हैं और शाकाहारी यहाँ तक कि जैन धर्मावलंबी भी खा रहे हैं----इन गोलियों और टानिकों कों.
पिछले कुछ वर्षों में बढे जोडों की गठिया, जो अपने पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी थी.उसके बचाव के लिए नई और आधुनिक दो दवाएं हैं---ल्यूकोसीन और कोड्राइटम सल्फेट.ये दोनों दवाईयाँ जानवरों और मछलियों के अवशेष से बनाई जाती हैं और कीमत है 1500 से 45000 रू प्रति माह, जो तीन महीने खाकर तीन महीनें नहीं खानी हैं अर्थात साल भर में 6 माह का सेवन. शायद इनसे आपकी गठिया तो ठीक नहीं होगी लेकिन जेबें जरूर खाली हो जाएंगीं. अगर आप बहुत सम्पन्न हैं और जेब की कोई फिक्र नहीं हैं तो "पागल गाय रोग"(Mad cow disease) की सम्भावना अवश्य होगी. सोचिए क्या आप हर खाँसी, जुकाम, नजला पर एंटीबायोटिक सीधे या फिर कैल्शियम,टोनिक खाएंगें----या फिर खाएंगें स्वस्थ पूर्ण भोजन----भोजन या भोजन पूरक के बीच की पसन्द आपकी है.....
साभार:-डा. आर. सी. मिश्र, जिनके एक लेख के आधार पर ये पोस्ट लिखी गई है.

19 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

पंडित जी,

कितना आभार कहूं कम है। आपकी इस पोस्ट के लिये,
अपने प्रकृतिक भोजन व संसाधनों से दूर होना ही इन नवीनतम रोगों का मूल है।
जीवाणु तो सर्वत्र थे और है, वे पहले भी हमारे शरीरों पर निभते थे,पर हमें रोगी नहिं बना देते थे। पर जैसे ही हमने अपने भोजन बदले, जीवाणुओं नें अपना भोजन भी बदल दिया,जो कि हमारे प्राण है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुना तो यही है कि रोग जीवाणुओं के कारण होते हैं!

Arvind Mishra ने कहा…

सही है ,एक एक्विलीलिब्रियम स्टेट में चीजें हों तब तो क्या कहने -मगर मनुष्य ने अब कई समस्याएं खुद तैयार कर ली हैं !

praveen thakur ने कहा…

i also agreed with you.

Unknown ने कहा…

शर्मा जी आपके इस आलेख से पूर्णत: सहमति है! आज इन्सान खुद ही अपने नाश का कारन बनता जा रहा है!

Unknown ने कहा…

शर्मा जी आपके इस आलेख से पूर्णत: सहमति है! आज इन्सान खुद ही अपने नाश का कारन बनता जा रहा है!

सुज्ञ ने कहा…

यह आश्चर्यजनक नहिं कि नंगी आंखो से न दिखाई देनेवाले यह जीवाणु अपनी रक्षा के लिये रूप बदलने,सुरक्षा कवच चढाने,व ऎंटिबायोटिक का प्रतिरोधी क्षमता कुदरती विकसित कर लेते है।
और मानव कुदरती छोडो, विज्ञान विकास के बाद भी पूर्णरूपेण रोग प्रतिरोधक क्षमता धारण करने में असमर्थ है?
एसे में यह विश्वास करने को जी ललचाता है कि कर्म का सिद्धांत प्रकृति का उपयोग कर कर्म-बंध व कर्म-फ़ल-भोग का चक्र व्यवस्थित तरिके से चलाता है।

सुज्ञ ने कहा…

दवा कंपनियों और डाक्टरो को दवाई लिखते समय प्राणीजन्य पदार्थों के उपयोग सम्बंधी जानकारी देनी ही चाहिये, यह उपयोगकर्ता का अधिकार भी है। कमसे कम जैन धर्मावलंबियों के साथ तो यह विश्वासघात ही है।

सुज्ञ ने कहा…

पंडित जी,
पुराने जमाने में मानव पेड से भूमि पर गिरे फ़ल ज्यों के त्यों खाकर भी रोगों से संक्रमित नहिं होता था (आयुर्वेद में जीवाणुओं का उल्लेख न होना इसका प्रमाण है।)आज 3 बार धोने पर भी कीटनाशक दवाओं और जीवाणुओं से संक्रमित होना लगभग निश्चित है।
जब से मानव ने विकास से शादी की है,रोग तो दहेज में मिले है।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

पंडित जी आपका आलेख पढकर तो ज्ञानचक्षु खुल गये. बहुत ही सशक्त जानकारी देने वाला आलेख है.

