उस रोज देखा कि सडक के किनारे धूप में एक आदमी पडा हुआ है. हड्डियों का मात्र ढाँचा रह गया है और बस कुछेक देर का मेहमान है. चलती सडक----बहुत से लोग आ-जा रहे थे. राहगीर उसकी तरफ देखते, थोडा ठहरते और फिर आगे बढ जाते. उसने भी क्षणभर के लिए ठहरकर उसकी तरफ देखा और आगे बढ गया.
वो अभी महज चन्द कदम ही चला होगा कि चलते-चलते अचानक से ठिठककर रूक गया, देखा बीच सडक में मुडा-तुडा, पुराना सा एक 100 रूपये का नोट पडा है. इधर-उधर निगाह दौडाई, कि कहीं कोई देख तो नही रहा. जब पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर नहीं है, तो उसने आहिस्ता से झुककर नोट उठाया और जेब के हवाले कर लम्बे-लम्बे डग भरता दूर निकल गया..........
शायद वो जानता था, कि दुनिया दया से नहीं समझदारी से चला करती है.....
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ज्योतिष की सार्थकता
धर्म यात्रा
22 टिप्पणियां:
कम शब्दों में गहरी बात आप कह जाते हैं
चिंतन को बाध्य करती अच्छी लघुकथा।
कम शब्दों में बडी बात कह जाने की कला में तो आप माहिर हैं/
बहुत ही अच्छी लघुकथा, सोचने को विवश करती हुई/
प्रणाम/
कम शब्दों में बडी बात कह जाने की कला में तो आप माहिर हैं/
बहुत ही अच्छी लघुकथा, सोचने को विवश करती हुई/
प्रणाम/
बहुत गहरी बात कह दी आप ने इस लघु कथा मे, धन्यवाद
बहुत ही अच्छी लघुकथा|धन्यवाद|
अब देखिये न नोट यूं सड़क पर ही पड़ा रहे ये भी कोई समझदारी तो नहीं ही हुई न :)
अच्छी लघुकथा।
sahI kiyA bande ne...
बोधदायक लघुकथा।
ठोकर खाती सम्वेदनाएं और लालची बनती भावनाएं।
'समझदारी'की समझ को अब समझना आवश्यक है।
सुंदर लघुकथा .... विचारणीय बात तो है....
सुज्ञ जी ने बिल्कुल बजा फरमाया! हकीकत में आज सम्वेदनाएं ठोकरें खा रही हैं ओर लोभ, लालच तथा वासनापूर्ण भावनाएं समझदारी का नकाब ओढे घूम रही हैं!
बेहतरीन लघुकथा शर्मा साहेब!
मेरी नजर में और भी ज्यादा समझदार तब होता जब उसे ये भी पता होता की ये नोट किसका है |
कितना यथार्थ है इस बात में ... कड़ुवा सच ... और दोषी भी हम ही हैं ...
बहुत गहरी बात मगर साथ ही सोचने को मजबूर करती है कि आज इंसानियत कैसे ज़िन्दा ही दफ़न हो गयी है।
बहुत सुन्दर और मार्मिक लघुकथा !
समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या लिखूँ? क्योंकि इतने कम शब्दों में आपने इतनी अच्छी कहानी लिख दी। ये मेरे लिए किसी जादू से कम नहीं है।
कहानी बेहद पसंद आई।
आदमी का सडक पर पड़ा रहना, सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन नोट का मिलना आपकी किस्मत है। यह भी तो सोचो।
...अच्छा है।
अच्छी लघुकथा..
संवेदनाहीन होते इंसान हेतु व्यक्तिगत ज़रूरतें प्राथमिक होने लगी हैं .
वत्स जी, कम शब्दों में गहरी बात कह दी आपने। बधाई।
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छुई-मुई सी नाज़ुक...
कुँवर बच्चों के बचपन को बचालो।
वाह रे इंसान वाह ।अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
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