ad

रविवार, 12 दिसंबर 2010

समझदारी का तकाजा

उस रोज देखा कि सडक के किनारे धूप में एक आदमी पडा हुआ है. हड्डियों का मात्र ढाँचा रह गया है और बस कुछेक देर का मेहमान है. चलती सडक----बहुत से लोग आ-जा रहे थे. राहगीर उसकी तरफ देखते, थोडा ठहरते और फिर आगे बढ जाते. उसने भी क्षणभर के लिए ठहरकर उसकी तरफ देखा और आगे बढ गया.
वो अभी महज चन्द कदम ही चला होगा कि चलते-चलते अचानक से ठिठककर रूक गया, देखा बीच सडक में मुडा-तुडा, पुराना सा एक 100 रूपये का नोट पडा है. इधर-उधर निगाह दौडाई, कि कहीं कोई देख तो नही रहा. जब पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर नहीं है, तो उसने आहिस्ता से झुककर नोट उठाया और जेब के हवाले कर लम्बे-लम्बे डग भरता दूर निकल गया..........
शायद वो जानता था, कि दुनिया दया से नहीं समझदारी से चला करती है.....
**********************
ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा

22 टिप्‍पणियां:

Kunwar Kusumesh ने कहा…

कम शब्दों में गहरी बात आप कह जाते हैं

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

चिंतन को बाध्य करती अच्छी लघुकथा।

बेनामी ने कहा…

कम शब्दों में बडी बात कह जाने की कला में तो आप माहिर हैं/
बहुत ही अच्छी लघुकथा, सोचने को विवश करती हुई/
प्रणाम/

बेनामी ने कहा…

कम शब्दों में बडी बात कह जाने की कला में तो आप माहिर हैं/
बहुत ही अच्छी लघुकथा, सोचने को विवश करती हुई/
प्रणाम/

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत गहरी बात कह दी आप ने इस लघु कथा मे, धन्यवाद

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत ही अच्छी लघुकथा|धन्यवाद|

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

अब देखिये न नोट यूं सड़क पर ही पड़ा रहे ये भी कोई समझदारी तो नहीं ही हुई न :)

anshumala ने कहा…

अच्छी लघुकथा।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

sahI kiyA bande ne...

सुज्ञ ने कहा…

बोधदायक लघुकथा।

ठोकर खाती सम्वेदनाएं और लालची बनती भावनाएं।

'समझदारी'की समझ को अब समझना आवश्यक है।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुंदर लघुकथा .... विचारणीय बात तो है....

Unknown ने कहा…

सुज्ञ जी ने बिल्कुल बजा फरमाया! हकीकत में आज सम्वेदनाएं ठोकरें खा रही हैं ओर लोभ, लालच तथा वासनापूर्ण भावनाएं समझदारी का नकाब ओढे घूम रही हैं!
बेहतरीन लघुकथा शर्मा साहेब!

naresh singh ने कहा…

मेरी नजर में और भी ज्यादा समझदार तब होता जब उसे ये भी पता होता की ये नोट किसका है |

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कितना यथार्थ है इस बात में ... कड़ुवा सच ... और दोषी भी हम ही हैं ...

vandana gupta ने कहा…

बहुत गहरी बात मगर साथ ही सोचने को मजबूर करती है कि आज इंसानियत कैसे ज़िन्दा ही दफ़न हो गयी है।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत सुन्दर और मार्मिक लघुकथा !

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या लिखूँ? क्योंकि इतने कम शब्दों में आपने इतनी अच्छी कहानी लिख दी। ये मेरे लिए किसी जादू से कम नहीं है।

कहानी बेहद पसंद आई।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आदमी का सडक पर पड़ा रहना, सरकार की जिम्‍मेदारी है लेकिन नोट का मिलना आपकी किस्‍मत है। यह भी तो सोचो।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

...अच्छा है।

Alpana Verma ने कहा…

अच्छी लघुकथा..
संवेदनाहीन होते इंसान हेतु व्यक्तिगत ज़रूरतें प्राथमिक होने लगी हैं .

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

वत्‍स जी, कम शब्‍दों में गहरी बात कह दी आपने। बधाई।

---------
छुई-मुई सी नाज़ुक...
कुँवर बच्‍चों के बचपन को बचालो।

खबरों की दुनियाँ ने कहा…

वाह रे इंसान वाह ।अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"

www.hamarivani.com
रफ़्तार