लाला बनवारी लाल की रईसी का अन्दाजा तो कोई भी उनके बंगले को बाहर से देख कर ही लगा सकता था-सुंदर नक्काशीदार विशाल गेट जिससे अंदर जाते ही तरह-तरह के देशी-विदेशी पौधों, रंग-बिरंगे फूलों से लदा विशाल बगीचा,बडा सा स्वीमिंग पुल, गाड़ियां, पचासों नौकर-चाकर, राजा-महाराजाओं जैसी शानो-शौकत। और बंगले के अंदर तो जैसे एकदम स्वर्ग का सा आनन्द, एक से एक लग्जरी सामान, झाड़-फानूस, सभी ऐशो-आराम के साधन मौजूद थे । लगता था कि लक्ष्मी जी और कुबेर पूर्णरूप से मेहरबान थे लाला जी पर ।
लाला जी का भी क्या मेनटेनैंस था…एक-एक सामान को ऐसे सहेजकर रखते थे कि मज़ाल है कहीं कोई धूल का कण भी उसे छू जाए...बंगले के हर सामान में उनकी जान बसती थी । एक दिन उनकी गाड़ी को किसी ने टक्कर दे मारी थी…उसके दु:ख में घर पर किसी ने दो दिन तक खाना भी नहीं खाया ।
एक दिन अचानक ही बंगले के अंदर से तेज-तेज आवाजें आने लगी।चारों तरफ अफरातफरी का माहौल था, कोई अंदर भाग रहा था तो कोई बाहर ।
कुछ ही देर में सेठानी दौड़ती हुई बाहर आई और हांफती हुई बोली-'बचाओ,आग! आग!'
मंझला बेटा जो बाहर बगीचे में टहल रहा था, भागा-भागा अंदर गया और अपने प्यारे से कुत्ते को बाहर निकाल लाया ।
बाहर खड़े लोगों ने बंगले की ओर देखा-खिड़कियों से बाहर धुआं निकल रहा था, सेठानी तथा घर के अन्य लोग भी बाहर आ गए थे । सभी नौकरों को चिल्ला-चिल्ला कर अपना-अपना सामान लाने का आर्डर दे रहे थे।
बडे बेटे ने आवाज लगाई-'अरे ! कोई वो बड़ा बाला संदूक बाहर निकालो'।
इधर से बहु चिल्लाई'अलमारी से मेरी ज्वेलरी लाओ , वो डायमंड वाला सेट वहां लॉकर में पड़ा है…'।
छोटा बेटा बोला-'अरे! मेरा मोबाईल फोन वो वहां ड्राईंग रूम की टेबल पर रह गया.....'
धीरे-धीरे सारा कीमती सामान बाहर निकाल लिया गया ।
अंत में लाला जी का पोता जो कि 7 साल का था, दौड़ता हुआ बंगले के अंदर गया ओर कुछ देर बाद व्हील चेयर पर बैठे अपने दादाजी को लेकर बाहर निकला।
शायद रिश्तों का महत्व सिर्फ वो बच्चा ही समझ पाया था ।
10 टिप्पणियां:
बहुत संवेदनशील लेख!
सही है ......आज के युग में शायद सात साल की उम्र तक ही संवेदनशीलता बची है.....इससे आगे बढते ही धीरे धीरे सब रिश्ते व्यापार में बदल जाते हैं।
बहुत सुंदर कहा आप ने, आज की दुनिया... बस ऎसी ही है, अब क्या कहे.
धन्यवाद एक सत्य को बताने के लिये.
बहूत संवेदन शील लिखा है..............
तभी तो कहा गया है "बच्चे मन के सच्चे"
बच्चे पयार की भाषा को ही समझते हैं और रिश्तों में प्यार का महत्त्व मासूम मन ही समझ सकता है.
सुंदर लेख
रिश्तों का महत्व ही नहीं दादाजी की कीमत भी.
पता नहीं क्यों आज के दौर में रिश्तों का महत्व बच्चों के लिए ही रह गया है।
माहौल की अफरा-तफरी बेहद दिल को लगने वाली थी।
मेरा हमेशा एक सवाल रहता है। जब भी हम रिश्तों और चीज़ों को एक साथ बयाँ करते या साथ मे रखते हैं तो दोनों की अहमियत को तराजु-बट्टे मे क्यों मापने रखते हैं?
रिश्ते और चीज़े, दो अलग-अलग समझ के साथ मे देखी जाती हैं। इनको बताने के लिए दोनों का साथ मे होना क्यों जरूरी होता है?
लेख की कोशिश बेहद गहरा नज़रिया देती है। जो "ख़ास" और "अहमियत" दोनों शब्दों को एक ही दृश्य मे समाने लाकर रख देती हैं।
अच्छा लगा।
वाहवा पंडित जी कमाल की भावाभिव्यक्ति
इस शीर्षक से दो ब्लॉग है ऊपर वाले पर क्लिक किया तो वहां कुछ लिखा नहीं मिला /वास्तविकता के विल्कुल करीब आपका लेख ,वर्तमान पीढी पर करार तमाचा भी है
बहुत ही सुंदर भावनात्मक आलेख. बच्चों से कोई सीख ले. आभार.
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