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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

डाक्टर.....भगवान...और मेरा विद्रोही मन

कुछ दिन पहले का एक वाकया है. हालाँकि, आज के इस युग में ऎसे वाकये अपने आप में इतने साधारण है कि उस पर कोई ध्यान न दिया जाए, तो उसकी यह उपेक्षा किसी अपराध के दर्जे में खींच-तान कर भी दर्ज नहीं की जा सकती.परन्तु एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते ऎसा कुछ देखना मन को सालता तो जरूर है.
हुआ ये कि,लगभग सप्ताह भर पहले की बात है, शायद मौसम में बदलाव की वजह रही होगी, लगातार दो तीन दिन हमें बुखार से जूझना पडा. वैसे तो मैं, ऎलोपैथी ईलाज से हमेशा से ही दूर रहता आया हूँ. मेरा विश्वास सिर्फ आयुर्वेद पर ही टिका है. लेकिन आजकल फैले डेंगू के प्रकोप की वजह से पत्नि इस जिद पर अडी रही कि चलकर एक बार डाक्टर को दिखा लिजिए. सो, न चाहते हुए भी इस बार उसकी जिद के आगे झुकना ही पडा और मन को मारते हुए पहुँच गये डाक्टर के पास.
डाक्टर वर्मा----एम.बी.बी.एस(एमडी)और भी जाने कौन-कौन सी डिग्रियाँ जिनके नाम से जुडी हुई है. शहर के नामी काबिल डाक्टरों में गिने जाते हैं. वहाँ पहुंचें तो देखा हमसे पहले ही कोई आठ-दस मरीज अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे हैं. बाहर काऊन्टर पर एक छुईमुई सी लडकी बैठी थी, जो हर आने वाले का नाम अपने रजिस्टर में दर्ज कर उसके हाथ में एक टोकन थमा देती. हमने भी उसके बही-खाते में अपना नाम लिखाया और टोकन थामे अपनी बारी का इन्तजार करने लगे. बैठे-बैठे कोई आधा घंटा बीत गया, लेकिन बारी है कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी और इधर मरीजों की भीड है कि बढती ही चली जा रही थी. घंटे भर बाद तो ये हालत थी कि बैठना तो दूर, बल्कि क्लीनिक में खडे होने भर की भी जगह नहीं थी. ऎसा लग रहा था कि मानो सारे शहर भर के मरीज इन्ही के यहाँ इकट्ठे हुए जा रहे हैं.
बहरहाल, हम कुनमुनाते हुए से बैठे इन्तजार करते रहे. बस अब हमारा नम्बर आने ही वाला था. हमसे पहले के मरीज की जाँच चल रही थी. हम अपनी सीट से उठकर, दरवाजे के पास खडे बारी की इन्तजार में ही थे, कि तभी एक 28-30 साल का एक नवयुवक बाहर से आया और बिना इधर उधर देखे, सीधा डाक्टर के केबिन में घुस गया. हमें कोफत तो बहुत हुई कि यहाँ हम पिछले डेढ घण्टे से बैठे इन्तजार किए जा रहे हैं और ये मुँह उठाये लाट साहब की तरह घुस गया. सचमुच इस देश में नियम, सिस्टम नाम की कोई चीज रह ही नहीं गई है. लेकिन भला किया भी क्या जा सकता था,सिवाए कुढने के. अब डाक्टर से लडने से तो रहे.
खैर, हम खडे खडे अपना ओर अधिक खून जलाते कि तभी उस लडके की आवाज सुनाई दी. हमें लगा कि वो डाक्टर को अपने साथ चलने के लिए कह रहा है. थोडा ध्यान दिया तो मालूम पडा कि अचानक से उसके पिता को रीढ की हड्डी में कोई समस्या हुई है, जिसकी वजह से वो बिस्तर से उठ पाने में भी असमर्थ है. इसलिए ही वो डाक्टर को अपने साथ चलने के लिए कह रहा था. लेकिन डाक्टर नें इस समय उसके साथ चलने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी. उसका कहना था कि बाहर इतने मरीज बैठे हैं. फिलहाल उन्हे छोडकर मैं नहीं जा सकता. तुम उन्हे गाडी में डलवाकर यहीं ले लाओ. लेकिन युवक बारबार यही कहता रहा कि उसके पिता की हालत ऎसी है कि,वो इस समय अपने शरीर का कोई भी अंग नहीं हिला पा रहे हैं. पीठ इस कदर अकडी हुई है कि जरा सा हाथ लगाते ही दर्द से चिल्ला उठते हैं. हालत ऎसी नहीं है कि बिस्तर से एक इंच भी उठ पायें.
युवक के मुँह से निकला "प्लीज" शब्द कईं बार मेरे कानों तक पहुंचा, मगर बदले में डाक्टर की ओर से बार-बार सिर्फ यही सुनने को मिलता रहा, कि "नहीं मैं इस समय क्लीनिक छोडकर तुम्हारे साथ नहीं चल सकता. तुम उन्हे जैसे भी करके यहीं ले आओ".थोडी देर में युवक केबिन से बाहर निकल आया. उस समय उसके चेहरे पर छाई उदासी और लाचारी के भावों को कोई भी बडी आसानी से पढ सकता था.

