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गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जो कल था, वही आज भी है.....और शायद आने वाले कल को भी यही सब रहने वाला है........

पिछले दो एक दिनों से कईं बार कुछ लिखने की इच्छा हुई लेकिन हर बार उस इच्छा का मैं दमन करता रहा. कईं बार तो कीबोर्ड तक हाथ बढाए भी और फिर मन मसोस कर वापिस रूक गया. एक दो बार शुरूआत भी की लेकिन बात कुछ बनी नहीं. हल्की और उथली बातें, ढीले वाक्य, विचारहीन, तर्कहीन थोथी दलीलें---शायद इतना खराब मैने जिन्दगी में कभी नहीं लिखा. नहीं जंचा, सो तुरन्त मिटा डाला. उसके बाद भी लिखने की जब इच्छा करता तभी एक नामी साहित्यकार का यह उपदेश स्मरण आ जाता-----it is better to plant cabbages then to write anything.  यानि कुछ भी लिखने की बजाय घास छीलना कहीं ज्यादा अच्छा है. घास छीलने, हल जोतने या गायें-भैंसे चराने से मनुष्य का मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार का स्वास्थय ठीक रहता है. परन्तु ब्लाग लेखन से शारीरिक स्वास्थय की हानि के साथ साथ मानसिक पतन की भी बहुत गुंजाईश रहती है. आज हिन्दी-सेवा के नाम पर ईमानदारी और सच्चाई के साथ कुछ लिखते रहना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव सा हो गया है. मैं कहूँ कि लिखने से इसीलिए मुझे अरूचि हो रही है, तो साधुता का इतना बडा दम्भ मुझ मे नहीं है.  पहले की अपेक्षा आज और भी अच्छी तरह से मैं अपनी कमजोरियाँ जानता हूँ. इसीलिए सिर्फ इस वाले  ब्लाग पर कुछ लिखने से मेरे विरक्ति के जो भी कारण बन रहे हैं, वें निजि ही हो सकते हैं. जिन्हे पाठकों पर प्रकट करने का अभी समय नहीं है.
मेरा ख्याल था कि पिछले दो अढाई वर्षों में ये ब्लागिंग की दुनिया बहुत बदल गई है. परन्तु मेरी यह धारणा बिल्कुल गलत निकली. सारी चीजें ज्यों की त्यों हैं. बाकी दुनिया के साथ साथ ये ब्लाग संसार भी वैसे का वैसा ही चल रहा है. कहीं कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. जो कल था, वही आज भी है.....और शायद आने वाले कल को भी यही सब रहने वाला है........
हालाँकि मैं स्वयं को ऎसी कैटेगरी का जीव मानता हूँ, जिसका अन्त: और बाह्य एक समान है. न किसी की टें टें से काम और न दुनिया के करूण क्रन्दण से मतलब; कहीं भूकम्प आए या आग लगे, किसी को सम्मान मिले या जूते पडें, अपना काम है अपने सोटे-लंगोटे में मस्त पडे रहना; न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में. बस अपनी कल्पना के कल्पतरू के नीचे बैठकर अपनी विश्वामित्री सृ्ष्टि रचने में मस्त रहते हैं; सो भी तब, जब मौज आई, नहीं तो अपुण कल्पना करने का कष्ट भी नहीं करते.  
क्या इन्सान इतना अहमक भी हो सकता है, इसका मैं ख्याल नहीं कर सकता था! लेकिन आज कल में ही ये जान पडा कि हम सभी में कोई न कोई ऎसी कमजोरी है, हम सब किसी न किसी ऎसे एक ही रोग से ग्रसित हैं, जिसे हम एक दूसरे में बर्दाश्त ही नहीं करते , वरन सदैव उस पर परदा डालने का प्रयास भी करते रहते हैं. यह कब तक होगा ? इसे कब तक बर्दाश्त किया जाता रहेगा ? हम सभी अपनी दुर्बलताओं से कब इतना ऊपर उठेंगें कि दूसरे की दुर्बलता हमारे लिए असह्य हो जाए ? इतनी असह्य की गुस्से में हम चीख पडें, इतना कि दुनिया हमारी आवाज सुन सके. वह दिन कब आएगा ? मैं पूछता हूँ, कब ?

