ad

बुधवार, 2 मार्च 2011

माँस मनुष्य का भोजन नहीं

पशु,पक्षी,कीट, पतंगे आदि संसार में जितने भी प्रकार के प्राणी हैं, सब के सब अपने-अपने स्वाभाविक भोजन को भलीभाँती जानते तथा पहचानते हैं. अपने भोजन को छोडकर दूसरे पदार्थों को सर्वदा अभक्ष्य समझते हैं, उनको देखते, सूँघते तक नहीं. अत: अपने आपको सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले इस इन्सान से तो अन्य सभी प्राणी कहीं अच्छे हैं. जैसे जो पशु घास खाते हैं, वे माँस की ओर देखते तक भी नहीं और जो माँसाहारी पशु हैं, वे घासफूस की ओर खाने के लिए दृष्टिपात तक नहीं करते. उसी प्रकार कन्द-मूल और फल-फूल भक्षी प्राणी इन पदार्थों को छोडकर घासफूस नहीं खाते. परन्तु यह अभिमानी मनुष्य संसार का एक विचित्र प्राणी है, जिसे भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं, पेय-अपेय की कोई मर्यादा नहीं----खानपान में सर्वदा उच्छ्रंखल, कोई नियम-बंधन नहीं. यह सर्वभक्षी बना हुआ है. पशु-पक्षी-कीट-पतंगें इत्यादि सबको चट कर जाता है. उसने पेट को सभी प्राणियों का कब्रिस्तान बना छोडा है. निरपराध निर्बल प्राणियों को मारकर खाने में इसनें न जाने कौन सी वीरता समझ रखी है. यहाँ मुझे राष्ट्रीय कवि मैथली शरण गुप्त जी की लिखी चार पंक्तियाँ स्मरण हो रही हैं, जिसमें उन्होने इसका अच्छा चित्र खींचा है------
" वीरत्व हिँसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का
   कुछ भी विचार उन्हे नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का !
  केवल पतंग विहंगमों में जलचरों में नाव ही,
  बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही !! "
अर्थात जो अपने शत्रुओं का वध(हिँसा) युद्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे, आज वे भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिए अपनी वीरता दिखा रहे हैं. पापी मनुष्य नें सब प्राणी खा लिए, केवल नभचरों में आसमान में उडने वाली पतंग, जल में रहने वालों में लकडी की नाव और चौपायों में केवल एक चारपाई बची है, जिसे वो खा न सका. इन तीनों को छोडकर शेष सबको इसनें अपने पेट में पहुँचा दिया. इसी के फलस्वरूप मनुष्य सभी प्राणियों की अपेक्षा कहीं अधिक रोगी व दु:खी रहता है.
पुरातन काल की बात है, एक बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी नें अपनी जिज्ञासा रखी ओर तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है ?
प्रश्न:---- कोरूक्, कोरूक्, कोरूक्
कौन निरोग रहता है ? कौन निरोग रहता है? कौन निरोग रहता है?
उत्तर:--- ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्
(1) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (2) जो हितकारी भोजन करता है, (3) और जो मितभोजन अर्थात भूख से कुछ कम भोजन (अल्पाहार) करता है---वाह सर्वथा रोगरहित और पूर्णत: स्वस्थ व सुखी रहता है.
माँसाहार कभी धर्मानुसार इन्सान का भोजन नहीं हो सकता. माँसाहारी ऋतभुक नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिए माँस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिँसा है और हिँसा से प्रप्त हुई कोई सामग्री भक्ष्य नहीं होती.
हितभुक् जो हितकारी पदार्थों का सेवन करता है, वह हितभुक् सदा स्वस्थ रहता है.
मितभुक् जो भूख रखकर थोडा मिताहार करता है, ऎसा व्यक्ति पूर्णत: स्वस्थ रहता है.
जो लोग ईश्वर नाम की किसी सत्ता पर विश्वास करने वाले हैं, उन्हे भी ये समझना चाहिए कि ईश्वर सभी प्राणियों का पिता है. संसार का हर जीव उसके पुत्र तुल्य है, वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को अपनी अन्य संतानों पशु, पक्षी आदि की हिँसा करके खाने की आज्ञा भला कैसे दे सकता है तथा अपनी संतानों के प्रति की गई हिँसा से कैसे प्रसन्न हो सकात है ? उन लोगों को ये समझना चाहिए कि जो पदार्थ हिँसा से किसी को सताकर, मारकर, छल-कपट, अधर्म से प्राप्त हों, उनका सेवन करना किसी भी प्रकार से इन्सान के लिए हितकारी नहीं हो सकता.
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी!
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातका: !!
सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारनेवाला, खरीदनेवाला, बेचनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला ये आठ प्रकार के पातक अर्थात कसाई कहे गये हैं. ऎसे हिँसक कसाई अधर्मियों के लोक-परलोक दोनों बिगड जाते हैं. इसलिए हिँसा से बचिए और न केवल अपने अपितु अपनी आने वाली पीढियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए भी माँसाहार का परित्याग कर शाकाहार को अपनाईये.
आप इस आलेख को यहाँ निरामिष ब्लाग पर भी पढ सकते हैं.

