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सोमवार, 17 जनवरी 2011

आस्था और तर्क

मनुष्य आज जो कुछ है, उसके निर्माण में समाज की अहम भूमिका है.हर इन्सान अपने तात्कालिक परिवेश, रीति-रिवाज, मान्यताओं, सामाजिक नियमों से तो सीखता-समझता ही है, वह परम्परा प्राप्त ज्ञान, ऎतिहासिक घटनाओं, महापुरूषों की जीवनियों एवं धर्मशास्त्रों से भी बहुत कुछ सीखता है और उन्ही सबसे उसका जीवन बनता-बिगडता है. इन्सान का यह सहज स्वभाव है कि जहाँ से उसे कुछ प्राप्त होता है, वहाँ उसकी आस्था होती है. आस्था मनुष्य मात्र के लिए एक महान संबल है. आस्थारहित मनुष्य का जीवन तो उस पेड के समान है, जिसकी जडें कट चुकी हैं. आस्था नैतिकता एवं सदाचार की रीढ ओर नैतिकता हमारे जीवन की. अत: यह सहज समझा जा सकता है कि आस्था का होना जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है.
दरअसल, आस्था एक ऎसी धातु है जो हर इन्सान को कहीं-न-कहीं जोडती है और इन्सान का पथप्रशस्त करती है. लेकिन जिस प्रकार किसी भी प्रकार की अति इन्सान के लिए अहितकर होती है, उसी प्रकार अत्यंत आस्था भी इन्सान को भटका देती है. अत्यन्त आस्था का ही यह पागलपन है कि धार्मिकों नें दूसरे मत-मजहब वालों के लिए नास्तिक, काफिर आदि शब्द गढे और परस्पर घृणा, वैमनस्य एवं ईर्ष्या का जहर घोला. अत्यन्त आस्था का ही फल है कि इन्सान की बुद्धि धर्म, ईश्वर एवं ईश्वरीय वाणी के नाम पर गुलाम बना दी गई और इन्सान मानसिक-बौद्धिक गुलाम बना भटक रहा है. वह तर्क, विवेक, विचार, वैज्ञानिक चिन्तन को प्रश्रय देना ही नहीं चाहता.
हमें इस बात को हमेशा याद रखना होगा कि इस दुनिया में जब भी, जहाँ भी, जिस किसी नें भी किसी दिशा में सफलता हासिल की है, उसमें तर्क और विचार की भी उतनी ही भूमिका रही है, जितनी आस्था की. तर्क से ही अज्ञान-अंधकार को दूरकर ज्ञान का प्रकाश फैलाया जा सकता है. आज का वैज्ञानिक युग भी तो पूरी तरह से तर्कप्रधान ही है.जहाँ विज्ञान का विकास आस्था से नहीं तर्क से होता है. लेकिन ये भी बात है कि कोरा तर्क इन्सान को दिग्भ्रमित कर देता है और ऎसा इन्सान फिर डोर कटी पतंग की तरह यहाँ-वहाँ उलझकर और अधिक भ्रमित और अशांत ही होता है.
तर्क और आस्था की तुलना हम पतवार और नाव से कर सकते हैं. नाव में बैठकर हम लम्बी-चौडी नदी को भी सहजतया पार कर सकते हैं, परन्तु नाव धारा में तभी आगे बढती है, जब पतवार से पानी को काटा जाता है. केवल नाव के सहारे नदी नहीं पार की जा सकती और केवल पतवार का आश्रय लेना तो हद दर्जे की मूढता ही कही जाएगी. अत: नाव और पतवार दोनों का संयोग अति आवश्यक है. इसी प्रकार जीवन-पथ में आगे बढने एवं संसार-समुद्र में से सकुशल पार जाने के लिए आस्था और तर्क दोनों की महती आवश्यकता है, क्योंकि दोनों के संयोग से ही इन्सान में विवेक जागृत होता है-----और विवेक ही तो सुख-शान्ती-अमन-प्रेम का आधार है.
कबीर साहब कहते हैं-------कहहिं कबीर ते उबरे जाहि न मोह समाय !!
धर्म के नाम पर फैलाये जा रहे अन्धविश्वासों, चमत्कारों, प्रकृतिगत नियमों के विरूद्ध गलत मान्यताओं, कुरीतियों आदि के कारण जहाँ आज इन्सान की आस्था खंडित हो चुकी है, वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक-चिंतन के नाम पर सिर्फ कोरे तर्क या कुतर्क को प्रश्रय दिया जा रहा है, फलत: आज मानव-समाज की स्थिति बिल्कुल घडी के पैण्डुलम की तरह हो चुकी है. जो कभी इधर तो कभी उधर----बस झूल रहा है.

