माँस उसे अनुकूल नहीं है !
पशु भी मानव जैसे प्राणी
वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!
वे जीते हैं अपने श्रम पर
होती उनके नहीं दुकानें
मोती देते उन्हे न सागर
हीरे देती उन्हे न खानें
नहीं उन्हे हैं आय कहीं से
और न उनके कोष कहीं हैं
केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं
अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!
नदियों का मल खाकर खारा,
पानी पी जी रही मछलियाँ
कभी मनुज के खेतों में घुस
चरती नहीं वे मटर की फलियाँ
अत: निहत्थी जल कुमारियों
के घर जाकर जाल बिछाना
छल से उन्हे बलात पकडना
निरीह जीव पर छुरी चलाना
दुराचार है ! अनाचार है !
यह छोटी सी भूल नहीं है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!
मित्रो माँस को तज कर उसका
उत्पादन तुम आज घटाओ,
बनो निरामिष अन्न उगानें--
में तुम अपना हाथ बँटाओ,
तजो रे मानव! छुरी कटारी,
नदियों मे अब जाल न डालो
और चला हल खेतों में तुम
अब गेहूँ की बाल निकालो
शाकाहारी और अहिँसक
बनो धर्म का मूल यही है
मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!
रचनाकार:-----श्री धन्यकुमार
10 टिप्पणियां:
शाकाहार ही सर्वोत्तम है. बहुत ही सुंदर संदेश देती हुई रचना.
रामराम.
सार्थक संदेश लिए करूणा सभर काव्य!!
इस प्रस्तुति के लिए आभार!!
इसे निरामिष पर भी प्रस्तुत करने के लिए आभार, पंडित जी।
सुन्दर कविता और सार्थक संदेश...
आपका लेख पढ़ा और पढ़ते ही आपसे असहमत हो गए।
अब आप हमारा लेख पढ़िए और हिम्मत हो तो असहमत होकर दिखाइये :
शुक्रिया !
समलैंगिकता और बलात्कार की घटनाएं क्यों अंजाम देते हैं जवान ? Rape
सुंदर चित्रण।
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जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
माँस उसे अनुकूल नहीं है ||
सार्थक संदेश ||
धन्यकुमार जी की बात तो सही है पर फिर भी बहुत से सहमत नहीं ही होंगे इनसे
आदरणीय वत्स जी को हमारा प्रणाम! मन के लायक रचना पढ़ने मिली। पता नही कैसे कुछ लोग कहते हैं मानव की पाचन क्रिया मांसाहार के लायक ही है। एक निवेदन यदि स्वीकार करेंगे तो करुंगा।
सूर्यकान्त जी, मित्र! आपको निवेदन करने की क्या आवश्यकता है. आप तो साधिकार भी कह सकते हैं...निसंकोच होकर कहिए!
केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
वे संतोषी खेल रहे हैं
नंगे तन पर धूप जेठ की
ठंड पूस की झेल रहे हैं
इतने पर भी चलें कभी वें
मानव के प्रतिकूल नहीं हैं
अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
माँस उसे अनुकूल नहीं है !!
दर्द भरी दास्तान!!
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