17 टिप्‍पणियां:

Amit Sharma ने कहा…

बिलकुल सामायिक विचार .................. ज्ञानवर्धक पोस्ट

सुज्ञ ने कहा…

सत्य निरुपण है, पंडित जी,

बिना किसी जीव की हिंसा किये मांस प्राप्त करना असम्भव है, और ऐसे अभक्ष्य से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव का ह्रदय में आवास पाना सम्भव ही नहीं, और अहिंसा-भाव के अभाव में दिल से प्रेम और दया-करूणा का झरना बहना दुष्कर है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न सामिष अभक्ष्य से हिंसक विचारों का मन में स्थापन स्वभाविक है।इस कथन का कोई औचित्य नहीं कि ‘जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों’। कदाचित न भी हों, पर संभावनाएं अधिक ही होती है। हमें तो परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचना है। हिंसा के प्रति कारूणिक सम्वेदनाओं के बिना अहिंसा की मनोवृति प्रबल बन नहीं सकती। और वही सम्वेदनाएँ हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाती है।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सत्य बात लिखी है आपने. शुभकामनाएं.

रामराम.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

सनातनी इसका शिकार हो रहे हैं. सब कुछ भूल चुके हैं, अपनी संस्कृति भी... सभी मांसाहारी होते जा रहे हैं...

बेनामी ने कहा…

पंडित जी, आपके कथन से अक्षरश: सहमति है/ कहा भी तो गया है कि जैसा खाये अन्न वैसा होये मन/ राक्षसी खानपान से तो बुद्धि राक्षसी ही होगी/
प्रणाम/

बेनामी ने कहा…

पंडित जी, आपके कथन से अक्षरश: सहमति है/ कहा भी तो गया है कि जैसा खाये अन्न वैसा होये मन/ राक्षसी खानपान से तो बुद्धि राक्षसी ही होगी/
प्रणाम/

राज भाटिय़ा ने कहा…

वत्स जी बहुत अच्छी बात कही आप ने, लेकिन इंसान समझता ही नही, वेसे जेसा हम खाते हे वेसा ही हमारा स्व्भाव बन जाता हे, ओर मांस खाने से बुद्धि भी तो राक्षस जेसी हो जाती हे, ओर उस मासा हारी के दिल मे कोई प्यार नही रहता, कोई द्या नही रहती. धन्यवाद
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.

