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गुरुवार, 16 जून 2011

क्या भ्रष्टाचार के इस दानव पर अंकुश लगा पाना सम्भव है ?


आचार और विचार की शुद्धता भारतीय सभ्यता का मूलमन्त्र रहा है. मनुष्यता सदैव आचरण और व्यवहार से पहचानी जाती है; पैसा, पद अथवा उपाधि से नहीं. हर युग, हर देश और यहाँ तक कि हर धर्म में मानव-जीवन की मर्यादा के एक-से सिद्धान्त स्वीकृत हैं. वे हैं---कर्तव्य-परायणता, सत्यनिष्ठा, नि:स्वार्थ कर्म, मानवमात्र के प्रति सहानुभूति और परोपकार की भावना आदि. इन मर्यादाओं के अनुसार किया गया आचरण और व्यवहार ही "सदाचार" माना जाता है तथा इसके विपरीत, मर्यादा से हटकर, स्वार्थपूर्ण, दूषित आचरण "भ्रष्टाचार" है. हमारा जो भी कार्य औचित्य के विरूद्ध होगा, अनुचित होगा, वह निश्चित ही भ्रष्टाचार की श्रेणी में गिना जाएगा.
आज स्थिति ये है कि ये "भ्रष्टाचार" हमारे जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में कैंसर के भीषण रोग की तरह इस प्रकार अपनी जडें जमा चुका है कि यदि एक क्षेत्र में इसकी चिकित्सा की भी जाती है तो वह दूसरे क्षेत्र में, दूसरे रूप में फूट पडता है. प्रशासन तन्त्र के हर विभाग, अनुभाग और प्रभाग तथा राजनैतिक क्षेत्र में तो भ्रष्टाचार एक औपचारिक अनिवार्यता बन ही चुका है----सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र भी इस 'महारोग' के कीटाणुओं से बच नहीं पाया है. कोई भी ऎसा कार्य जो कि एक नागरिक के रूप में हमारा मूलभूत संवैधानिक अधिकार है, तो भी किसी न किसी सम्बन्धित अधिकारी की जेब या मुट्ठी गर्म किए बिना बात ही नहीं सुनी जाती. जब न्यायसंगत और 'उचित' कार्य भी रिश्वत अथवा सिफारिश के बिना नहीं हो सकते तो अनुचित रूप से लाभकारी कार्यों के लिए तो 'उच्चतम' भ्रष्टाचार स्वाभाविक ही है.

भ्रष्टाचार के इस विषैले कीट नें इस देश के लोकतन्त्र की जडों तक तो पूरी तरह से खोखला कर डाला है.आज स्थिति यह है कि प्रिंट मीडिया हो चाहे टेलिवीजन मीडिया---अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य के मूलभूत अधिकार पर भी सेंसर, पक्षपात तथा ब्लैकमेल, चरित्रहनन, अपप्रचार आदि के रूप में भ्रष्टाचार का दानव निरन्तर कुठाराघात कर रहा है.

आखिर, भ्रष्टाचार की इस भयंकर महाव्याधि का कारण क्या है ? इसका उत्तरदायी कौन है ? निस्सन्देह नौकरशाही प्रशासनिक व्यवस्था इस समस्या की जड है. स्थिति ये है कि ऊपर मन्त्री से लेकर नीचे सन्तरी तक भ्रष्टाचार के अनेक सोपान है. लेकिन इन सोपानों का निर्माणकर्ता कौन है ? केवल शासनतन्त्र को इसका दोष देकर सन्तोष नहीं किया जा सकता. यह ठीक है कि भ्रष्टाचार का जन्म प्रशासन और न्याय-व्यवस्था में विलम्ब का कारण होता है. सरकार विभिन्न संस्थानों, उद्योगों तथा योजना-कार्यों को पर्याप्त अनुदान प्रदान करती है, जिसे स्वार्थी भ्रष्टाचारी बीच में ही हडप लेते हैं, एक आम आदमी तक कुछ नहीं पहुँच पाता. जो स्वयं को मिलने वाले अधिकार का कुछ अंश बिचौलियों में बाँट सके, सिर्फ वही कुछ हासिल कर सकता है. क्या इस सबका कारण स्वयं जनता नहीं है ? कोई भी अधिकारी मूलत: भ्रष्टाचारी नहीं होता. जनता स्वयं अपनी आवश्यकताओं को 'समय से पहले' या अनुचित रूप से पूरा करने के लोभ से, उसी लोभ का कुछ भाग सम्बन्धित अधिकारी को पेश करती है. इस प्रकार स्वयं 'दाना फेंककर' भ्रष्टाचार का श्रीगणेश करती है. कहा जा सकता है कि जिसने लाखों रूपयों का चढावा चढाकर कोई सरकारी पद प्राप्त किया है, वह अधिकार हाथ में आते ही अपना 'व्यय' क्यों नहीं निकालेगा ? लेकिन सबसे पहले रिश्वत देकर भ्रष्टाचार को स्वीकृति तो उसी ने दी थी ! आज का अधिकारी, नेता या मन्त्री कल तक जनता का ही एक अंग था. उस समय यदि वह भ्रष्ट साधन अपनाकर अपनी तथाकथित "उन्नति" के लिए पासा न फैंकें------और प्रत्येक व्यक्ति ऎसा ही निश्चय कर ले तो भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन नहीं मिल सकता. इसी प्रकार प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव के लिए विभिन्न तरह के लोगों और उद्योगों से पार्टी फंड के रूप में "काला धन" हासिल करता है. अत: विजयी होने पर उन व्यक्तियों एवं उद्योगों को उचित-ानुचित रूप से लाभ पहुँचाने की वह दल हर सम्भव चेष्टा करता है. इस प्रकार भ्रष्टाचार का चक्र अनवरत रूप से चलता रहता है.

