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रविवार, 23 नवंबर 2008

आखिर ये भूख कब मिटेगी (आईये थोडा चिन्तन करें)

ज्यादा पुराना किस्सा नही है, यही कोई दो साल की बात है ,मुझे अपने परिचित मित्र के विवाह पर आयोजित आशीर्वाद समारोह पर भोज का निमंत्रण मिला था। समय तो 9 बजे अंकित था पर मै घर से ही घंटे- डेढ़ घंटे बाद समारोह स्थल के लिए रवाना हुआ.

विद्युत का जगमगाता प्रकाश दूर से ही आकर्षित कर रहा था। प्रवेश द्वार पर चूनड़ी का साफा बांधे, बंद गले का जोधपुरी कोट पहने एक सज्जन खड़े थे। उनके पास ही खडी थी, आभूषणों में सजी धजी महिला, शायद उनकी पत्नी। जो भी आ रहा था, वह उन्हें आशीर्वाद का लिफाफा देकर भीतर प्रवेश कर रहा था। लिफाफों से उनके कोट की दोनों जेबें लबालब भरी थीं।

मैने उन्हें ही अपने मित्र का पिता समझ, अपना आशीर्वाद का लिफाफा दे दिया। लम्बी नाल से गलियारे में बिछे कालीन को जूतों से खटाखट से दबाते जैसे ही भीतर पहूंचा, मंच पर दोनों आसन खाली दिखे। सामने कुसिर्यों पर अवश्य महिलाऐं जमीं थीं। कुछ दूर आगे बगल में भोजन पर भीड़ टूटी पड़ी थी।

मुझे वहां से यथा शीघ्र निपटकर दूसरी जगह आवश्यक रूप से पहुंचना था। इसलिए मैने सीधे पहुंच भोजन किया और बाहर आ जैसे ही गाड़ी स्टार्ट की, मेरे कानों में आवाज आई, बारात आ गई - बारात आ गई। मै सोच में पड़ गया। क्या वे मित्र के पिता नहीं थे? क्या वधू पक्ष के भोजन को ही उन्होंने अपना स्वरूचि भोज मान मित्रों को वहीं आमंत्रित किया है।

मेरे माथे पर बल् पड़ गये। सोचने लगा कि कब तक होता रहेगा वधू पक्ष का इस तरह शोषण। पढ़ी लिखी लड़की देकर भी इस पुरूष- प्रधान समाज में लड़की का पिता कब तक छला जाता रहेगा। मित्र ने अपना भार दूसरे के कंधे पर डाल दिया। कैसा जमाना आ गया है। यह कहते-कहते मैने अपना माथा ठोक लिया। एक बार तो सोचा कि लौट चलूं और मित्र को इस सबके लिए उलाहना भी दूं। लेकिन द्वार पर खडा वह लड़की का पिता समझेगा कि दुबारा खाने के लिए आ गया। इसी उहापोह में मेरी गाड़ी गंतव्य की ओर बढ़ती रही। मै सोचता रहा कि, क्या कन्या भ्रूण-हत्या इसीलिए होती है? क्या इसीलिए युवा लड़किया आत्महत्या कर लेती हैं? क्या इसीलिये विधवाए अपनी बच्चियों को लेकर कुओं में कूद जीवित समाधि ले लेती हैं? कब रूकेगी लड़के वालों की यह भूख? कब मिलेगा लड़कियों को उचित सम्मान?

गाड़ी गंतव्य पर पहुंच चुकी थी। फाटक लगाते हुए मैने यह सोच कर् संतोष की सांस ली कि जिसे आशीर्वाद चाहिये था, उसे ही मैने आशीर्वाद दिया है.

बताईए आप क्या सोचते हैं ?

7 टिप्‍पणियां:

BrijmohanShrivastava ने कहा…

आपका सोच विल्कुल सही है /हम ये तो देखते है कि भ्रूण हत्या हुई आत्म हत्या हुई /तह तक कोई पहुँचता नही /आपका चिंतन स्वागत योग्य है /हम को किसी बात की तह तक जाना चाहिए -आखिर ये घटनाएं क्यों होती है =यह जो छद्म शोषण है देखने में मामूली है किंतु कितना घातक है /आपसे केवल एक ही अनुरोध करूंगा कि आपकी विचारधारा से मिलता एक लेख ""डाटर्स मेरिज फोबिया "" जो मेरे ब्लॉग कुछ कुछ नहीं बहुत कुछ होता है पर मिल जायेगा जब भी थोड़ा अवकाश मिले उस पर नजर डालें

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अच्छी विचारणीय पोस्ट है।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

ye to bhukh par depend hai ki wah kis ke liye hai. narayan narayan

संगीता पुरी ने कहा…

अच्‍छे मुददे पर ध्‍यान केि‍न्‍द्रत किया है आपने। हमारे यहां विवाह के वक्‍त वर पक्ष वधूपक्ष के यहां बारात लेकर जाने और वधू के घर पर आ जाने के बाद अपनी ओर से एक प्रीतिभोज का आयोजन करने की परंपरा चलती आयी है। इसमें लगभग एक सप्‍ताह का समय लग जाता है। इधर कुछ दिनों से एक नई पद्धति लोकप्रिय हो रही है , जिसके अनुसार लडकीवालों को ही अपने शहर में बुला लिया जाता है और वहीं दोनो पक्षों के मेहमानों का स्‍वागत होता है। इसमें खर्च और समय दोनों की बचत होती है। मेरे ख्‍याल से आप जहां गए होंगे , वहां ऐसा ही आयोजन रहा होगा। इसमें मुझे कोई गडबड नहीं नजर आती है।

Unknown ने कहा…

@कब रूकेगी लड़के वालों की यह भूख? कब मिलेगा लड़कियों को उचित सम्मान?

प्रश्न जटिल हैं पर उत्तर बहुत आसन. प्रश्न सारे समाज को डस रहे हैं पर उत्तर हम में से हर एक के पास है - 'मुझे डकार आ गई, अब भूख नहीं है. मैं लड़कियों को उचित सम्मान दूँगा'. इस को रोज सुबह की अपनी प्रार्थना में शामिल कर लेना है बस.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

संगीता पुरी जी,नारदमुनि जी,परमजीत बाली जी, बृजमोहन जी, एवं सुरेश गुप्ता जी, आप सबका मेरे ब्‍लाग में आने, मेरे विचारों को पढने और टिप्‍पणी करने के लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद।
मै सुरेश जी से पूर्णत सहमत हू कि अगर बुराई/कुरीतियो को समाप्त करना है तो हमे हि एक ईमानदाराना शुरूआत करनी होगी. निस्सकोच.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

शर्मा जी बहुत सार्थक बात कही है आपने...सच हैं हम सिर्फ़ नाम को शिक्षित हुए हैं काम से अभी भी जंगली हैं...शर्म आती है समाज पर जब विवाह में लड़की के पिता का सर कर्ज से झुका देखता हूँ...बहुत अच्छी पोस्ट...
नीरज

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