तभी टोकन बाँटती उस लडकी द्वारा हमें इशारा किया गया कि आप जाईये.......अब आपका नम्बर है. मैने दरवाजा खोल अन्दर कदम तो रख दिया मगर उस समय दिमाग में कुछ ऎसे प्रश्न जन्म ले बैठे, जो मुझसे अपना समाधान भी माँग रहे थे.पहला प्रश्न यह कि: ये कहना कितना सही है कि डाक्टर भगवान का प्रतिरूप होता है? जिस डाक्टर नें किसी की विवशता और कष्ट को जानते-समझते हुए भी, उसके साथ चलना गवारा न किया, क्या वो भगवान का प्रतिरूप हो सकता है? एक दुकानदार और डाक्टर में भला क्या अन्तर है? और इस सवाल के जवाब में जैसे मैं स्वयं अपने आप से ही कह रहा हूँ; यह शायद पैसे के प्रभुत्व का ही अभिशाप है. हालाँकि, उस समय मेरे विद्रोही मन में ओर भी बहुत कुछ चल रहा था.चाहता भी था कि डाक्टर से वो सब कह डालूँ-----मगर ? कह न पाया! 

मेरे निकट इस वाकये का एक पहलू और भी महत्वपूर्ण है कि वह युवक समाज के उस अति प्रतिष्ठित डाक्टर की इस प्रकार की अनपेक्षित प्रतिक्रिया से बच पाया. इस मायाचक्र से वह कैसे बच पाया, यह स्वयं अपने आप में मेरे लिए तो विस्मय का एक मायाचक्र ही है. वो डाक्टर उसकी विवशता को जानते-समझते हुए भी साथ चलने को तैयार नहीं हुआ; यह जानकर भी कि उसके पिता यहाँ आने में असमर्थ हैं, वो भीषण शारीरिक कष्ट से गुजर रहे हैं.
उसे भीतर ही भीतर चाहे जितना क्रोध आया हो, पर डाक्टर के प्रति उसकी कृतज्ञता अभंग रही....जाते समय भी वो डाक्टर का अभिवादन करके गया. मगर मैं ?
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

19 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

पंडित जी/ जब सारी दुनिया ही पैसे के पीछे दौड रही है तो बेचारे डाक्टर भला इससे पीछे क्यों रहें/वे भी तो इसी दुनिया के वाशिन्दे हैं/
प्रणाम/

बेनामी ने कहा…

पंडित जी/ जब सारी दुनिया ही पैसे के पीछे दौड रही है तो बेचारे डाक्टर भला इससे पीछे क्यों रहें/वे भी तो इसी दुनिया के वाशिन्दे हैं/
प्रणाम/

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

अब तो भगवान भी बदल गया है..ये तो बस पैसे के .... हैं...