रामराम.

बेनामी ने कहा…

पंडित जी, इस अमूल्य जानकारी के लिए आपकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी/ नायाब मोती निकाल कर लाएं हैं/
आज दुनिया जिस विज्ञान को मानव का तीसरा नेत्र मानती है, हकीकत में वही मानव सभ्यता का काल बनने की भूमिका में आता जा रहा है/ यदि अब भी नकेल न लग पाई तो वो दिन दूर नहीं जब ये अन्ध विज्ञान मानवता की कब्र खोद डालेगा/

राज भाटिय़ा ने कहा…

वाह जी बहुत दुर कि कोडी ले कर आये, मै आप की बात से शत प्रति शत सहमत हुं, एक बार मेरी बात एक होमोपेथी डा० से हो रही थी, तो उस ने मुझे बताया कि हर इंसान मै हर बिमारी के कीटाणू मोजुद होते है, लेकिन जब तक हम कुछ गलत नही करते तब तक वो हमारे काबू मै रहते है, ओर हमारी किसी एक गलती से, उन की ताकत बढ जाती है ओर फ़िर वो हम पर हावी हो जाते है, आप ने गाय का उदाहरण दे कर सारी बात समझा दी, धन्यवाद

विवेक रस्तोगी ने कहा…

दिमाग की खिड़्कियाँ खुल गईं।

कैंसर के रोगियों के लिये गुयाबानो फ़ल किसी चमत्कार से कम नहीं (CANCER KILLER DISCOVERED Guyabano, The Soupsop Fruit)

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी है धन्यवाद।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

वत्स जी, आपकी पोस्ट रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक है, पर समझ नहीं पाया कि आप इसके माध्यम से कहना क्या चाहते हैं।
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा.....

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@ जाकिर जी,
कहने का भावार्थ सिर्फ ये है कि आधुनिक विज्ञान जिसे कि हम मानव का परम हितैषी और सभ्यता के विकास का जनक मान कर चल रहे हैं.....असल में वही मानव का अहित साधने में लगा हुआ है. हम सिर्फ सिक्के का एक पहलू देखते हैं.....विकास, सुख-सुविधाओं के नाम पर भौतिकता की चाशनी में लपेटकर विज्ञान के नाम पर जो कुछ हमारे सामने परोस दिया जाता है...बस हम आँख मूंद कर विश्वास करके उसी का गुणगान करने लगते हैं.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@ सुज्ञ( हंसराज जी),
"यह विश्वास करने को जी ललचाता है कि कर्म का सिद्धांत प्रकृति का उपयोग कर कर्म-बंध व कर्म-फ़ल-भोग का चक्र व्यवस्थित तरिके से चलाता है"

बिल्कुल सौ टके खरी बात! अभी कुछ दिन पूर्व इसी "विज्ञान और कर्मवाद" विषय पर एक वृ्हद आलेख आरम्भ किया था...लेकिन समय की कुछ कमी के चलते उसे पूर्ण नहीं कर पाया...कौशिश करता हूँ कि जल्द पूर्ण कर पोस्ट किया जाए...

सुज्ञ ने कहा…

पंडित जी,

मुझे उस लेख का बे-सब्री से इंतज़ार रहेगा।
यह मेरा पसंदीदा विषय है। आभार

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पंडित जी ... बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने बेकटीरिया और जीवाणुओं पर .... ये संसार है तो चलना तो है ... बस सब एक दूजे को मारने के तरीके खोजते रहते हैं ... इंसान भी और बाकी सब भी .... बहुत बधाई इस लेख के लिए ...

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