पता नहीं आप इस तरह से सोचते हैं या नहीं, पर बात वास्तव में सोचने की ही है. घरबार, बाल-बच्चे, रोजी-रोजगार, अडोसी-पडोसी, नाते-रिश्तेदार, देश-दुनिया और तो और भगवान के होने या न होने के बारे में भी आपने जरूर सोचा होगा. लेकिन मैं कहता हूँ कि इतना सबकुछ सोचने पर भी आपने कुछ नहीं सोचा, क्यों कि जो कुछ भी आपने सोचा वो सोचा न सोचा एक बराबर है.
दरअसल बात ये है कि जो कुछ भी हम सोचते हैं, उसे यदि सोचना कहा जाए तो हकीकत ये है कि वह सोचने की परिधि में ही नहीं आता, क्यों कि धूल से लेकर चाँद-तारों तक, 'इस' से लेकर 'उस' तक सोचते रहने पर भी हम लोग अपने बारे में जरा भर भी सोचते ही कहाँ हैं?
यूँ तो हम और आप सभी सोचने का काम करते हैं. आखिर ऊपर वाले नें दिमाग तो इन्सान को सोचने के लिए ही दिया है. अब ये हमारे ऊपर है कि हम उससे क्या सोचते हैं, कितना सोचते हैं और किस तरह से सोचते हैं. अब सोचने वाले तो एक गधे को भी किसी एक विशेष दृ्ष्टिकोण से देखकर उसके सौन्दर्य, उसके भोलेपन, उसके शरीफाना अन्दाज की सराहना करने के बारे में सोचते सोचते भी एक अच्छे खासे दार्शनिक हो सकते हैं. इसी तरह आप हिन्दी के ब्लागर होकर भी, ब्लाग पर अगढम-बगढम, कूडा कबाड छापते रहकर भी,आप चाहे तो दिनभर सक्रियता क्रमाँक, उसका आधार,सिद्धान्त, उसकी कार्यप्रणाली----साथ में अपनी(ब्लाग की) और दूसरों की क्रमाँक सँख्या आँखों के सामने रखकर चिन्तन करते रहें तो भी अपने आप में श्रेष्ठ ब्लागर होने के गुण विकसित कर ब्लागरत्व को सहज ही प्राप्त सकते हैं. पर मेरा संकेत इस तरह से सोचने की ओर नहीं है. भई आप विकासवाद के सिद्धान्तानुसार बन्दर के नूतनतम संस्करण हैं...सो, बन्दर से कुछ अधिक दिमागदार तो होंगें ही. इसलिए, इस दशा में सोचना भी आपके लिए लाजिमी ठहरा. लेकिन एक बात जो तय है कि सारी दुनिया जहान की सोचते सोचते भी कुछ तो सोचना हमेशा बाकी रह ही जाता है. आप पूछेंगें क्या ?
जरा उस समय के बारे में सोचिए जब आप अकेले बैठे हों और जम्हाई आ रही हो. उस समय बिना सोचे मुँह चौडा करके नथुना फुलाना कितना मनमोहक लगता होगा. यदि उस समय आप अपनी खुद की शक्ल देख सकें तो अपने काजल भाई या इरफान भाई के कार्टून भी फीके लगने लगेंगें. या फिर चुपचाप बैठे मूच्छ के बाल पकडकर उन्हे घुमाते रहना या नाक को अंगूठे और अँगुली का चिमटा बनाकर बार बार खीँचना----इन सबको आप सोचने की वस्तु भले ही न समझें, लेकिन मैं तो समझता ही हूँ.
आप सोचेंगें कि ये भी कहाँ कहाँ की सोचने लगे. लेकिन भाई बात सोचने की ही है. चाहे बेशक आप उसे सोचकर भी अनसोचा कर दें. यह सोचकर भी बिना सोचे-समझे मैं जो ये यहाँ लिख रहा हूँ , वह भी एक सोच में विमग्न व्यक्ति को देखकर ही. यहाँ जो कुछ भी मैने लिखा है या आपके शब्दों में कहें तो सोचा है----वह सिर्फ उस सामने बैठे व्यक्ति को देखकर ही. लेकिन अब वह उठकर चल दिया, इसलिए आगे क्या लिखा जाए बस यही सोच रहा हूँ.....तब तक आप बताईये कि पढकर आपने क्या सोचा ? :)
19 टिप्पणियां:
सोचकर बताऊंगा की मैंने क्या सोचा ;)
इतना सोचने के बाद भी कुछ बचा है क्या सोचने के लिए | चिंतन का काम पंडित लोगो का है हम जैसे अज्ञानी लोगो का नहीं है |
पंडीत जी हम तो यही सोच सोच कर परेशान हुए जा रहे हैं कि टिप्पणी में क्या लिखा जाए/ठहरिए जरा कुछ सोच विचार कर लें :-)
अभी सोच रहा हूँ ................कमेन्ट का फिलहाल इंतज़ार ना करें !
सोचना क्या जरुरी है?? हमारे मन मोहन जी भी बिना सोचे ही काम चला रहे है ना....
aapane toh dimag ghuma dala sir ji..ab pahle kuch der soch le phir aate hain..tab tak intjaar keejiye :D
aapane toh dimag ghuma dala sir ji..ab pahle kuch der soch le phir aate hain..tab tak intjaar keejiye :D
aapane toh dimag ghuma dala sir ji..ab pahle kuch der soch le phir aate hain..tab tak intjaar keejiye :D
:D...ha! ha! ha!
सोच कर देखते हैं ...
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likhte samay soch rahi hun ki aap kya soch rahe honge is samay...
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अपके सोचने से पहले से सोच रही हूँ मगर सोच है कि समाप्त ही नही होती। कमेन्ट क्या दूँ? सोच रही हूँ। आभार।
अब बैठे सोच रहे हैं कि क्या सोचे...
हम ये सोच रहें हैं कि आखिर सोचा क्या जाए?
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अथातो सर्प जिज्ञासा।
संसार की सबसे सुंदर आँखें।
सोच सोच कर पढ़ी आपकी पोस्ट ... उसके बाद घंटे भर बैठ कर सोचा ... अभी भी सोचना जारी है ... पर समझ नही आ रहा क्या सोचें .... हां इतना तो ज़रूर सोच लिया आपकी पोस्ट मजेदार है ...
कहते हैं कि ज़्यादा सोचने से गंजे हो जाते हैं..इसलिए इससे दूर ही रहा जाए तो अच्छा है.
मेरी अवस्था अत्यधिक सोचनीय है इसलिए फिलहाल कुछ भी नहीं सोच सकता हूँ ...
इस बारे में सोचा जा सकता है।
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सावन आया, तरह-तरह के साँप ही नहीं पाँच फन वाला नाग भी लाया।
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