चलिए, आज आपको एक कहानी सुनाते हैं. एक था सांप और एक थे ऋषि. साँप एक दिन ऋषि के पास जा बैठा और उनसे कुछ ज्ञान देने की प्रार्थना की. ऋषि नें उसे अहिंसा का उपदेश दिया. बस, उस दिन से साँप नें व्रत ले लिया कि अब वह किसी को न काटेगा. कुछ दिन बीते कि ऋषि अपनी तीर्थयात्रा पर चले गए और साँप के व्रत की बात आसपास सबको मालूम हो गई. अब हुआ ये कि वहाँ खेलते हुए बच्चे उस साँप को पकड लेते और घंण्टों तोडते मरोडते. एक दिन एक ग्वाले नें उसे पकडकर अपनी गाय के सींगों में बाँध दिया और दिन भर गाय झाडियों में सींग मारती घूमती रही. अब बेचारे साँप की तो आ गई शामत. बेचारा लहूलुहान होकर बडी मुश्किल से शाम को छूटा, पर दूसरे दिन बच्चों नें उसे फिर पकड लिया और उसके मुँह में रेत भर दिया.
उन बच्चों में कोई एक आध उदण्ड टाईप का लडका भी रहा होगा. उनमें से एक उसकी आँखों में सींक देकर अन्धा करने वाला ही था कि ऋषि उधर से आ निकले. देखते क्या हैं कि मोटा-मतंगा साँप लट्कर रस्सी हुआ पडा है और रूप एकदम से बटरूप!
खिन्न होकर बोले: " अरे यह क्या हुआ तुझे साँप?"
"महाराज, आपने ही तो अहिँसा का उपदेश दिया था!" साँप नें भक्ति-भाव से, पर कातर स्वर में कहा.
ऋषि समझ गये कि क्या हुआ है उसके साथ और बोले: "अरे मूर्ख, मैने यही तो कहा था कि काटना मत. पर यह कहाँ कहा था कि फुँकारना भी भूल जाना!"
साँप समझ गया और आज बहुत दिन बाद उसने फन उठाकर फुंकार मारी. बस, सारे खिलाडी नौ-दो-ग्यारह और उस दिन के बाद साँप अब व्रती भी और मौज में भी.
मतलब यह कि उदार रहो, कृपा करो, सबके साथ समानता निबाहो, पर सस्ते न बनो. अपना भेद न दो कि दूसरे सिरपर-से रास्ता करने की ठानें.
महाकवि कालिदास ने महाराज दिलीप के वर्णन में कहा है:---
"भीमकान्तैर्नृपगुणै: स: बभूवोजिविनाम
अदृ्श्यश्चाभिगभ्यश्च यादोरत्नैरिवार्णव: !!
दिलीप में भयंकरता भी थी और कमनीयता भी, इसलिए उसके आस-पास वाले न उसकी अवज्ञा कर सकते थे, न उपेक्षा; जैसे भयंकर जलजीवों के कारण लोग समुद्र को मथ नहीं सकते, पर रत्नों के कारण छोड भी नहीं पाते.
लोकभषा में भी तो कहते हैं कि 'न गुड सा मीठा, न नीम सा कडवा!" न ऎसा ही बन कि पल में निगला जाए और न ही ऎसा बन कि तुझे लोग थूक दें.
क्या समझे ?
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21 टिप्पणियां:
सब समझे ;) जय हो आपकी ! भला हो हमारा !!
सुन्दर ज्ञानवर्धक कहानी|
आप ऋषि ,मैं तक्षक।
मैं भोला,गुरु रक्षक॥
सही उपदेश दिया | हमें समय और व्यक्ति को देख कर व्यवहार करना चाहिए ना कभी दूसरो की ज्यादती सहनी चाहिए और ना दूसरो पर ज्यादती करनी चाहिए |
पंडित जी, सर्वदा उतम/ इस ज्ञानगंगा में डुबकी लगा के जा रहे हैं :)
शर्मा साहेब. समझ भी लिया और ग्रहण भी कर चुके! जो लोग अहिंसा को कायरों का भूषण मानते हैं, उन्हे इस कथा से कुछ सीख लेनी चाहिए!
@ हंसराज जी,
बन्धु काहे को शर्मिंदा कर रहे हैं. जमीन के आदमी को जमीन पर ही रहने दीजिए महाराज! बिना पंखों के उडने से तो रहे.फालतू में हाथ-पाव तुडवा बैठेंगें..और पाप जाएगा आपके सिर :)
बस स्नेह भाव बना रहे, सब का साथ-सहयोग मिलता रहे, ये क्या कम बडी बात है...
बहुत अच्छा उपदेश देती कहानी .
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व्यवहारिक दृष्टिकोण लिये हुये यह कहानी हमने बचपन में सुनी थी, एकिन वत्स साहब, आज के समय में बच्चों तक ये बातें हमारी पीढ़ी नहीं पास-ऑन कर पाई, और फ़िर हम बच्चों पर गुस्सा करते हैं कि उनमें संस्कार या व्याव्हारिकता नहीं है।
मेरी नजर में ऐसी प्रेरक कथाओं की कीमत सदियों पहले, उस समय के हिसाब से लिखी गई किताबों से कहीं ज्यादा है।
अच्छी कहानी.मुझे पसंद आई
उपदेशात्मक कहानी बहुत सुन्दर लगी | पहले भी कंही पढ़ी थी लेकिन यंहा दुबारा पढकर भी अच्छा लगा |
सुन्दर ज्ञानवर्धक कहानी|
बहुत प्रेरक लगी यह कहानी
आभार इस पोस्ट के लिये
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प्रेरक कथा !
शिक्षाप्रद, और बहुत ही उपयोगी सीख देनी वाली कथा पढवाई आपने, बहुत-बहुत धन्यवाद!
प्रेमरस.कॉम
वाह!!! अतिरोचक और प्रेरक कथा...
रोचक और शिक्षाप्रद !
SAMAJH GAYE PANDIT JI ... DAR TO HONA HI CHAAHIYE .. NAHI TO GHAR MEIN BACHHE BHI NAHI POOCHTE... GYAN BHARI BAATON KA AANAD LE RAHA HUN ...
गांधी जी ने भी इस प्रकार की अहिंसा की ्पक्षधरता नहीं की...
ek achchi kahani.
न तू इतना कडवा बन जो चखे वो थूके ।
न तू ऐसा मीठा बन कि खा जायें भूखे
॥
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