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गुरुवार, 27 मई 2010

बुद्धिमानों का सम्मेलन और बनवारी लाल जी की मन की पीडा

बहुत पुरानी बात है कि एक बार देश की राजधानी दिल्ली में "बुद्धिमानों का सम्मेलन" आयोजित किया गया. जिसमे देश-विदेश के जाने माने बुद्धिमानों को आमन्त्रित किया गया. अब अपने बनवारी लाल जी को पता चला तो उनका मन भी हुआ कि चल के देखा तो जाए कि आखिर बुद्धिमानों का जमावडा कैसा होता है. इतने बडे बडे बुद्धिमान जुटेंगें तो शायद हमें भी उनसे कुछ सीखने को मिल जाए, शायद हमारी अल्पबुद्धि भी कुछ विस्तार पा जाए. सो, बनवारी लाल जी ने टिकट कटाई और चल पडे दिल्ली की ओर.....हालाँकि उन्हे इस सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए किसी की भी ओर से आमन्त्रित नहीं किया गया था......लेकिन फिर भी वो बेचारे अपना बेशकीमती समय बर्बाद करने का इरादा लिए चल पडे दिल वालों की नगरी दिल्ली की ओर. खैर जैसे तैसे खोजते खोजते वो उस आयोजन स्थल तक पहुँच ही गए. वहाँ पहुँचकर देखा तो माहौल बहुत अच्छा लगा. देश-विदेश से आए बडे बडे बुद्धिमान लोग एक बडी सी टेबल के चारो पर अपने अपने आसनों पर विराजमान आपस में किसी गम्भीर विषय पर विचारमग्न दिखाई दिए. हाँ कुछेक लोग ऎसे भी थे, जो कि आपस में हँसी ठिठोली में लगे हुए किन्तु बीच बीच में उपस्थित सदस्यों की ओर देखकर थोडी थोडी देर बाद अपनी मुंडी हिला दिया करते थे ओर फिर से अपनी हा-हा-ही-ही में मशगूल हो जाते.
अब समस्त बुद्धिमानों का आपसी विचार विमर्श चलता रहा, लेकिन अपने बनवारी लाल चुपचाप बैठे उन्हे सुनते रहे. हालाँकि वहाँ उपस्थित एक दो सज्जनों ने उन्हे कहा भी कि आप कुछ नहीं बोल रहे, आप भी अपने विचार रखें...........लेकिन बनवारी लाल जी तो गए ही सिर्फ ज्ञान प्रसाद लेने. वो भला क्या कहते. वैसे भी नीति यह कहती है कि ज्ञानियों की महफिल में अल्प बुद्धि वालों को हमेशा चुप ही रहना चाहिए वर्ना पोल खुलने का खतरा रहता है. सो, बनवारी लाल जी अपने बुद्धिमान होने का भ्रम बनाए रखने खातिर चुप्पी साधे बैठे रहे.
थोडी देर बाद सभा समाप्त हुई तो, आयोजकगण वहाँ उपस्थित सभी मेहमानों को भोजन का आग्रह करने लगे.
बनवारी लाल जी तो पहले ही उनके स्नेहभाव से अभिभूत थे, चाहकर भी उनके द्वारा बारम्बार किए गए इस विनम्र आग्रह को टाल न सके.......वैसे भी घर आए मेहमान का यथोचित आदर सत्कार करना न केवल इस देश में बल्कि सम्पूर्ण संसार में ही शिष्टता का आवश्यक अंग माना जाता है. ऊपर से बात यदि दिल्ली की हो, जिसे कि दिल वालों की नगरी कहा जाता है तो फिर तो कहने ही क्या.
खैर कहने का मतलब ये कि बनवारी लाल जी उनके द्वारा किए गए प्रेमपूर्वक आग्रह को टालने की धुष्टता न कर सके और भोजन पश्चात आयोजकगण की शिष्टता, मिलनसारिता एवं सत्कारभावना से अभिभूत सभी सदस्यों सहित विदा ली..........
अब यहाँ तक तो सब ठीक रहा.....किसी से कैसी भी कोई शिकायत नहीं बल्कि सच मानिए बनवारी प्रसन्न भाव से,  पूरी तरह से आनन्दित हुए घर आए............चलिए ये अध्याय तो यहीं समाप्त हो जाता है. 
लेकिन सम्मेलन के बहुत समय बाद की बात है कि एक दिन एक बुद्धिमान व्यक्ति उस सम्मेलन के औचित्य को लेकर कुछ सवाल खडे कर रहे थे तो भूलवश अपने बनवारी लाल जी का अचानक ही उधर को जाना हो गया. वहाँ प्रसंगवश उन्हे ये बात कहनी पडी कि "जी गलती से मैं भी उस सम्मेलन में उपस्थित था". बस इतना सुनना था कि वहाँ उपस्थित एक अन्य अशिष्ट, अभद्र व्यक्ति जो कि उस सम्मेलन मे भी उपस्थित थे लगे अपनी अशिष्टता का परिचय देने.....
कहने लगे कि " बनवारी लाल जी, आप सम्मेलन मे खाना तो बडे चपर-चपर कर खा रहे थे, अब आप अपने सम्मिलित होने को गलती बता रहे हैं".
हालाँकि अपने बनवारी लाल जी इतनी हैसियत रखते हैं कि बुद्धिमानी का नकाब पहले ऎसे औच्छे लोगों के पूरे खानदान को बरसों तक मुफ्त में घर बैठे खिला सकते हैं. लेकिन वो ठहरे सुसंस्कारित व्यक्ति,जो कि चाहकर भी उस स्तर पर नहीं उतर सकते जहाँ ये सभ्य समाज के तथाकथित सभ्य इन्सान खडे हैं.बनवारी लाल जी समझ नहीं पा रहे थे कि ऎसे घटिया लोगों को अपनी अशिष्टता का परिचय देने और अपनी औकात दिखाने से भला क्या हासिल हो जाता है...खैर ये तो वो लोग खुद जानें, हाँ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऎसे लोगों के रहते इस दुनिया के भाग्य में अभी बहुत से दुर्दिन देखने बाकी है.......
खैर बेचारे बनवारी लाल जी अपनी आत्मा पर बोझ लिए इस प्रतीक्षा में बैठे हैं कि आयोजकगण अथवा वहाँ उपस्थित अन्य ज्ञानियों में से कोई उन्हे अपना पता अथवा बैंक एकाऊंट नम्बर ही भेज दे, ताकि उन्हे उस भोजन की मूल्यराशि चुकाई जा सके..........इस जीवन का क्या भरोसा, प्राण निकलते कोई देर थोडा लगा करती है......बिना कीमत चुकाए कल को मर मुरा गए तो पता नहीं उसके बदले में आगे चलकर क्या कुछ भुगतान करना पड जाए......
निवेदन:- जरूरत से ज्यादा समझदारी रखने वाले सज्जनों से करबद्ध निवेदन है कि वे इसे कृ्प्या हास्य न समझें.
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रफ़्तार