स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार की निरन्तर वृद्धि का कारण किसी एक वर्ग की स्वार्थान्ध वृति नहीं, जनता और सरकार, देश और समाज के प्राय: सभी वर्ग किसी-न-किसी रूप में इस समस्या के लिए जिम्मेदार हैं. इस समस्या के निरन्तर पनपने के कुछ मनोवैज्ञानिक और आर्थिक कारण भी हैं. कईं बार कुछ लोगों की मजबूरी और लाचारी उन्हे न चाहते हुए भी भ्रष्टाचार के जाल में फँसा देती है. आकाश को छूने वाली महँगाई के कारण अच्छ ऊँचे पद पर काम करने तथा पर्याप्त वेतन पाने वाले लोग भी परिवार का भली-भाँती पालन-पोषण करने में असमर्थ हो रहे हैं, निम्न और साधारण वर्ग की तो बात ही क्या है. इस स्थिति में कुछ दिन तक तो काम चल सकता है, जीवन की सभी आवश्यकताएं स्थायी रूप से पूरी नहीं की जा सकती. ऎसी स्थिति में लोग विवश होकर अनुचित साधनों से आय बढाने के उपाय नहीं सोचेंगें तो भला ओर क्या करेंगें. ये तो रहा आर्थिक कारण जो भ्रष्टाचार के इस पौधे को खाद देने का काम कर रहा है. इसके अतिरिक्त इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण ये है कि हम लोग अपनी आवश्यकताएँ दूसरों की देखादेखी बढाते चले जा रहे हैं. आज केवल पेट भरने, शरीर ढँकने या रहने में इतना खर्च नहीं होता, जितना कि ऊपरी रख-रखाव, मौजमस्ती , शानो-शौकत और बनाव-श्रृंगार में होता है. हमारे घर में चाहे दो समय का भोजन जुटाना कठिन हो किन्तु मोहल्ले, समाज और दुनिया की नजरों में अपनी मिथ्या शान बनाये रखने के लिए जिन ढकोसलों में पडे हैं, उन्हे ही हम जीवन का अनिवार्य अंग मानने लगे हैं. इन ऊपरी अनावश्यक बातों के लिए जब हमारी उचित आय पूरी नहीं पडती, तब अनुचित आमदनी के लिए ललकना तो स्वाभाविक ही है!