11 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

सत्य है, नाव और पतवार के संजोग से ही दरिया पार होता है।

सुज्ञ ने कहा…

पंडित जी,
आज सार्थक तलस्पर्शी विवेचन हुआ है। बधाई।

आस्था और तर्क उपार्जित विवेक। एक गहन चिंतन।

मेरी पोस्ट, दुर्गम पथ्…………अवश्य देखें।
http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/01/blog-post_17.html

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

दिल्ली में आस्था और तर्क, मस्जिद और मन्दिर के रूप में सामने प्रस्तुत हैं...

बेनामी ने कहा…

पंडित जी पोस्ट बहुत बढिया लगी/ बेहद अच्छे तरीके से आपने सत्यपरक चिन्तन प्रस्तुत किया है/
प्रणाम/

बेनामी ने कहा…

पंडित जी पोस्ट बहुत बढिया लगी/ बेहद अच्छे तरीके से आपने सत्यपरक चिन्तन प्रस्तुत किया है/
प्रणाम/

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर बाते कही आप ने धन्यवाद

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत ही विचारणीय विश्लेषण..... गहराईसे किया गया तर्क और आस्था का विवेचन....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच कहा है आपने ... आस्था के साथ साथ तर्क होना जरूरी है और अपना दर्शन तो वैसे भी तर्क में विशवास करता है ...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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शत-प्रतिशत शुद्ध चिंतन.
कहीं कोई छिद्र न मिला. जो प्रशंसासूचक शब्दों के अतिरिक्त कुछ कह पाऊँ.
इस पूरे लेख में तमाम सूत्र हैं संग्रह करने को :
— आस्थारहित मनुष्य का जीवन तो उस पेड के समान है, जिसकी जडें कट चुकी हैं.
— आस्था नैतिकता एवं सदाचार की रीढ ओर नैतिकता हमारे जीवन की.
— आस्था एक ऎसी धातु है जो हर इन्सान को कहीं-न-कहीं जोडती है और इन्सान का पथप्रशस्त करती है.
— अत्यन्त आस्था का ही यह पागलपन है कि धार्मिकों नें दूसरे मत-मजहब वालों के लिए नास्तिक, काफिर आदि शब्द गढे और परस्पर घृणा, वैमनस्य एवं ईर्ष्या का जहर घोला.
— अत्यन्त आस्था का ही फल है कि इन्सान की बुद्धि धर्म, ईश्वर एवं ईश्वरीय वाणी के नाम पर गुलाम बना दी गई और इन्सान मानसिक-बौद्धिक गुलाम बना भटक रहा है.
— कोरा तर्क इन्सान को दिग्भ्रमित कर देता है और ऎसा इन्सान फिर कटी पतंग की तरह यहाँ-वहाँ उलझकर और अधिक भ्रमित और अशांत ही होता है.
— विवेक ही सुख-शान्ती-अमन-प्रेम का आधार है. आदि ...

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Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

एक नितांत सारगर्भित लेख. पढ़ कर आनंद आया.

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत ही संतुलित ढंग से इस विष्य का विवेचन किया है। प्रतुल जी के कमेन्त को ही मेरा कमेन्ट मान लें। आस्था वो चीज़ है जिस से हम जीना सीखते हैं। सांइंस कुछ भी कहे किसी आस्था के बिना जीवन चल ही नही सकता। मेरा तो य्तही मानना है। शायद साइंसदान भी किसी न किसी आस्था मे विशवास रखते ही है।धन्यवाद इस आलेख के लिये।

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