मो. कमरूद्दीन शेख ( QAMAR JAUNPURI ) ने कहा…

सच कहा पंडित जी आपने! भारत गवाह है कि सदियों से शाकाहारी भोजन करने वाले वर्ग ने सभी पशु-पक्षियों के प्रति कितनी दया दिखाई है। न कभी किसी को सताया, न कोई भेद-भाव किया, न किसी पर अत्याचार किया,न किसी का दिल दुखाया, सभी को ईश्वर का अंश मानकर सबके साथ भाई-भाई का व्यवहार किया। शायद सारी दया भावना पशुओं में बांटते-बांटते समाप्त हो गई इसीलिए इंसानों के हिस्से में कुछ न आई। धर्मानुसार भोजन करने बाली बात थोड़ी कम समझ में आई, मेरी जानकारी में जैन धर्म (जो ईश्वर को नहीं मानता) को छोड़कर और किसी धर्म ने मात्र शाकाहारी भोजन करने की सलाह नहीं दी है। मैं मांसाहार की वकालत नहीं कर रहा हूं, पर यह दुष्प्रचारित करना कि दया पर मात्र शाकाहारियों का एकाधिकार है ,उचित नहीं है।

Ashish Shrivastava ने कहा…

पंडित जी,
भोजन के तीन प्रकार सात्विक, राजसीक और तामसीक है।
क्या राजसीक और तामसीक भोजन मे मांस नही आता है ?
केवल एक जिज्ञासा है !

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छे विचार...

किलर झपाटा ने कहा…

इतने टेस्टी भोजन को गन्दा बोल रहे हो पंडितजी ? बहुत खराब हो आप । जाओ आपसे कट्टी, कट्टी कट्टी। और ये समीर जी, उड़न तश्तरी पर बैठकर डेली मुर्गा खाते होंगे और यहां कह रहे हैं "अच्छे विचार"। हाँ नहीं तो! जाओ इनसे भी कट्टी।

बेनामी ने कहा…

भाई बहुत बढ़िया मुहिम चला रहे हो. आपकी इस मुहिम से अगर ग़ोश्त के भाव बढ़ना रुक गए तो आपका शुक्रगुजार रहूँगा. बहुत महंगा होता जा रहा है.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

विचारणीय पोस्‍ट।


---------
ब्‍लॉगवाणी: ब्‍लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

"मेरी जानकारी में जैन धर्म (जो ईश्वर को नहीं मानता) को छोड़कर और किसी धर्म ने मात्र शाकाहारी भोजन करने की सलाह नहीं दी है।"
@ MD.QAMARUDDIN साहब,
आपकी जानकारी गलत है. जैन,बौद्ध इत्यादि धर्म तो बहुत बाद में आये हैं, जबकि सनातन धर्म के आदिग्रन्थ वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृतियाँ, महाभारत इत्यादि सबमें मासाँहार को निषिद्ध् बताया गया है. इस संबंध में तो मैं आपको सैंकडों क्या बल्कि हजारों की संख्या मे उद्फ्धरण दे सकता हूँ. पोस्ट के अंतिम हिस्से में जो प्रश्नोत्तर दिया गया है, वो भी मनुस्मृति से है.
वर्षे वर्षेश्वमेघेन यो यजेत शतं समा:
माँसानि च न खादेद्यस्तयो: पुण्यफलं समं !!
यजुर्वेद कहता है कि जो सौ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष अश्वमेघ यज्ञ करता है और जो जीवन भर माँस का सेवन नहीं करता है, उन दोनों का एक समान फल है.
दूसरी बात ये कि संसार में आपको इस्लाम और क्रिश्चनिस्म नाम के सिर्फ ये दो धर्म ही ऎसे मिलेंगें जिन्होने प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप में माँसाहार को प्रोत्साहित किया है, वर्ना हर धर्म, हर मत, हर सम्प्रदाय नें इसका निषेध ही किया है.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