Smart Indian ने कहा…

भांति-भांति के लोग ... प्रेमचन्द की मंत्र का बूढा भगत याद आ गया।

anshumala ने कहा…

यदि वो डाक्टर साहब चले जाते तो बाकि बैठे वहा के मरीज कहते की ज्यादा पैसे के ललचा में हमें छोड़ कर किसी बड़े आसामी के पास चले गये | ये भी ठीक है की जब सभी पैसे के पीछे भाग रहे है तो डाक्टर क्यों पीछे रहे |

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

दुनिया में अजूबों की कमी नही है पंडित जी!

रामराम.

Unknown ने कहा…

जनाब शर्मा साहेब हम तो इतना ही कह सकते हैं कि "जफर मजबूरियाँ होंगी, वर्ना वो जरूर जाता" :)
बाकी रही बात भगवान के प्रतिरूप की, तो सिर्फ कहने समझने भर की बात है! जो चीज वक्त पडे पर काम आ जाए उसके लिए तो उसी में भगवान है! चाहे वो रास्ते का पत्थर ही क्यों न हो!

सुज्ञ ने कहा…

डाक्टर का सम्बंध लोगों के दर्द बिमारियां ठीक करने से है……… इसलिये हम मान लेते है भगवान समान… अन्यथा वह भी है तो एक व्यवसायी ही न…… उसके दुख दर्द पैसे से ही जुडे है। :)

Sushil Bakliwal ने कहा…

यदि वे डाक्टर उस समय उस युवक के साथ चले जाते तो शायद उसे कोसने में भी आपका अन्तर्मन सबसे उपर होता क्योंकि आप 1.30 घंटे से अपनी बारी की प्रतिक्षा कर रहे थे । ऐसा होता ना ? क्योंकि शायद यही मानव मन है.

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

डॉक्‍टरों पर पोस्‍ट लिखनी थी तो आपने लिख दी। यदि बेचारा चला जाता तो आप ही कहते कि इतने सारे मरीजों को छोड़कर चला गया। यह बात पैसे की बिल्‍कुल नहीं है, सिद्धान्‍त की है और उस डॉक्‍टर ने सिद्धान्‍त को वरीयता दी है। इसलिए मैं तो आपकी पोस्‍ट पढ़कर समझी थी कि आप उस डॉक्‍टर के प्रति आभारी होंगे जिसने अपने आउटडोर के समय को केवल उपस्थित रोगियों के लिए ही रखा। आपने ही लिखा है कि जब वह लड़का अन्‍दर घुसा तो आपको बहुत बुरा लगा था। इसलिए ऐसे वर्ग की जो सेवा करके अर्थोपार्जन कर रहे हो, अनावश्‍यक निन्‍दा करने से समाज में गलत संदेश जाता है। और डॉक्‍टर भी फिर असंवेदनशील बन जाता है।

निर्मला कपिला ने कहा…

डाक्टर अब भगवान से अधिक हैवान हो गये हैं लेकिन एक बात मेरे दिमाग मे आयी कि अगर डाक्टर उठ कर चला जाता तो वहाँ बैठे लगभग सभी लोग गालियाँ देते वो भी पता नही कितनी तकलीफ मे होंगे और कैसे अपना समय निकाल कर आये होंगे। दोनो पहलू अपनी अपनी जगह सही हैं। शुभकामनायें।

naresh singh ने कहा…

तुलसी इस संसार में भांती भांती के लोग .....पंडितजी ना तो सब डोकटर एक जैसे है और ना ही मरीज एक जैसे है |

Amit Sharma ने कहा…

पढ़ते पढ़ते मैं तो सोच रहा था की कोई पैसे वाला आया होगा और डागदर बाबू उसके साथ चले गए होंगे ........................बढ़िया रहा नहीं गए नहीं तो आप पर किया बीतती फिर से लम्बर में लगना पड़ता :-(

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@सुशील बाकलिवाल जी,
@ अजीत गुप्ता जी,

