कुछ लोग हैं, जो मानते हैं कि बुद्धि और धर्म दोनों एक दूसरे के विपरीत तत्व है। इन दोनों के क्षेत्र बिल्कुल अलग-अलग है. बात है भी सही। क्योंकि जहाँ बुद्धि तर्क पर चलती है, वहीं धर्म श्रद्धा पर। लेकिन इतने पर भी बुद्धि खुद समझती है कि मेरी हद कहाँ तक है। इसलिए, यदि बुद्धि का प्रयोग करने से कोई विश्वास, कोई धर्म टूटता है तो उसे टूटने ही देना चाहिए। बुद्धि की कैंची से जो धर्म कट जाए, खंडित हो जाए---समझिए कि वह धर्म नालायक है। जो बुद्धि की कसौटी सहन कर सकता हो, वही असली धर्म है। लेकिन जो ये सोचने का अंग है, उसमें किसी धर्म के मानने वाले यदि यह कहें कि बुद्धि प्रयोग से हमारी परम्पराएं, हमारे विश्वास, हमारी धारणाएं खंडित होती है तो समझना चाहिए कि वें खंडित होने के लायक ही है।
बचपन में हमें कहा जाता था कि चोटी खुली रखने से ब्रह्महत्या का पाप लगता है। अब बचपन की बात है तो उस समय इतनी समझ भी कहाँ होती थी कि तर्क करने बैठें। सो जैसा कहा गया वैसा मान लिया। कुछ बडे हुए तो उसकी गम्भीरता समझ में आई और पूछ बैठे कि यदि चोटी न बाँधने से ही ब्रह्महत्या लग जाती है तो यदि कोई साक्षात ब्रह्महत्या कर दी जाए तो फिर कितना पाप लगेगा? बस, इसका किसी के पास् क्या जवाब होता। सो, टूट गई श्रद्धा। कहने का मतलब ये कि इस प्रकार की बेसिरपैर की बातों का बुद्धि से कोई सम्बंध नहीं है।
आज, चाहे कोई सा भी धर्म क्यों न हो, सबमें धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की अन्धश्रद्धाएं, भान्ती-भान्ती की कुरीतियाँ ही देखने को मिल रही हैं। इन्सान धर्म की आड में चल रही इन कुप्रथाओं को ही वास्तविक धर्म समझने लगा है। अब यदि कोई व्यक्ति इनके विरूद्ध आवाज उठाता भी है तो लोग उसे निज धर्म का खंडन मानने लगते हैं। लोगों को सोचना चाहिए कि अगर ये प्रथायें बुद्धि प्रयोग से खंडित होती हैं, तो उन्हे खंडित होने दें। अब यदि कोई उसे निज धर्म का खंडन मानता है तो उन्हे यह भी समझ लेना चाहिए कि वास्तव में धर्म कभी खंडित होने वाला नहीं होता। ओर जो खंडित हो जाए, समझो वो धर्म ही नहीं है। इसलिए उसके विषय में दुख करने, क्रोधित होने का कोई कारण ही नहीं है।
धर्म में, जो नाना प्रकार के मसलन बली प्रथा, कुर्बानी जैसे गैर जरूरी तत्व शामिल हो गए हैं, उन्हे हटाया जाए और स्पष्ट कहा जाए कि वे जरूरी नहीं है। भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी जो छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे का विरोध करते हैं, जरा जरा सी बात पर मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं, उन्हे ये समझना चाहिये कि अपनी कुरीतियों पर पर्दा डालने की बजाय, उसके बदले में सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जाए और उसके अनुसार जीवन चलाने का प्रयास किया जाए। ऎसा करने पर ही लोगों में धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा विकसित होगी और समाज भी सही रूप में प्रगति कर सकेगा।
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा
22 टिप्पणियां:
बचपन में ये कहा जाता था चोटी रखना बहुत जरूरी है क्यों कि आप हिन्दू है |लेकिन उस चोटी का असली महत्त्व तो अब समझ में आ रहा है |
शुद्ध अखंड धर्म को परिभाषित करता आलेख।
जो बुद्धि और विवेक की कसौटी न सह सके वह धर्म नहिं होता।
अविवेकी मान्यताओं के हटानें से खण्ड खण्ड हो जाये वह धर्म नहिं होता।
मात्र सुगमता सरलता और भेडचाल ही धर्म नहिं होता।
गुणों को अंगीकार किया जाय और पुरूषार्थ से पाया जाय वही धर्म है।
बेहद उत्तम विचार अगर ऐसा होने लगे तो धर्मावलम्बियो का धंधा कैसे चलेगा? सिर्फ़ स्वार्थ सिद्धि के लिये जनता की भावनाओं से खेला जाता है वरना मेरे ख्याल से कोई धर्म गलत राह नही दिखाता।
सत्य वचन पंडित जी, आपके विचारों से सहमति है/ इस बात को तो शास्त्र भी कहते है कि "धार्यते इति धर्म"/
सत्य वचन पंडित जी, आपके विचारों से सहमति है/ इस बात को तो शास्त्र भी कहते है कि "धार्यते इति धर्म"/
बहुत ज्ञान वर्धक,और सत्य को प्रखरता से व्यक्त करती पोस्ट है महाराज .......................दया धर्म का मूल है, विवेक उसकी कसौटी है लेकिन कोई जड़मति धर्म की जड़ तक पहुँचने का उपक्रम ही ना करे तो बुद्धि की बलिहारी है ..........
धर्म की दया सरिस हरिजाना (७-११२-१०)
दया के सामान कोई धर्म नहीं है .
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई"
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा (७-१२१-२२)
अहिंसा के बराबर कोई परम धर्म नहीं है, इस बात से कौन दुष्ट इनकार करेगा . कौन सा धर्म हिंसा की छूट देगा ,और जो हिंसा की छूट दे तो उसको धर्म कैसे माना जाये .
शर्मा साहेब, वाजिब बात कही आपने! आलेख में उतमता से धर्म के वास्तविक रूप को उद्घाटित किया है! आडम्बर विहीन कर्म ही वास्तविक रूप में धर्म कहलाने के हकदार हैं!
इसके साथ ही विज्ञान सम्मत चीजों को अंगीकार करना और विवेक से काम भी लेना धर्म का ही कार्य है. जहां तर्क, विवेक, बुद्धि, विज्ञान की गुंजाइश नहीं तो वहां धर्म की जगह भी मुश्किल ही है..
बिल्कुल सत्य कहा आपने. प्रणाम.
रामराम.
kaya buddhi yah nahi kahti ke sansar banaya aek ne our puja jata hai anek ko?
विचारणीय...उत्तम विचार...
बहुत ही सुलझा हुआ लेख.
'सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जाए और उसके अनुसार जीवन चलाने का प्रयास किया जाए'
भारतीय नागरिक जी की यह बात 'जहां तर्क, विवेक, बुद्धि, विज्ञान की गुंजाइश नहीं तो वहां धर्म की जगह भी मुश्किल ही है'बहुत पसंद आई.जैसे इस लेख का सार हो .
आज के भागते दौड़ते जीवन में हर किसी को इन बातों का अर्थ अवश्य समझना चाहिए.
@Thakur M.Islam Vinay उर्फ....उर्फ...
जनाब सब अपनी अपनी समझ का फेर है. आप जहॉ एक में भी अनेक देखते है, वहीं हम अनेक में एक.
पिता एक ही होता है.वो दो नहीं हो सकते, हमेशा एक ही होगा. अब किसी व्यक्ति की 5-7 संतानें हो और सभी संताने उसे पापा, डैडी, पिताजी, अब्बा जैसे अलग अलग संबोधनों से बुलाते हों, तो क्या पिता एक से अनेक हो जाते हैं ?
आदरणीय पं.डी.के.शर्मा"वत्स" जी
नमस्कार !