@ आशीष श्रीवास्तव जी,
दरअसल सत्व,रज और तम की साम्यावस्था का नाम ही प्रकृति है. भोजन की भी यही तीन श्रेणियाँ हैं. माँस तामसिक भोजन मे ही आता है, लेकिन बात ये है कि अब प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि या प्रकृति के अनुसार ही भोजन का चुनाव करता है.
" आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: "
अर्थात सात्विक वृति के लोग सात्विक भोजन को श्रेष्ठ समझते हैं. राजसिक प्रवृति को रजोगुणी भोजन रूचिकर होता है और तमोगुणी व्यक्ति तामसिक भोजन की ओर भागते हैं.
1.आयु--सत्व-बलारोग्य-सुख-प्रीति को बढाने वाले, रसीले, चिकने, स्थिर अर्थात जल्दी खराब न होने वाले एवं ह्रदय के लिए हिताकरी----ऎसा भोजन सात्विक जनों को प्रिय होता है.अर्थात जिस भोजन के सेवन से बल,वीर्य, आरोग्य आदि की वृद्धि हो, जो सरस, चिकना, घृतादि से युक्त, चिरस्थायी(जल्दी खराब न होने वाला) और ह्रदय को शक्ति(मजबूती) देने वाला है---जैसे कि गाय का दूध, घी, गेहूँ, जौं, चावल, मूँग, मोठ, उत्तम फल, शाक, तुरई, लौकी, आदि मधुर, ओजप्रद एवं शीघ्र पचने वाले पदार्थ--
2.कडवे, खट्टे, नमकीन, तीक्ष्ण, दाह-जलन उत्पन्न करने वाले(शरीर में एसीड बनाने वाले), इमली, आचार आदि से युक्त चटपटे पदार्थ राजसिक श्रेणी में आते हैं, जिनके सेवन से इन्सान की वृति चंचल हो जाती है एवं आगे चलकर वृद्धावस्था में नाना प्रकार की आधि-व्याधियों का सामना करना पडता है. उपर्युक्त राजसिक पदार्थ अभक्ष्य की श्रेणी में तो नहीं आते, किन्तु इन्सान के लिए हानिकारक अवश्य रहते हैं.
अब तीसरी श्रेणी आती है तामसिक भोजन की, जिसमें बहुत देर से बने हुए,शुष्क,नीरस,किसी के झूठे एवं माँस-मछली, अंडे इत्यादि पदार्थ, जो कि इन्सान की वृति को दूषित, बुद्धि नष्ट, आयु को क्षीण एवं दाँतों का गिर जाना, गर्मी के रोग, नेत्र विकार इत्यादि विभिन्न प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते हैं.
सिर्फ इस तामसिक् आहार को ही अभक्ष्य की श्रेणी में रखा जाता है.....

मो. कमरूद्दीन शेख ( QAMAR JAUNPURI ) ने कहा…

पंडित जी, आपने मनुस्मृति और महाभारत का संदर्भ देकर मांसाहार को निषिध्द करने का प्रयास किया है। लेकिन मनुस्मृति के अध्याय 5 के श्लोक 30,31,32,33,34 और 35 में मांसाहार करने की अनुमति दी गई है, श्लोक 35 में तो यहां तक कहा गया है कि ''जो मनुष्य श्राध्द और मधुपर्क में नियुक्त हुआ, मांस नहीं खाता है वह मनुष्य मरकर इक्कीस जन्मों तक पशु होता है।'' महाभारत के अनुशासन पर्व अध्याय 88 में पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को उपदेश दिया कि श्राध्द के समय शाकाहारी खाद्य पदार्थों के दान से मात्र एक माह तक तथा मछली - मांस के दान से दो,तीन,चार,...... -अनेक संख्याएं वर्णित, पशुओं की प्रजाति के अनुसार, जैसे भेड़, खरगोश,बकरी,सूअर इत्यादि - माह तक शांति मिलती है। अंत में कहा गया कि गैंडे के मांस से सदैव के लिए सुख शांति मिलती है तथा लाल बकरी के मांस से अनंत सुख-शांति मिलती है।
अब कौन सनातनी यह चाहेगा कि वह इक्कीस जन्मों तक पशु बना रहे या कौन सनातनी नहीं चाहेगा कि उसके पूर्वजों को अनंत काल तक सुख-शांति मिलती रहे।

naresh singh ने कहा…

सात्विक विचार वाली पोस्ट का आभार |अगर इस पोस्ट को पढकर एक बन्दा भी मांसाहार का त्याग कर देता है तो मानिए की ये एक मील का पत्थर है |

www.hamarivani.com
रफ़्तार