भ्रष्टाचार के जो भी रूप और कारण आज हम देख रहे हैं, उनका निराकरण कोई असम्भव बात नहीं है. वैसे तो देश के बडे-बडे विचारक और अर्थशास्त्री यह कहते हैं कि 'काला धन' अर्थात भ्रष्टाचार देश का एक समानान्तर अर्र्थशास्त्र बन चुका है, जिससे मुक्ति नहीं पाई अज सकती. लेकिन मैं कहता हूँ कि यह सोच केवल बुराई के सामने आत्म-समर्पण है. कठोर नियन्त्रण और सच्चे आत्मानुशासन से इस समस्या का समाधान निश्चित रूप से किया जा सकता है. कठोर कानूनी व्यवस्था द्वारा निसन्न्देह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया अज सकता है. बस आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि सरकार और जनता की आँख खुली रहनी चाहिए. आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक------किसी भी प्रकार का भ्रष्ट आचरण करने वाले पर तनिक सा सन्देह होते ही कठोर निगरानी की जानी चाहिए और भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने आने पर अपराधी को अवश्य दण्डित किया जाना चाहिए. लेकिन कठिनाई तो यह है कि दण्ड-व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार के जीवाणु घुस चुके है. उसे सतर्क, निष्पक्ष एवं कठोर बनाने के लिए आवश्यक है कि जनलोकपाल बिल के रूप में एक अधिकार प्राप्त, शक्ति-सम्पन्न और हर प्रकार के राजनैतिक दबाव से मुक्त स्वायत न्याय-तन्त्र स्थापित किया जाए, जिसका कार्य केवल विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार के मामलों की ही सुनवाई और उनके सम्बन्ध में कारवाई करना हो. हालाँकि अन्ना हजारे एवं उनकी मंडली इस दिशा में प्रयासरत्त है, लेकिन सरकार की मनोदशा को भाँपते हुए ये कहना अभी मुश्किल ही है ऊँट किस करवट बैठने वाला है.
इसके अतिरिक्त एक कार्य ओर है जो भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है. वि ये कि मिलावटखोरों, जमाखोरों और रिश्वत लेने-देने वालों को पकडकर उनका मुँह काला करके सरेआम बाजार में घुमाया जाए. यह सामाजिक तिरस्कार बडी से बडी कैद से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है. लेकिन इस देश की यह एक विडम्बना है कि भ्रष्टाचार को दबाने वाले कहीं-न कहीं स्वयं उसी का शिकार हो जाते है. इसलिए ऎसा कुछ हो पाएगा, इसकी उम्मीद रखना भी शायद बेमानी ही होगा.

लेकिन एक बात तो तय है कि यदि भ्रष्टाचार के दानव को परास्त करना है, तो उसके लिए चहुँमुखी अभियान आवश्यक है------सरकार, जनता, कानून और आत्मानुशासन----इन चारों में परस्पर समन्वय होने पर ही इस नासूर से मुक्ति पाई जा सकती है, अन्यथा नहीं.

6 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

इन परिस्थितियों में तो सम्भव नहीं. जब तक ऊपर सुधार नहीं होगा, नीचे सबकुछ व्यर्थ है.

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

भ्रष्ट्राचार एक ऐसा पेड़ है जिसकी जड़ें आसमान में और शाखा पत्तियाँ जमीन पर हैं। इसे जमीन पर रह कर नहीं काटा जा सकता।

और महाराज पतरा देख के बताओ कि ये सरकार कितने दिन की मेहमान है?:)

पुनरागमन पर स्वागत है।

सुज्ञ ने कहा…

सबसे पहले तो आपके सुखद पुनरागमन पर हार्दिक स्वागत है पंडित जी।
आपके आगमन नें हमारे विराम लेने जा रहे दिए में तेल भरने का कार्य किया है।

भ्रष्टाचार पर आपका विश्लेषण सार्थक और सटीक है। आज तो स्थिति यह बन गई है कि यह अनाचार है यह कैसे मनवाया जाय? भ्रष्टाचार कर कर के ठीठ बने लोगों को।

पर धीरे धीरे ही सही कदम जाग्रति की और ही दृष्टिगोचर हो रहे है। सुखद संकेत हैं।

kshama ने कहा…

लेकिन एक बात तो तय है कि यदि भ्रष्टाचार के दानव को परास्त करना है, तो उसके लिए चहुँमुखी अभियान आवश्यक है------सरकार, जनता, कानून और आत्मानुशासन----इन चारों में परस्पर समन्वय होने पर ही इस नासूर से मुक्ति पाई जा सकती है, अन्यथा नहीं.
Isme koyi shak nahee....lekin ye hoga kaise??

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

एक बात तो तय है कि यदि भ्रष्टाचार के दानव को परास्त करना है, तो उसके लिए चहुँमुखी अभियान आवश्यक है
---
आपने अच्छी जानकारी दी है। शुक्रिया !
एक जानकारी हम भी दे रहे हैं कि
सच्चा गणेश कौन है ? Real Ganesh

Smart Indian ने कहा…

@यदि भ्रष्टाचार के दानव को परास्त करना है, तो उसके लिए चहुँमुखी अभियान आवश्यक है

सहमत हूँ!

www.hamarivani.com
रफ़्तार