मैं शत-प्रतिशत सहमत हूं कि…
अपनी कुरीतियों पर पर्दा डालने की बजाय, उसके बदले में सर्वमान्य नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जाए और उसके अनुसार जीवन चलाने का प्रयास किया जाए।
आपके प्रस्तुत आलेख सहित पिछली दो पोस्ट्स
मनुज प्रकृति से शाकाहारी
हिंसा में जो शक्ति है, वह प्रेम में कहां......
भी हूबहू मेरे विचारों के ही अनुरूप होने के कारण बहुत पसंद आईं … आभार !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
Thakur M.Islam Vinay संकर प्रजाति का लगता है. इनकी खुद की तो अकल होती नहीं, जैसा मुल्ला हांकते हैं हंक जाते हैं
यह लोग अपने धर्म को जबरदस्ती दूसरों पर लादना चाहते हैं. इसीलिए यह पैदा होते हैं. जो बहनों से विवाह करते हैं उनसे क्या आशा की जा सकती है
सही कहा , अगर अपने असली पिता को डैडी , पापा , अब्बा , अब्बू, बापू, वगैरह वगैरह
बुलाता हूँ तो कोई बात नहीं ,
क्योंकि सभी लोग इस बात पर सहमत है भिन्न भिन्न भाषा में पिता के संबोधन के लिए भीं भिन्न भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है इसमें किसी को भी ऐतराज़ नहीं है ,
किन्तु अगर मै अपने पिता को छोड़ कर किसी और पिता या बापू या अब्बू वगैरह पुकारूं तो मै क्या कहलाऊँगा ?
क्योंकि पिता तो एक ही है , उसकी एक ही भेष है एक ही शरीर है ,
तौसिफ़,
जिस बालक ने जन्म के बाद एक बार भी पिता को न देखा हो, वो कैसे जानेगा कि अनजान व्यक्ति उसका पिता नहिं है।
और आपने कैसे जाना कि पिता तो एक ही है , उसकी एक ही भेष है एक ही शरीर है। और जिसे आप अल्लाह कहते है वह यही है। या वह ईश्वर नहिं है? अथवा राम नाम से या गोड नाम से पुकारने पर वह नहिं सुनेगा। कि उस पिता को केवल एक संबोधन ही प्यारा है। या वह हमारे मन के उद्देश्यों को नहिं समझ पायेगा।
@ मियाँ तौसीफ साहब,
जनाब यहाँ तो पहले ही टाईम का टोटा रहता है. बामुश्किल घंटा आध घंटा तो ब्लागिंग के लिए समय निकाल पाते हैं. उस पर भी आप जैसे ज्ञानी लोग जिनका बुद्धि, तर्क, ज्ञान-विज्ञान से दूर दूर तक भी कोई सम्बन्ध नहीं...ऎसे तर्क करने लगते हैं,कि जिनका जवाब एक बच्चा भी बडी आसानी से दे सकता है.
मान लीजिए अगर हम अपने बेशकीमती समय में से थोडा समय निकालकर आप महानुभावों से तर्क-वितर्क करने बैठ भी जाएं तो आप तो भागते भी देर नहीं लगाते.यूँ गायब हो जाते हो कि मानों गधे के सिर से सींग.
बन्धु, कभी ईमानदारी से ज्ञनचर्चा करने का मन करे तो मय तैयारी के साथ आईये ताकि कुछ आपको भी हासिल हो और हमें भी(चाहे भागते भूत की लंगोटी ही सही)...यूँ फालतू में टाईम खोटी करने का भी क्या तुक्क है.
अच्छा जै राम जी की,
@ हंसराज जी,
शुक्रिया! आपने मियाँ तौसीफ को माकूल जवाब दिया. लेकिन कोई फायदा नहीं. ये अब कहाँ आने वाले हैं.
इनके साथ तो महज अपना समय खराब करना है.
Sach kaha hai aapne ... ye sabhi baaten dharm sabha ke manch par uthni chaahiyen aur saarthak samadhaan hona chaahiye ...
आपसे सहमत हूँ .
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