23 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

दुविधा का सटीक चित्रण
कृष्ण प्रेम मयी राधा
राधा प्रेममयो हरी


♫ फ़लक पे झूम रही साँवली घटायें हैं
रंग मेरे गोविन्द का चुरा लाई हैं
रश्मियाँ श्याम के कुण्डल से जब निकलती हैं
गोया आकाश मे बिजलियाँ चमकती हैं

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये

बेनामी ने कहा…

पंडित जी आप ही की जैसी मन:स्थिति से बहुत से ईमानदार ब्लागर गुजर रहे हैं/
बढिया प्रस्तुति/ आपको जन्मष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऎँ!

बेनामी ने कहा…

पंडित जी आप ही की जैसी मन:स्थिति से बहुत से ईमानदार ब्लागर गुजर रहे हैं/
बढिया प्रस्तुति/ आपको जन्मष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऎँ!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

वत्स साहब, कुछ नहीं सुधरने वाला ! हम हिन्दुस्तानियों में बहुत ज्यादा और बहुत जल्दी पाने की जो लालसा है वह क्या नहीं करवाती हमसे ! खैर, जन्मष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऎँ!

Unknown ने कहा…

शर्मा साहेब न तो कुछ बदला है और न ही बदलने वाला है! ये दुनिया ऎसे ही चलती रहने वाली है! बाकी जनाब गोदियाल जी का कहना भी बिल्कुल दुरुस्त है!

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…
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Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

शायद इसी को burn out कहते हैं. इसका एक ही उपाय है कि आराम किया जाए. जब इच्छा हो तब लिखा जाए वर्ना पढ़ा जाए, लेकिन ज़रूरी नहीं कि ब्लाग...जो इच्छा हो वह.

PN Subramanian ने कहा…

हम आशावादी हैं वो सुबह जरूर आएगी.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

वो सुबह कभी तो आयेगी................

राधे राधे....जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं.

रामराम.

राज भाटिय़ा ने कहा…

वत्स जी जिस दिन हम अपनी दुर्बलताओं पर विजय पा लेगे, समझो उस दिन हम ने इस दुनिया को जीत लिया... हम सब मै बहुत से अवगुण है, लेकिन अगर हम रोजाना सोने से पहले अपने बिताये दिन का हिसाब किताब सच्चे मन से करे तो हो सकता है हमारे यह अबगुण कुछ कम हो जाये,
बाकी मस्त रहे जी, कीचड के पास से गुजरे भी ना वर्ना छींटे पड गये तो दाग तो लगेगा ही ना.
आप का लेख पढ कर लगता है कि आप को कोई गहरी ठेस पहुची है, अब भुल जाये जी

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

kyaa baat he bhaayi jaan sbhi ko aek hi dnde se haank diya paanchon ungliyaan to khuda ne hi braabr ki nhin bnaayin apvaad to sbhi men hote hen ap bhi kuch apvaadopn se sbq len aek achchaa insaan krodon buron pr bhari hota he mehrbaani krke ghbraao nhin jit apni hi hogi vythit nhin ho bhayi jana . akhtar khan akela kota rajsthan

Neeraj Rohilla ने कहा…

आपकी हर पोस्ट का हमें बेसब्री से इन्तजार रहता है। और वायदे के अनुसार आपने मांगलिक वाली पोस्ट अभी तक नहीं लिखी है :)

आप नियमित लिखें वरना हम पढेंगे क्या?

प्रवीण ने कहा…

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" मेरा ख्याल था कि पिछले दो अढाई वर्षों में ये ब्लागिंग की दुनिया बहुत बदल गई है. परन्तु मेरी यह धारणा बिल्कुल गलत निकली. सारी चीजें ज्यों की त्यों हैं. बाकी दुनिया के साथ साथ ये ब्लाग संसार भी वैसे का वैसा ही चल रहा है. कहीं कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. जो कल था, वही आज भी है.....और शायद आने वाले कल को भी यही सब रहने वाला है....."