आपका ये कहना कि यदि डाक्टर उस समय युवक के साथ चला जाता तो शायद उसे कोसने में भी हमारा अन्तर्मन सबसे ऊपर होता.....सहमत हूँ! मैं स्वयं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि शायद क्या बल्कि निश्चित रूप से मन की कुछ इस प्रकार की ही स्थिति होती.
हमारा मंतव्य डाक्टर पर दोषारोपण करना नहीं बल्कि मानव मन के विरोधाभास, उसकी विद्रोही प्रवृति को दर्शाना भर था.
हाँलाकि पोस्ट को थोडा ओर अधिक विस्तार देने का मन था, आखिर में एक पैराग्राफ ओर जोडना चाहता था. लेकिन मुझे लगा कि "मगर मैं" के बाद अन्त में छोडे गये प्रश्नचिन्ह से ही बात कुछ हद तक स्पष्ट हो जानी चाहिए. लेकिन शायद ऎसा नहीं हो पाया. इसे मैं स्वयं की चूक मानता हूँ.....

अन्तर सोहिल ने कहा…

अजित गुप्ता जी से सहमत
डॉक्टर ने सही भी किया। वहां जाकर भी उन बुजुर्ग को यहीं तो लाना था। और यहां जब दसियों मरीज 2-3 घंटे से बैठे अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। क्या मालूम उनमें कौन कितनी यातना झेलता हुआ बैठा है।
वह युवक किसी ऐसे डॉक्टर की सेवायें भी ले सकता है, जो उस समय किसी मरीज को नहीं देख रहा हो।

प्रणाम

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Ek raftaar hai ... andhi doud hai ... pata nahi kyon doud rahe hain sab ... par fir bhi doud rahe hain ... samvednaayen khatm ho chuki haian ... arth sab se oopar ho gaya hai ...

ZEAL ने कहा…

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पं.डी.के.शर्मा"वत्स" जी ,

बहुत ख़ूबसूरती से मन का अंतर्द्वंद व्यक्त किया है आपने अपनी पोस्ट में। इसके लिए आपको बधाई ।

सभी डाक्टर असंवेदनशील नहीं होते । ना ही उनके निर्णयों के पीछे पैसा ही एक मात्र कारण होता है। एक डाक्टर जो अस्पताल या क्लिनिक में बैठकर मरीज को देख रहा है , उसका वो समय मरीजों के लिए ही निर्धारित है। जो लोग घंटों से अपना नंबर आने के लिए प्रतीक्षारत हैं , उनके लिए भी डाक्टर की नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है।

एक डाक्टर के लिए तो हर मरीज का कष्ट बड़ा है । फिर डाक्टर के पास समय सीमित होता है । वहां बैठकर वो जितनी देर में दस मरीज देख सकता है , उतना समय वो किसी के साथ जाकर सिर्फ एक मरीज देखने में नष्ट नहीं कर सकता । यदि वह डाक्टर उसके साथ चला जाता , तो हो सकता है उससे भी गंभीर रोग अथवा कष्ट वाला कोई मरीज निराश होकर , डाक्टर की अनुपस्थिति में वहां से लौटता । डाक्टर की क्लिनिक पर जब वह मरीज देखने के समय पर उपलब्ध नहीं होता , तो भी लोग बुरा मानते हैं, साथ नहीं गया तो भी, और अगर चला गया तो इन्तेजार कर रहे लोग भी बुरा मान जाते हैं।

और फिर घर पर चिकित्सा के सभी साधन भी मौजूद नहीं होते। डाक्टर अपनी क्लिनिक पर एक मरीज की बेहतर चिकित्सा कर सकता है। कभी भी ऐसी स्थिति आये , तो बिना समय गवाए कैसे भी इन्तेजाम करके निकटतम डाक्टर अथवा अस्पताल तक पहुंचना चाहिए।

आभार।


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मनोज कुमार ने कहा…

आज दूरदर्शन पर एक समाचार आ रहा है, क्लिपिंग के साथ।

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

इस घटना के पीछे शायद डॉक्टर की ये सोच भी रही हो कि इतने सारे मरीजों को छोड़कर जाने का मतलब उन मरीजों के दुखों को नज़रंदाज़ करना
होगा.डॉक्टर की मज़बूरी भी समझने लायक है.

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