सरलता सदैव प्रश्नों को जन्म देती है और जटिलता समस्याओं को. वर्तमान आधुनिक युग को यदि समस्याओं का युग कहा जाए तो शायद कुछ गलत न होगा. प्राचीन युग प्रश्नों का युग था. उस पौराणिक युग में तरह तरह के प्रश्न पूछे जाते थे, अनेक शंकाओं को उठाया जाता था. सब सवालों के जवाब दिए जाते थे और सारी शंकाओं का समाधान हो जाता था. यह शायद इसलिए कि पुराने युग की मानसिक स्थिति बचपन के जैसे हुआ करती थी,लेकिन ये युग तो मानो बूढों का युग है. आदमी पैदा होते ही सीधे बूढापे में कदम रख लेता है.जीवन की वो सरलता भला अब कहाँ दिखाई पडती है. बस बूढी मानसिकता से जन्मे उपदेश भर रह गए हैं सुनने को.
मुझे याद है जब मैं बचपन में परिवार के अपने बडे-बुजुर्गों से तरह तरह के सवाल किया करता था----देवता कौन होते हैं? लोग मर क्यूं जाया करते हैं? मरने के बाद इन्सान कहाँ जाता है? भगवान दिखता क्यूँ नहीं? दिन के बाद रात क्यूँ होती है? आकाश में ये तारे किसलिए चमकते हैं? वगैरह वगैरह......मेरे इन अबोध सवालों को सुनकर अक्सर या तो पिता जी चुप रहते या फिर उनका यही एक जवाब होता कि "बाप रे! ये लडका कितनी सिर खपाई करवाता है"
आज शायद मन की इस सरलता का कहीं लोप हो गया है, इसे पूरी तरह से जटिलता नें घेर लिया है. आज हर प्रश्न टेढा होकर समस्या बनता जा रहा है और समस्याओं से जीवन घिर गया है. इन का समाधान नहीं हो पा रहा है. इस लिए कभी कभी जी चाहता है कि काश हम पुन: बचपन में लौट सकते या फिर ये युग ही बदल जाता....इसके बदले में पौराणिक युग फिर से लौट आता. लेकिन ऎसा होना संभव ही कहाँ है. सच पूछिए, मुझे कभी कभी उन लोगों से रश्क होने लगता है,जो आज भी बचपन में जी रहे हैं. इनके चेहरों पर न तो हैरानी दिखती है और न ही किसी किस्म की परेशानी. सोचता हूँ कि हम लोगों नें पौराणिक सरलता को खोकर क्या पाया है. इस ससुरी आधुनिकता नें दुनिया को आखिर दिया ही क्या है ?...बस, हर एक चेहरे पर जटिलता की लकीरें और बिना सवालों के जवाब.
आज पेट के लिए रोटी मिलना, मोक्ष मिलने या न मिलने से अधिक चिन्ता का विषय है. सिलेंडर में गैस या गाडी में पेट्रोल का न होना, भगवान के होने या न होने से कहीं अधिक हैरान कर डालता है. पुरखे कितने सुखी थे. हर तरह की चिन्ता फिक्र से मुक्त.जो पेडों की छाँव तले बैठकर ब्रह्म और माया के रहस्य खोज लिया करते थे...लेकिन एक इधर हम हैं जिनसे दिन भर ऎ.सी.के नीचे बैठकर भी आज तक घर-गृ्हस्थी तक का रहस्य न सुलझाया जा सका. आज यदि हम अतीत में जीना चाहते हैं तो दुनिया पलायनवादी कहने लगती है,एक झटके में पुरातनपंथी घोषित कर दिया जाता है.करें तो क्या करें. जाएं तो आखिर कहाँ जाएँ ?
भाग्य के बलिहारी जाऊँ! धर्मपत्नि भी ऎसी मिली जो साईंस पढी हुई. समझिए जी का जंजाल. खाना खाने बैठो तो, निवाला मुँह तक बाद में जाए उससे पहले देर तक मुए प्रोटीन,विटामिन,कैल्शियम,कार्बोहाईटड्रेट वगैरह पर प्रवचन सुनना पडता है. पेट तो पहले ही इस प्रवचन से भर चुका होता है, खाना क्या खाक खाया जाएगा. कभी मीठे का निषेध करने लगती है तो कभी खट्टे का. आचार, घी वगैरह को तो छूने भी नहीं देती...कहती है कि दिल के लिए नुक्सानदेह होता है. अब उसे क्या समझाएं कि भागवान दिल को तो नुक्सान हो ही रहा है, अब और इससे ज्यादा भला क्या नुक्सान होगा. बस गनीमत है कि तुम्हारे होते (भी) अभी तक जैसे तैसे चल रहा है, धडकना बन्द नहीं हुआ :) इन नासपीटे वैज्ञानिकों का क्या जाता है. क्या खाना है, क्या पीना है.....ये लोग तो यूँ ही फालतू के शोध करते रहते हैं और बिना बात के हमारी जान को नए नए क्लेश खडे करते जाते हैं. इनका क्या जाता है. भुगतना तो हमें पडता है :)
अब तो ऎसा लगने लगा हैं कि विज्ञान का कार्य जीवन को समस्या मुक्त करना है ही नहीं वरन नित नई समस्याएं पैदा कर इसे ओर अधिक जटिल करते जाना है. पता ही नहीं चलता कि अपनी सहजता,सरलता और प्रकृतिमय जीवन व्यवस्था को खोकर हमने हासिल क्या किया है ? दिखाई पडता है तो सिर्फ यही कि----आधुनिकता के नाम पर जीवन में बस जटिलताएं ही जटिलताएं, सरलता कुछ भी नहीं.......