हम कौन थे...क्या हो गये...और क्या होंगे अभी...?

वही, निष्पक्षता व निर्लिप्त्ता का दिखावा करते...हर उस मौके या विवाद, जिसमें हमारे दखल की जरूरत है, पर चुप्पी साध जाते...हरेक ब्लॉगर, चाहे वह कितना ही गलत हो,की गुड-बुक में रहने का हरदम प्रयत्न करते...और यह सब करते हुऐ दुनिया को बेहतर बनाने का दिवा स्वप्न देखते...हुए हिन्दी ब्लॉगर!


आभार!

ओशो रजनीश ने कहा…

...गज़ब का लेखन्।
......
( क्या चमत्कार के लिए हिन्दुस्तानी होना जरुरी है ? )
http://oshotheone.blogspot.com

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@नीरज रोहिल्ला जी,
ओह्ह्! दरअसल स्मरण ही नहीं रहा अन्यथा आपको शिकायत का मौका ही नहीं देते...खैर देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ. अभी "कर्म सिद्धान्त" पर एक लेख श्रृंखला चल रही है..जैसे ही समाप्त होती है तो सब से पहले आप ही की शिकायत दूर की जाएगी..बस कुछ दिनों की ही बात है.
टिप्पणी के लिए आपका धन्यवाद :)

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@प्रवीण शाह जी,
बेशक आपकी बात से असहमत होने का तो कोई सवाल ही नहीं है..लेकिन यहाँ अधिकांशत: वे व्यक्ति जो किसी मौके या विवाद, जिसमें हमारे दखल की जरूरत है---उसमें चुप्पी न साध, दखल देते दिखाई देते है....मेरी नजर में कोरे प्रोपेगोंडिस्ट लोग हैं. जो कि येन-केण-प्रकारेण सिर्फ द्य़्सरों की निगाह में आना जानते हैं. सो, ऎसे प्रचार के भूखे आदमियों से किस प्रकार की ईमानदारी/निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है...

naresh singh ने कहा…

पंडितजी ज्यास्ती टेंशन लेने का नहीं | बिंदास रहने का |

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

आता कुछ नहीं है
लाना पड़ता है
चुप रहकर भी
शोर मचाकर भी
आप मौन धर कर
लाने वाले हैं
मेरी तरह
सब कुछ देखते रहो
पर विचलित मत होओ
आप विचलित हो जाते हो
पर यह भी जरूरी है
सब एक जैसे नहीं हो सकते
तो हम आप ही कैसे
एक जैसे हों
पर अच्‍छाई के लिए
हमें डटे रहना है
बुरों और बुराईयों को
अपनी अच्‍छाईयों से
कमतर करना है।
मैदान मत छोड़ना।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हम सब किसी न किसी ऎसे एक ही रोग से ग्रसित हैं, जिसे हम एक दूसरे में बर्दाश्त ही नहीं करते ..

वैसे अपनी और दूसरे किसी की भी ग़लती बर्दाश नही होनी चाहिए अगर वो जानबूझ कर करी गयी है ... पर अंजानी ग़लतियों को क्षमा करना ही अच्छा है ... न हो सके तो प्रयास तो किया ही जा सकता है ....

Asha Joglekar ने कहा…

Sab badlega humare badalne se.

ZEAL ने कहा…

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वैसे अपनी और दूसरे किसी की भी ग़लती बर्दाश नही होनी चाहिए अगर वो जानबूझ कर करी गयी है ... पर अंजानी ग़लतियों को क्षमा करना ही अच्छा है ... न हो सके तो प्रयास तो किया ही जा सकता है ....

I agree with Digambar Naswa ji.
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निर्मला कपिला ने कहा…

कभी कुछ नही बदलेगा। मुझे भी यही लगता है। मन की कशमकश छोडिये और डट कर लिखिये। शुभकामनायें

www.hamarivani.com
रफ़्तार