16 टिप्पणियां:
यह जीवन है .............इस जीवन का ............यही है....... यही है रंग रूप !!
jeevan jatiltaon ka hi ek naam hai
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
हास्य का पुट लिए एक विचारणीय लेख/सचमुच आज आधुनिकता नें इन्सान का जीवन जटिलताओं से भर डाला है/ओर इसके दोषी भी कहीं न कहीं हम लोग स्वयं ही हैं/
प्रणाम/
आपने कितनी सरलता से इस जटलता का राज बता दिया---
विज्ञान का कार्य जीवन को समस्या मुक्त करना है ही नहीं वरन नित नई समस्याएं पैदा कर इसे ओर अधिक जटिल करते जाना है.\बिलकुल सही कहा आपने। बडिया पोस्ट। आपकी पत्नि ने तो नही पढी? खुदा बचाये। शुभकामनायें
...फिर भी कई हैं, जो जटिलताओं भी सरलता से रह लेते हैं.
jatiltaon se hi toh jeevan hai. yeh na ho toh phir jeevan kis kaam ka. vaise aapki post bahut acchi lagi.
@कृ्ष्ण जी, कईं बार आपका ब्लाग खोलने का प्रयास किया, लेकिन खुल नहीं रहा. बारबार वायरस का संकेत दे रहा है. जरा देख लीजिएगा.
सरलता से सभी प्यार करते हैं!
बहुत ही अच्छा लिखा है.
इस पोस्ट ने जटिलताओं को सरलता से प्रस्तुत कर दिया और कुछ मुस्कुराहटें बिखेर दीं.
आदमी तरक्की की तरफ ही जा रहा , ये हम पर है कि हम जीवन की जटिलताएं उठाएं या सरल बनाएं पुराने जमाने में जब कोई लाइलाज बीमारी हो जाया करती होगी तो क्या जाने बीमार के दिल पर क्या गुजरती होगी ... और ये भी ठीक है कि बहुत बारीकियां इंसान को बेवजह सताती हैं ... आपका लेख एक सवाल उठाता हुआ सा ...
टिप्पणियाँ अपने आप कहाँ गायब हुए चले जा रही हैं?
आधुनिकता के नाम पर जीवन में बस जटिलताएं ही जटिलताएं, सरलता कुछ भी नहीं....
सत्य वचन है पंडित जी .... आज इंसान खुद ही फँसा जा रहा है इस जाल में ... मुक्ति का मार्ग नही मिल रहा है .. छटपटा रहा है की वो किधर जाए ... सब कुछ मकड़ जाल की तरह है ... सुबह सो कर उठने पर भी ताज़गी नही लगती ...
मशीनें तो लगातार मिल रही हैं, लेकिन जीवन जटिल होता जा रहा है.
बाप रे... पं जी कितना सोचते है | इतना मत सोचिये नहीं तो सचमुच कोइ बीमारी लगा जायेगी | भगवान भरोसे रहीये जो होगा सो ठीक ही होगा |
बिलकुल सही बात कही है महाराज आपने हम खुद विचार करें पहले व्यक्ति की आवश्यकता कितनी सी थी रोटी कपडा और मकान. आज के हिसाब से तो ये बिलकुल बाबा आदम के ज़माने की जीवन शैली है, लेकिन क्या हम दावा कर सकते है की उनकी तुलना में हम ज्यादा सुखि है. सिर्फ आज की चकाचौंध ही असल विकास है या संतोषी जीवनशैली में सुख से जीवन यापन करना . क्या हर चकाचौंध के पीछे गहरा अन्धकार नहीं है, क्या पा लिया है हमने साइंस के विकास से जबकि हमारी शांति ही खो गयी है. हमारे बडगे इतनी बिमारियों से जूझते थे, क्या उनकी जीवन शैली से ग्लोबल वार्मिंग फैलती थी , क्या उनकी जीवन शैली से धरती का संतुलन बिगड़ पाया था.अगर नहीं तो क्या हमें यह नहीं मानना चहिये की हमारे पुरखे ज्यादा विकसित थे,ज्यादा उन्नत थे, अपने जीवन में. और हम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.
Jatiltaayen manav ke mastishk ki upaj hain bhaai.
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